मिथिला के लोक संगीत
जगत जननी जानकी की मिथिला विद्वानों, कवियों की जन्मभूमि रही है । मिथिला का कण–कण संगीत से भरा है । मिथिला के पेड≥, पौधों के सुकोमल पल्लवों में संगीत समाया है । मिथिला प्रदेश के पंछियों का संगीत सुबह, मध्यरात्री, शाम में कर्णरंध्र में समाता रहता है । मिथिला का हर मौसम गाता है । जितनी भी ऋतुए“ आती हैं, जाती है,अपने संग संगीत लेकर आती हैं, जाती हैं । मिथिला प्रदेश का व्यक्ति, व्यक्ति गाता है । भैंसवार भैंसकी पीठपर बैठे, गाते हैं । हलवाहे हल चलाते समय गीत टेरते हैं । ऐसा प्रतीत होता है मिथिला में ही कभी संगीत का उद्भव हुआ होगा । भैंस के थन से निकलती दूध का धार जब चपै से टकराता है तो उससे उपन्न ध्वनियों में संगीत समाया रहता है ।
हिन्दी के ‘संगीत’शब्द का पर्यायवाची शब्द अ“ग्रेजी भाषा में होता है जिसका Chambers शब्द कोष न A
connected series of sweet sounds कहा है । निरंतर उत्पन्न मधुर ध्वनिया“ ही संगीत कहलाती हैं । वही शब्दकोष–कार ने बताया है कि जो गाया जाता है वह गीत कहा जाता है । इस तरह संगीत और गीत में अंतर किया गया है ।
जब स्वयं मैं छोटा था । हमारी पूजनीया दीदी के सुक्खी दरबार में हर दीपावली के अवसर पर दरभंगा राज के तबलावादक दरबारी दास एवम् नर्तक मिसरिया को अमंत्रित किया जाता था । खजौली स्टेशन से तीन किलोमीटर उत्तर में दीदीका गा“व सुक्खी है । भाषा ज्ञान तो अल्प ही था फिर भी उस मिश्री नर्तक के सुमधुर कंठ से निकले सुललित शब्द समूह आज भी स्मरण है ।
“सखी हे । केशी मथन मुदारम । ”
अथवा
सखि हे । विहरति सरस बसंते
अथवा
श्री जयदेवे कृत हरिसेवे भणति परम रमणीयम् ।
प्रमुदित ह्दयं हरिमति सदयं नमत सुकृत कमनीयम् ।
धीरे समीरे यमुना तीरे वसति वने वनमाली ।
गोपी पीन पयोधर मर्दन चंचल कर युगशाली ।
हर शब्द नन्ही नन्ही घंटियों की तरह बजता हुआ । फिर रंग–बिरंगा स्वर तितलियों की तरह समुचे पर्यावरण में तैरता हुआ । कैसी अद्भूत लय ।”
विश्वविद्यालय छोड≥ देने के बहुत बाद जब कविवर जय देवकृत “गीत गोबिन्द” पुस्तक हाथ लगी तों उपरोक्त पंक्तियों को उस पुस्तक में पढ≥ने का अवसर मिला ।
उमापति उपाध्याय की रचना मैथिली भाषा में सब से प्राचीन है । उन्होंने ने गेयपदों की रचना की है । स्वयं उनकी कामना है –“आशूद्रान्तं कवीनां भ्रमतु भगवती भारती भ¨िभेदें ।” उनकी रचनाओं को शूद्र तक भी गाते रहे है । उभापति के बाद कवि कोकिल विद्यापति हुए है ।
विद्यापति को अभिनव जयदेव इसीलिये अभिहित किया जाता है कि उनके गीत इस मिथिला भूखंड की नस नारी, सभी के मु“हसे सुने जाते हैं । भगवान शिवभक्ति परक नचारी, तिरहुत, बटगवनी आदि अनंतकाल तक गाये जाते रहेंगे ।
“जयदेव की देववाणी की स्निग्ध पीयूषधारा जो काल की कठोरता में दब गयी थी, अवकाश पाते ही लोकभाषा की सरसता में परिणत होकर मिथिला की अमराइयों में विद्यापति के कोकिल कंठ से प्रकट हुई और आंगे चलकर ब्रजके करील कुञ्जों में पैmले, मुरझाये मनों को सींचने लगी ।”
आचार्य रामचंद्र शुक्ल
‘त्रिवेणी के रचपिता’
जब स्वयं मैं छोटा था । हमारी पूजनीया दीदी के सुक्खी दरबार में हर दीपावली के अवसर पर दरभंगा राज के तबलावादक दरबारी दास एवम् नर्तक मिसरिया को अमंत्रित किया जाता था । खजौली स्टेशन से तीन किलोमीटर उत्तर में दीदीका गा“व सुक्खी है । भाषा ज्ञान तो अल्प ही था फिर भी उस मिश्री नर्तक के सुमधुर कंठ से निकले सुललित शब्द समूह आज भी स्मरण है ।
“सखी हे । केशी मथन मुदारम । ”
अथवा
सखि हे । विहरति सरस बसंते
अथवा
श्री जयदेवे कृत हरिसेवे भणति परम रमणीयम् ।
प्रमुदित ह्दयं हरिमति सदयं नमत सुकृत कमनीयम् ।
धीरे समीरे यमुना तीरे वसति वने वनमाली ।
गोपी पीन पयोधर मर्दन चंचल कर युगशाली ।
हर शब्द नन्ही नन्ही घंटियों की तरह बजता हुआ । फिर रंग–बिरंगा स्वर तितलियों की तरह समुचे पर्यावरण में तैरता हुआ । कैसी अद्भूत लय ।”
विश्वविद्यालय छोड≥ देने के बहुत बाद जब कविवर जय देवकृत “गीत गोबिन्द” पुस्तक हाथ लगी तों उपरोक्त पंक्तियों को उस पुस्तक में पढ≥ने का अवसर मिला ।
उमापति उपाध्याय की रचना मैथिली भाषा में सब से प्राचीन है । उन्होंने ने गेयपदों की रचना की है । स्वयं उनकी कामना है –“आशूद्रान्तं कवीनां भ्रमतु भगवती भारती भ¨िभेदें ।” उनकी रचनाओं को शूद्र तक भी गाते रहे है । उभापति के बाद कवि कोकिल विद्यापति हुए है ।
विद्यापति को अभिनव जयदेव इसीलिये अभिहित किया जाता है कि उनके गीत इस मिथिला भूखंड की नस नारी, सभी के मु“हसे सुने जाते हैं । भगवान शिवभक्ति परक नचारी, तिरहुत, बटगवनी आदि अनंतकाल तक गाये जाते रहेंगे ।
“जयदेव की देववाणी की स्निग्ध पीयूषधारा जो काल की कठोरता में दब गयी थी, अवकाश पाते ही लोकभाषा की सरसता में परिणत होकर मिथिला की अमराइयों में विद्यापति के कोकिल कंठ से प्रकट हुई और आंगे चलकर ब्रजके करील कुञ्जों में पैmले, मुरझाये मनों को सींचने लगी ।”
आचार्य रामचंद्र शुक्ल
‘त्रिवेणी के रचपिता’
Vidaya Pati Thakur (1850-1440)
has been immortal as the great poet who wrote sweat songs in the language
actually spoken in the land. He has been called "The cuckoo" of
Mithila and his sweet warbling ushered spring in the vernacular literature of Northern India"
Rama Nath Thakur
" Tails from Vidyapati"
स्वर्गीय श्री कृष्णचंद मिश्र
पूर्व हिन्दी विभाग अध्यक्ष, त्रिभुवन विश्व विद्यालय काठमाण्डू, नेपाल
बरसात के आरम्भ होने पर किसान नये पेड≥–पौधे लगाते हैं । साल के आरम्भ होते ही प्रथम दिन आर्थत् पहले बैसाख के दिन वर्षा का आरम्भ होना निश्चित प्राय है । जेष्ट से समय–समय पर बरसा होने लगती है । बारहमासा कें सम्पूर्ण गीत में बारहों महीनों की प्रकृति का वर्णन रहता है । अतः यह गीत बारहमासा के नाम से प्रख्यात है ।
बारहमासा
जेठ हे सोखे हेठ बरसा
रोपि देलह“ु नेमुआ, अनार हे ।
फुलवा फुलाये गेलै, नेमुआ म“जरि गेलै,
नहिं अयलै पिया के समाद हे ।
अपनो ने आवय पिया, पतियो ने मेजै,
कैसे गंवा येब यह वयस हे ।
वयस मोरा बिति गेलै, पिया के उदेस नहि पैलिये
पाकि गेलै सिरहु के केस हे ।
आज भी जहा“ जांता चलया जाता है । लगनी गीत गाये जानें की परम्परा है । कभी घर, घर में जांता रखनें का रिवाज था । अब गा“व, गा“व में आंटा मिलों के आ जाने से चक्की का रखना छोड≥ दिया है । अब की नारिया“ सुकुमार बन गयी हैं । जांता चलाने में श्रम करना पड≥ता है । आज की नारिया“ श्रम करना नहीं चाहतीं । जांता चलाने से उत्पन्न श्रम को भूलाने के लिये अथवा कम करने के लिये जांता चालन के समय लगनी के गानेसे ध्यान ब“ट जाता है । जिससे काम करने में सुगमता होती है । अतः यह पारम्परिक ‘लगनी’ गाने की परम्परा है । जांता चालन के बंद होने से शरीर के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड≥ा है ।
लगनी – १
ननदो, भौजी मिली जांता पिसद्र बैसल
घामे पसीना भींजल चुनरिया हो राम ।
घर पछुअर वा बसै ननदोसिया
सब रंग बेनिया बेसाहि देलक हो राम
बेनिया होंकैते धनि सासु मोरा देखलक
तब सासु परल दुखिते हो राम ।
ंहर जोति आयलऽ कोदारि पारि आयलऽ
पूछय गैले मैया के कुशल–स्नेह हो राम ।
हमरो के कुसल कहलो ने जाइय
आनि दिऔ पुतहु के कोंढ≥–करेज हो राम ।
कहा“ गेलऽ किए भेलऽ हे डोम चंडाल
आनि दिअऽ वन से हरिनक करेज हो राम ।
तोहरो जे देबौ डोमा डाला भरि सोनमा
धनि लागि सरिया बेसाहब हो राम ।
सब रंग के गहना बेसाब हो राम ।
धनि लागि डोलिया फनाएब हो राम ।
पेन्हाये, ओढ≥ाये सामी केलक समतुल
बेगर बोलाये नैहर जाय दियै हो राम ।
एहन सोहागिन कहियो नै रहलियै
डोलिया चढि≥ नैहर जाइत छियै हो राम ।
लगनी–२
पनिया भर गेलियै ओहि जमुनमा,
भैंसुर पापी घेरै छै बटिया हे राम ।
छोड≥, छोड≥ आहे भैंसुर हमरो के बटिया
झींसीये फुंही भिंजल चुनरिया हे राम ।
भींज दिऔ, तीत दिऔ अपनो चुनरिया
अपनो चदरिया पलट देबद्र हे राम ।
कहा“ गेल, किए भेल सामी अभागल
तोहरो अछैत तोहर भैया निरखै हे राम ।
चुप रहु , चाप रहे धनि हमार,
होयत परात लगतै बजरिया, हे राम ।
छुरिया बेसाहब भैया जीव हतवै
भैया जीव हतवै, असगर कहेवै हे राम ।
तिरिया जीव हतवै तिरिया वध लगतै हे राम ।
गीत रचना आज भी निरंतर रुप से चल रहा है । यह तो संगीतज्ञ पर निर्भर करता है कि रचनाकार की पंक्तियों को शास्त्रीय धुन में प्रस्तुत किया जाय अथवा सुगम संगीत के रुप में । संत तुलसी दास, सूरदास अथवा कबीर दास, के लिखे गीत आज भी तरुणाई प्राप्त कर रहे हैं । हमारे समाज के कंठ में वे सभी आज भी अपने स्थान सुरक्षित करते चल रहे है । इन सबों के रचित गीत अब भी सुबह,शाम किसी भी पावन अवसर पर सुनाई पड≥ते है । प्राती द्रष्टव्य है ।
“ कमल नयन परदेश हे भामिनी, कमल नयन परदेश ।
राम–लखन, सिया वन के सिधारल धएलनि तपसीक वेस ।”
अथवा
जनि करु राम विरोग हे जानकी........... ।
अथवा
कबीर दास की पंक्ति
“ पानी में मीन पिआसी हो संतो ..................।”
शहरी क्षेत्र के लोग इन गीतों को भले ही भूल चुके हो परंतु देहात के गा“व, गा“व में आज भी असंख्य नर–नारी के कंठों से ये गीत निसृत होते रहते हैं ।
मिथिला प्रदेश के समाज में मनाये जाने वाले पर्व त्यौहार आदि के अवसरों के अनूकुल गीत गाये जाते हैं । शिशुओं के शुभ जन्म के अवसर पर गाये जाने वाले गीत सोहर गाये जाते है । सोहर मंगल सूचक गीत हैं ।
‘किनका के जनमल राम कि किनका के लक्ष्मण रे ...............
ललना रे, किनका के जनमल भरत कि तीनू घर सोहर रे ।
सोहर जहा“ मंगल–सूचक गीत हमारे मिथिला समाज में लोकप्रिय है वहीं बेटी विदागरी अथवा किन्हीं बड≥े बुजुगों के धरती छोड≥ कर चले जाने के करुण–वियोग से उत्पन्न क्षण हो, करुणा से हृदय को दहला देनेवाले उक्त अवसर पर पुरुषों–नारियों के मुंह समदाऊन गाने की परम्परा अनंत काल से चल रही है । यह गीत विधा किसी भी सुहृद्यी को उक्त क्षण में रुला देने की क्षमता रखता है । आ“खें अश्रुपूरित हो जाती हैं । करेजा खंड, खंड हो जाता है ।
“केहन निरमोहिया संगे हम जोड≥ल पीरितिया हमरा बिछुड≥ैत देरियो नहिं होई राम..........................
बिछुड≥ति फोड≥बै हम शंख चूड≥ी
फाड≥वै हम चुनरिया हो राम ........................... ”
अथवा
बड≥ रे जतान सओं सीता दाइ के पोसल हु“,
से ही रघुवंशी नेने जाय ......................
शादी–विवाह हमारे समाज की पुरुष नारी के जीवन में अन्यतम घटना है । उक्त अवसर पर अनेक प्रकार के विध के परम्परा से पालन करते चले आने का रिवाज है । जितने प्रकार के विध को पूरा किया जाता है उतने ही किस्म के गीत गाने का चलन है । चुमाऊन,परिछन, सिंदूरदान अथवा पैनकट्टी हो , महिलायें गाती रहती है ।
पैन कट्टी गीत ः–
कोने पूmल फुले मालिनी अधि, अधि रतिया,
कोने पूmल फुले भिनसरवा ।
चम्पा पूmल फुले मालिनी अधि, अधि रतिया,
बेली पूmल फुले भिनसरवा ।
हाथ के लेलक मालिनी सीकी के डलिया
चलि भेल राजा फुलवारी .................. ।
खोंइछा भरि लोढ≥ले, चंगेरियाभरि लोढ≥ले,
आविगेलै मालिक कोतवाल ।
खोंइछा भरि छिनलक,
चंगेरिया भरि छिनलक
छिनी लेलक आ“चलक जौवन मा ।
कानिते, खिंजते मालिनी अयली आ“गन मा
चंगेरिया धरैत खसल पलंग मा
केएतोरा मारलक, केएतोरा गरियौलक
केए तोहर छिनलक फुल ........................।
पmुलवा लौढ≥ेते बेरी आयल गा“वक गोराइत ।
उक्त पैनकट्टी गीत में तात्कालीन अन्याय, अत्याचार की त्रासदी मुखर है ।
लाड≥ली बिटिया विवाह के बाद ससुराल चली जाती है । नैहर छोड≥े हुए अधिक समय बीत चुका है । नैहर की हाल–खबर जानने को उत्सुक रहती है ।
कासी फुटल कसामल रे दैवा
बाबा मोरा सुधियो न लेल ।
बाबा भेल निरमोहिया रे दैवा,
भैया के भेजियो न देल ।
भैया भेल कचहरिया रे दैवा,
भौजी कैसे बिसरि देल ?
अबतो चारो ओर कासत्पटेर फुला गया । बरसात बीत चली है । पिछली बार बाबा स्वंय आये थे । इस बार बाबा कैसे भूल गये । बाबा अब निरमोहिया हो गये । भैया कचहरिया हो गये हैं । खेत–पथार का उन्हें भंmझट रहता है । परंतु भौजी कैसे भूल गयीं ?
हा“रे सुन सखिया † सावन भादव के र उमड≥ल नदिया । भैया आइले बहिनी बोलवे लेल सुन सखिया ।
भौजी भूल नहीं गयी थी । अपने सामी (पति) को ताना देकर ननदी को बुलाने को कहती है । भाई बहन को बुलाने जाता है । कलतक दुखित रहने वाली ननदी (बहुरिया) अपनी ननदी और सहेलियों को प्रसन्नचित्त कहती है ।
“हे ननदी, सखी † सावन–भादव की नदी उमड≥ती चलती है । तब भी हमारे भैया बुलाने आये हैं । आप सभी मिलकर सास को समझा–बुझा दें । जिस से वे हमें जाने दे नैहरा आप सभी हमें भैया के साथ जल्दी ही विदा कर दें ।
सास नाकपर मकखी भी बैठने नहीं देती । जरा आप सभी श्वसुर को कह–सुन दें । कनिया की बात सुन ससुर जी कहते हें उलाहना देते हुए नदी वाला इलाका होने कारण दहेज में नाव क्यों नहीं दी गयी ? पतिदेव के हस्तक्षेप के बाद कनिया विदा कर दी गयी । दुखित मन कनिया खुशी, खुशी विदा कर दी जाती है । बरसात के रहने पर भी कनिया भाई के संग विदा हो जाती है । नदी के घाट पर आने पर नावका कहीं पता नहीं । कोई बात नहीं । हम नाव खुद बना लेते हैं । होशियार भाई ने केले के थम्हों को काटकर, मु“ज की रस्सी से उन्हें बा“ध नाव तैयार कर लिया । उसी केले के बेढ≥ के सहारे दोनें भाई–बहन ने उमड≥ती नदी पार करने का दुःसाहस किया । बाढ≥ के कारण नदी में भयंकर लहर उत्पन्न होती थी । पानी तेज गति से प्रवहमान था । भयंकर लहर एवम् तेज गति के कारण केले काबेढ≥ ढ≥ीला होते, होते छिन्न–भिन्न होता चला गया ।
“ कटिगेल कासी–कुसी छितरि गेल थम्हबा,
खुली गेल मू“ज केर डोरिया रे सुन सखिया ।
बीचहि नदिया में आइले हिलोरवा,
छुटि गेलै भैया केर ब“हिया रे सुन सखिया ।
डुबी गेलै भैया केर बेढ≥वा रे सुन सखिया ।
अगम–अथाह पानी में भयंकर हिलकोर के कारण केले के थम्ह का बेढ≥ छुट गया । भाई–बहन का साथ छुट गया । दोनों भाई–बहने ऊगने–डुबने लगे । डुबती बहनने भाई के माध्यम से बाप–मा“को संदेश भेजवाया । बहन का अंतिम संदेश यह था ।
“अबसे सावन–भादो के महीनों मेें बेटी की विदागरी मत करें ।
बहन नदी के अगम पानी में समा गयी । नदी ने बहन को डूबा दिया । भाई जैसे–तैसे हेलकर नदी पार कर लिया ।
तभी से साबन–भादो में बेटी विदागरी नहीं की जाती है ।
कार्तिक मास में विजयादशमी के प्रारम्भ होते ही मा“ भगवती, दुर्गा, काली देवियों की स्तुति के गायन का कार्य रथयात्रा के समय तक निरंतर रुप से मृदंग, झाल आदि वाद्यों के संग चलता रहता है । इसी अवधि मर झीझिया नृत्य घड≥ा में सैकड≥ो छिद्र बनाकर, उस में दीया जलाकर माथे पर रखकर किया जाता है । झीझिया नृत्य करते समय डायन सम्बन्धी गीत का गायन किया जाता है । डायन को गाली दो जाती है । उसके द्धारा चलाये जादू कों भोथा बनाया जाता है जिससे बच्चों, गर्भिनियों, पशुओं जो दूध देने वाले होते है अथवा गाभिन होते है सुरक्षा प्रदान करने का विश्वास किया जाता है ।
विजया दशमी की समाप्ति पश्चात् सामा–चकेवा, जट–जटीन के गीतों को गाया जाता है । उस समय गृहिणिया“ प्रायः कार्यविहीन रहती हैं । भदई फसल कटकर तैयार हो गयी रहती है । अगहन में धान काटने में देर रहती है । मनोरंजन का सुखद–सुअवसर तब बनता है । टोले भर की महिलायें, लड≥किया“ एक जगह एकत्र होती हैं । सभी अपने, अपने सामा–चकेवा दोरों में रखकर एक केंद्र में जमा होती हैं । सभी दौरों में दीया जलता रहता है । सभी मिलकर गाते हैं ।
सामा खेल गेलिए हो भैया,
डलवा लय गेलैय चोर ।
एक मुी खरही के करिहद्र इं जोत हौ भैया † सभी लड≥किया“, महिलायों अपने बहनोइयों का नाम लेकर मधुर गाली का प्रयोग करती है ।.......... भरुआ चोर ।
सामा–चकेवा भाई–बहन का पावन पर्व है । त्यौहार है । पर्व के समापन के दिन बहने अपने अपने भाइयों को औकात अनुसार चुड≥ा–मिठाई जलेबी आदि प्रदान कर प्रसन्न करती हंै ।
फाल्गुन तो उल्लास, उन्माद, उमंगों को अपने साथ झोली में रख कर आता है । चारों तरफ मस्ती छा जाती है । । चरवाहे बाध–वन में होली गाते रहते है । होली की मस्ती में में गाने का कोई निश्चित क्षण तो होता नहीं । सुबह, दुपहर, शाम जब भी मन करता है लोग गाते हैं । इस गीत को अकेले भी गाते हैं, समुह में डमफा, मृदंग, ढोलक, झाईल आदि बाद्य–बाजों की धुन पर गाते हैं ।
चलूगे ननदिया, कुसुम पूmल बगिया
गरी गेल अ“ुगुरिया में का“ट ।
केए मोरा क“टवा निकालत गे ननदी,
केए मोर दरद हरि लेत ।
देवरे मोरा क“टवा निकालत गे ननदी,
पिया ओर दरद हरि लेत ।
उपरोक्त गीत की पंक्तियों में सुमधुर सम्बन्ध वाले सुखद परिवार का चित्रां कन रचनाकर ने किया है । यद्यपि अब आज के इस अर्थप्रधान युग में इसकी सिर्पm कल्पनाभर की जा सकती है । आज के इस गर्दन–कट प्रतिस्पर्धा वाले युग में सुमधुर सम्बन्ध वाले परिवार अतीत की बात हो गयी ।
सुखद, सुमधुर सम्बन्ध अभिव्यक्त करने वाली होली एक ओर गायी जाती है तो दूसरी ओर जगकी अनित्यता जताने वाली होली भी लोग गाते हैं ।
दिन चारि नैहरा में खेलके,
निज सासुर जाना हो साधु ।
कोठा के ऊपर कोठली,
उस में दिअरो ने बाती हो साधु
ब“हिया पकडि≥ यम लेई चले, कोई संगों ने साथी हो साधु ।
फाल्गुन रंग–गुलाल वसंतोत्सव का मधुमास अपने संग लेकर आता है । मिथिला के कण, कण में उमंग, उत्साह लाता है । जाड≥े≥ का अंत होता है और ग्रीष्म का प्रास्म्भ होता है । यह समय बहुत लोकप्रिय होता है । इस महीने भर विवाह, यज्ञ आदि सम्पन्न किए जाते है ।
फाल्गुन के अंत होते ही चैत की गर्मी आ जाती है । इस महीना में संगीत का एक लोकप्रिया विधा “चैतावर” अथवा ‘चैता’ गाते हैं । इस चैतावर की धुन बहुत ही कर्णप्रिय होती है । बुढ≥े, जवान सभी मस्ती से गाते है और गाकर झुमते हैं ।
“चैत मास जो बना फुलायल हो रामा,
कि सैंया नहिं आयला
रहितथि पियबा गरबा लगबितथि,
कि सइंया नहि आयला,
अथवा
चैत मास चुनरी रंगा दिया हो बलमा ।
लाल घघरा सिया दिअ हो बलमा ।
धन, धन गुजवा लगा दि ऽ हो बलमा ।फाल्गुन रंग–गुलाल वसंतोत्सव का मधुमास अपने संग लेकर आता है । मिथिला के कण, कण में उमंग, उत्साह लाता है । जाड≥े≥ का अंत होता है और ग्रीष्म का प्रास्म्भ होता है । यह समय बहुत लोकप्रिय होता है । इस महीने भर विवाह, यज्ञ आदि सम्पन्न किए जाते है ।
फाल्गुन के अंत होते ही चैत की गर्मी आ जाती है । इस महीना में संगीत का एक लोकप्रिया विधा “चैतावर” अथवा ‘चैता’ गाते हैं । इस चैतावर की धुन बहुत ही कर्णप्रिय होती है । बुढ≥े, जवान सभी मस्ती से गाते है और गाकर झुमते हैं ।
“चैत मास जो बना फुलायल हो रामा,
कि सैंया नहिं आयला
रहितथि पियबा गरबा लगबितथि,
कि सइंया नहि आयला,
अथवा
चैत मास चुनरी रंगा दिया हो बलमा ।
लाल घघरा सिया दिअ हो बलमा ।
धन, धन गुजवा लगा दि ऽ हो बलमा ।
मिथिला भूमि सदा–सर्वदा से संगीत के लिये उर्वरा भूमि रही है । इस भू–खंडका हर मौसम उत्साह उमंग, आनन्द से ओतप्रोत रहता आया है । उपरोक्त गीत समृद्घ लोक–परम्परा की अनुपम, अमूल्य देंन है । इन लोग संगीत के रचयिताओं को हम जानते नहीं । समाज के सुख–आनन्द, पीड≥ा, मानसिक वेदना आदि का निस्वार्थ तथा इमानदारी से उन लोगों ने व्यक्त किया है । तात्कालीन समाज का उत्तार–चढ≥व बखुबी मुखर ह्ै । लोक संगीत, शास्त्रीय संगीत, संगीत विद्या के दो भेद हैं । लोक संगीत के सम्बन्ध में कोशकार ने इस तरहसे व्यक्त किया है । लोक संगीत का पर्यायवाची शब्द अ“ग्रजी में Folk-song है जिसका अथ any song or ballad originating
among the people and traditionally handed down by them. काली कोयल की कू,कू अथवा सुन्दर सलोना सरिका की सी ...........इ........ता..........रा.............म पंचम स्वर की लय–तान में गायन बहुत ही मन भावन होता है । आर्यावते के किसी अन्य भाग में इस तरह का स्पंदित जीवन, समाज कोई और है कि नहीं मैं ठीक से नही बता सकता ।
मिथिला की भूमि में जन्मलेने को देवता भी लालायित रहते हैं । इस तरह यह मिथिला पावन है । पुण्य–सलीला है । मा“ जानकी की क्रीड≥ा भूमि रही है ।
समदाउन M– A swan song means the fabled song of a swan just before it death
मिथिला की भूमि में जन्मलेने को देवता भी लालायित रहते हैं । इस तरह यह मिथिला पावन है । पुण्य–सलीला है । मा“ जानकी की क्रीड≥ा भूमि रही है ।
समदाउन M– A swan song means the fabled song of a swan just before it death
साँप की जीभ
सागर–मंथन के समय ढ≥ेर–सारी स्तिुओं की उपलब्धि हुई । सुरगण चतुरथे । असुरों के साथ शर्त थी । सुरगण बासुकी नाग की प“ूछ पकड≥े थे । असुरगण मु“हकी ओर पकड≥ रखा था । मंथन–पीड≥ा के कारण नाग के म“ुह से थूक की बाढु उमड≥, चली थी जिसके कारण असुर सब परेशान थें । पहले काल–कूट निकला । काल–कूट की दा हकता अधिक थी । उसका अप्रिय गंध सभी को परेशान करता था । “इस पेय का आधा भाग आपलोगों को लेना पड≥ेगा ।” सुरों ने असुरों से कहा ।
उपलब्ध वस्तुओं का आधा कर बा“ट लेने की–शर्त थी ।
“हम सभी इस दुर्गध भरे पेय को नहीं ले सकते ।”असुरों ने विरोध किया ।
तब तो समस्या उत्पन्न हुई । सुरों में भी कोई इस आप्रिय गंधवाले पेय को पीने को तयार नहीं था । कहीं इसे भेंmक दिया जाय तो इसकी दाहकता में ब्रहनांड≥ ही जल जायगा । सभी एक दूसरे का म“ुह ताकते । उसकी दुर्गधता और दाहकता से सभी नीच तबाह हो रहे थे । तात्काल ही इस समस्या का समाभान निकालना अति आवश्यक था ।
विश्व–कल्याणका भगवान शिव उस काल–कूट को करने तैयार हुुए । उस विष–पात्र को उठा जब होगों से लगाया तो कुछ वेभी–विलित जैसे हुए। हाथ के हिल जाने से विष छलक कर नीचे गिरा । धरती पर गिरा नहीं । कतरा के झाड≥ पर गिरा ।
हवाने उसके दुर्गध को चारों कात पसार दिया । इस गंध का आभास पा मधुम किखया“ आगयीं । कुछ भाग पीकर उड≥ गयीं । उनके पीकर चले जाने पर जिधर को उड≥तीं उधर के अन्य उड≥ने वाले प्राणी भी पेय का उमड≥ा । बिर्हनी कादल पीने को उमड≥ । बिर्हनी के माध्यम से पचोहियों को खबर हुई । पचोेहिया परिवार पीकर उड≥चला तो भीलोर परिवार सहित विष–पान करने आ गया । बर्रे परिवार ने उसका आनन्द लिया ।
तबतक उस अनूठे पेय की चर्चा हर दिशा में फैल चकी थी । बिच्छुओं ने सुना तो वे भी पीने को मचल उठे । दल–बल आकर उन्होंने छक कर पीन किया । जब वे अपने घर की ओर सल रहे थे तो कोकड≥बिच्छों का भी पता चला । वे आया । पीकर गए । चींटिया“ भी आयीं । उन्होंने भी पीया ।
काल–कूट को पानकर जब कोकड≥बिच्छे आपस में बतियाते चल रहे थे तो सा“पो ने उनकी बातें सुनी । इस अदभूत पेय की बात जानकर रुर्पो में भी पीने की लालसा जगी ।
वे उस विष को पीने उस स्थान पर एकत्र हुए । पहले आए प्राणियों के निरंतर पीते जाने के कारण उसकी मात्रा भी कम होती गयी । वे पीछे पड≥चुके थे । वे पछता रहे थे कि उन्हे यह जानकारी पहले क्यों न हुई । वे बचगए विष का पान करने लगा कुश के पत्ते पर भूmल रहे विष बू“द को अपनी जीमों से चाटते रहे । बल पूर्वक चाटते रहने के कारण उन पत्तों का कोर घिसता गया । निरंतर घिसते जाने कारण सर्पो की जी में दो भागों में ब“ट गयीं ।
सर्प की जीम आजतक दोभागाें में ब“टी है ।
अक्षम
कहानी संग्रह के प्रकाशन की व्यवश्था करवाने के क्रम में दीपक बाबू से मिलने उनकी गद्दी पर जब वह पहु“चा तो वहा“ वे अपने सहायकों की परिधि में पडे≥, खानेबाले चूना–खैनी के बंद पैकेट के निर्माण संबंधी वार्तालाप में संलग्न थे । वह उनके दृष्टि पथ में पड≥ते ही उन्होनें यथास्थान बैठे दोनों हाथों को जोड≥ प्रणाम कर उसे भी अपने आसन पर बैंठनेका संकेत किया ।
“सर † मकैका ओडहा (भुट्टा) खाइये ........।”उन्होने अनुरोध किया ।
“आप ही सब उसका आनंद ले ........।”उसने कहा अनिच्छा प्रकट करते हुए ।। उसके अन्तर–मन ने ओड≥हा नखानेका संकेत किया । क्योंकि आज ही उसे सर्दी–जुकाम हो जानेका भारी अहसास सुबह से हो रहा था । “कम से कम एक भी तो ग्रहन कीजिये .......। ” कुछ नहीं होगा .........। “ताजा हैं । ” उन्होने जोर डाला ।
उसे स्वीकार करना पड≥ा ।
“विदयालय अब बंद होनेको आया .......... पता नही मैं मिल“ू या न मिलू“ .......और आप कभी भी पटना चलें जा सकते हैं...........।”
ओड≥हा का आनंद लेते हुए उसने कहा ।
“हम अभी पटना नहीं जा रहे.........छठ (उत्तर भारत,विशेषकर बिहार और नेपाल तराई का प्रमुख प्रसिद्ध पर्व जो कार्तिक शुक्ल षष्ठी तिथिको मनाया जाता है ।) के पहले तो नहीं जायेगें ...........चलते बक्त हम आपको खबर कर रचनाएं मांग लेगें............अपने पास से खोजानेका भय बना रहता है..........।”अपनें कर्मियों से बातें करते हुए उन्होने बताया ।
“धन्यवाद ................। ” कह कर अपने डेरे की ओर वापस आया तो चौधरी डाक्टर साहबको अपनी प्रतीक्षा करते हुए पाया ।
“सर † आज और अभी चलिये सिनेमा देखने .........बड≥ा मन कर रहा है......वैसे तो एक बार देखाकर आ चुका हाू“ ............फिर भी मन संतुष्ट नहीं हो रहा ..........किधर चले गये थे ?........आप ही की प्रतीक्षा कर रहे थे .........।” डा.साहब ने इच्छा प्रकट की ।
“अब तो देर हो चुकी जैसा लगता हैं ......अंधेरा धिर चुका हैं ..........लौटकर खाना बनाते हुए और भी अबेर हो जायगा........।” वह बोला ।
“नहीं † चलना ही पडेगा ........नहीं मालुम..........क्यों नहीं मन मानता ?........ खाना बनाने में समय ही कितना लगता हैं ? ...........मुश्किल से पैंतालीस मिनट से लेकर एक घंटा तक ..........।”
उनके उत्साह में किसी और किसीमका तर्क देकर खलल देना उसे अच्छा नहीं लगा । अपनी साइकल लेकर उनके साथ हो लिया । रात्रि–सेवा बसों कें पूरब–पच्छिम आवत–जाबत के कारण उनके वायु–वेग के अनुकूल प्रकाश के सैलाब में पल–प्रतिपल सूर्योदय एवं अस्त का आभास दिलानेवाले सालों पूर्व भारत–सरकार के सहयोग से निर्मित राज–पथ पर पहँ“ुचते ही एक पारखी शिक्षक के दृष्टि–पथ में पड≥ते ही कैफियत देकर दूरी को मापते वे दोनों गोलबाजार के चलचित्र भवन में पहुँ“चे तो द्धितीय “शो” प्रारम्भ होने ही बाला था ।
अहाता में फैंले अंधकार के कारण असुरक्षित स्थितिको देखकर साइकल की सुरक्षा की चिंता लगी थी ।
“यहीं झोपड≥ी में साइकल लगा दीजिए ..........ताला लगाइये........ ।” डा.साहब का निर्देशन हुआ ।
वह स्थान कांटेदार–तारों से घिरे अहाता के अंदर था । अतः आश्वस्त हो रहा ।
“ठीक है.........लगाता हू“ँ ..............।” ताला बंद करते हुए उसने कहा । उनके पीछे हो चला ।
उसे उस समय सर्दी अंतर में कोई खास महसूस नही हुयी । मध्यांतर में पेशाब करने बाहर हुआ तो साइकल को देख लेना आवश्यक लगा ।
“चाय तो पीजिये.......... । ” वापसी के समय उसने डाक्टर साहब से पूछा । बरसात के कारण हवा में ठंड थी ।
“अभी चाय मिलेगी ? .........? ” शंका जाहिर करते हुए डा.साहव ने कहा ।
“चाय तो बनानी पडे≥गी .......दूकान वाले ने कहा .......थोड≥ा समय चाहिए । ”
“समय तो नहीं हैं । ........ उसने कहा....... चलिये । ”
दोनों ही भीतर हो गए । शोर गुल चल रहा था । खोम्चेवालोंका साम्राज्य बना था चलचित्र भवन का अन्तःपुर ।
“ताजा नारियल है........ । ” पीछे से स्वर आया ।
“नारियल खायेगें....... ?” डा.साहब की दृष्टि उस छोकडे≥ के नारियल पर जमी थी ।
“खाइये ...... । ”उसने हामी भरी ।
“अभी यह खाने में हानि तो नहीं होगी ...... ?”
“यह ताजा फल हैं ......... कच्चा नारियल.......स्वास्थ्यप्रद ही होना चाहिए........। ”
“क्या भाव हैं.......? ” टुकडा बड≥ा दीख रहा था ।
“प्रति टुकड≥ा दो रुपये........ ।
चाहिए दो टुकडे≥........... । ”
बिजली का प्रकाश गुम हुआ नहीं कि टार्च के प्रकाश में भवन का पर्दा झिलमिला उठा । अगल–बगल नव–युवक–नवयुवतियों के जोडे आपस में हँस बोल रहे थे । उसे अपनी जीवन–संगिनीका स्मरण हो आया । विश्राम काल में बनारस के बाबा विश्वनाथ मंदिर के प्रांगन में जब पंजाबी एक पौढा की उसने दर्शनार्थियों की भीड में सुरक्षा प्रदान की थी तो बडी आत्मीयता से उसे “बेटी” शब्द से सम्बोधन करती जो कुछ थोड≥े कृतज्ञतापूर्ण वचन के प्रयोग उसने की उस से उसे अपार प्रसन्नता हुई तथा उसने गौरब अनुभव किया । सुबह होने पर चलते वक्त उन्ही लोगों ने उनसे अपने समूह में सम्मिलित होकर नगर–दर्शनका आग्रह किया था । वह भी केवल दो की ही संख्या में था । उस प्रौढ≥ाने उससे भी बाल–बच्चे ,पेशा, खेती ,गृहस्थी आदि के विषय में पूछा था जिसे जानकर वह बड≥ा ही आनन्दित हुई थी । उसी महिला ने देह दवा देने के प्रेमपूर्ण पति पत्नि के समान आपसी व्यवहार के सम्बन्ध में हाथ के संकेत से जब पूछा तो उसे भी उसी क्षण घर से दूर परदेश में उस स्नेहपुर्ण मधुर व्यबहारका महत्व मालूम हुआ जो आज पर्यन्त भी वह अपनी घरवाली प्राणप्रिय रामसती के साथ निभा रहा हैं । उसी क्षण से उसने पति के श्रेष्ठता की रुढिवादी विचार का परित्याग कर समकक्षता की भावना का स्वीकारता अपने नैतिक दायित्वका पालन करता आ रहा हैं । उस दोनों की प्रसन्नता आर्थिक संकट्काल में बदस्तूर कायम है ।
गोलबाजार से वापस हो आवास में आने पर देर रात में खाना बनाने से मन ने आना कानी की तो चूरा–घी–चिनी खाकर सो गया । ताजा जल पीया ।
सुबह में सर्दी बढ गयी थी । सर्दी अपने आप में कोंई बीमारी तो नहीं । वह प्रकृतिकी शरिरको रोग मुक्त करने की एक प्रकिया हैं जिस क्रम में रोगीको रोग–मुक्त करने की प्रकृया में स्वयं सहायता करनी चाहिये न कि अंट–संट खाकर बाधा । कुपथ्य नहीं करने पर सर्दी स्वयं ही ढ≥ाई से तीन दिनों में समाप्त हो तन रोग–मुक्त हो जाता हैं । उसने खाना छोड उपवासका सहारा लिया । पर्याप्त गर्म जल पी, दूध का आहर कर रोग–मुक्त होने की चेष्टा की ।
“सर † लगता हैं ......... ? सर्दी हो आयी हैं ...... । विद्यलय पहुँचने पर शेखर बाबू ने पुछा । गमछा से जब तब नाक से आते पानी को पोंछ कर साफ करना पडता था । आ“खे लोल, उससे ताब निकलता महसुस होता था । सिर भी भारी लगता । नाक बंद लगती अनुभव होता । प्र.अ.की अनुपस्थिति में काम का अतिरिक्त भार और भी बढ आया था अनावश्यक तौर पर । सूर्योदय पश्चात् चपरासी से दूध की व्यबश्था कर देने के लिये कहने पर उसने असमर्थता प्रकट की कि इस टोल में दूध नहीं लगता है , मिलना मुश्किल है ।
सर † दूध की व्यवस्था हुई कि नहीं. .........? कक्षा से वापस आकर शेखर बाबू ने जब पूछा तो उसने नकारात्मक उत्तर दिया ।
“नही हुआ ........ दूध का अब समय भी नहीं रहा । ”
ठहरिये.........हमारे गांव की एक पड≥ोसिन यहा“ रहती है .......उसकी गाय दूध देती है .....गाय का चलेगा न.....? प्रश्नात्मक दृष्टि उसने डाली ।
यह तो और भी अच्छा है....रोगी के लिये अमृत ...........।
विद्यालय के समीप ही वह घर है ठाकुर का जिसके भीतर जाकर उन्होने एक लोटा दूध का इन्तजाम किया ।
एक घंटे बाद दूध होगा..... दूध दूहा नही गया है अभी.........।
तीन दिनों से वह उपवास करता रहा । दूधाहार और पर्यााप्त गर्मजल पीकर ज्वर सहित सर्दीका उपचार करता रहा । परन्तु ज्वर शुद्ध नहीं हुआ । सर्दी और उससे बना ज्वर ।
सर † ज्वर हो आया है....... अन्न खााना नहीं छोडि≥ये........ कोई औषधि भी लीजिये...... आज कल का ज्वर भोजन आौर औषधि खाते रहने पर भी ठीक होता है ।....... अन्यथा कमजोर होते चले जायेंगे....... ।
कहते तो ठीक ही हैं आप....... खाने से ज्वर म्यादी नहीं हो जाय....... ? भय लगता है ।
पथ्य परहेज से बीमारी ठीक होती है । बीमारी प्रकृति के कार्यरत होकर शरीरको निरोग रखने का माध्यम है । यह प्रकृत के निर्धारित नियम का पालन नहीं करने की सजा भी है, क्रिया है ।
उत्तरदायी व्यक्ति की अनुपस्थिति में विद्यलय संचालन के अतिरिक्त दैनिक अध्यापन के फलस्वरुप अनावश्यक शारीरिक तथा मानसिक श्रम ने ज्वर के नैरंतर्य को बनाये रखने में तेज उर्वरक का कार्य किया । दूध तथा गर्म जल पान ने मल अवरोध विल्कूल नहीं रहने दिया । अन्न के परहेज ने पेट को पूर्णातः खाली कर हल्का कर दिया । कमजोर होने पर भी कमजोर महसूस उसने नहीं किया ।
डेरे में पानी गर्म करने के लिये जब वह स्टोव जलाने लगा तो स्टोव ने ठीक तरह से काम करने में झंझट कर दिया । देर तक कमरे में कमर झुका स्टोव बालने में अक्षम हो लक्ष्मी चौधरी से जल गर्म करवाया । गर्म जल पी मध्यान्ह अवकाश के उपरान्त विद्यालय गया तो सभी शिक्षकों ने अध्यापन नहीं करने का सल्लाह दिया । विना पूर्व जानकारी के शिक्षकों की अनुपस्थिति के कारण खाली जा रहे कक्षा की पढाइ की व्यवस्था अवकाश में विश्राम कर रहे शिक्षकोें से कहकर कर देने का परामर्श दिया । निःशक्तता के कारण दैनिक समय–सारिणी का अध्ययन कर घण्टी घण्टी में विश्रामरत अध्यापककों को कक्षा में अध्यापन कर देने का आग्रह करना उसके लिये पर्वतारोहण से भी दुष्कर लगा । विश्वविद्यालयी उपाधिधारी विवेकशील अध्यापकों को परिस्थिति की गम्भीरता का हृदयंगम कर स्वयं स्फूर्त हो कार्य निष्पादन नहीं करते रहने से उसे बहुत खीझ उत्पन्न होती । उसे शान्ति कोई कीमती औषधि से बढकर प्रतीत हुइ । बातचीत नहीं कर केवल शान्त रह मौन के अथाह सागर में तैरना–डुबना प्रिय लगता । चंचल मन छात्र–छात्राओं की चहल पहल से जीवन्त बने विद्यालय के प्रांगन में निष्क्रिय, निस्पंद हो बैठे रहना उसे अनैतिक प्रतीत होता ।
“सर † कोई दूसरी साइकल होती तो आपको हम आपके घर तक पहू“चा आते ।” धर्मनाथ बाबू ने कहा ।
“काोशिश करता ह“ू......हो जाय तो अच्छी बात होती............।
शुक्रवाार के दिन नियमतः डेढ बजते न बजते विद्यालय सप्ताहान्त विश्राम के लिये बन्द हो जाता है । आवास में आकर लक्ष्मी चौधरी से उसकी साइकल के सम्बन्ध में पूछा तो उससे डा० साहब कोई रोगी को देखाने के लिए गये थे की जानकारी हुई । घर की ओर रुख करने का विचार छोड दिया । विद्यालय के समीप डंडा पर सहोदरा के घर जा स्वास्थ्य लाभ करने का मन बना लिया । घर से दूर होने से रास्ते में अन्य कोई भी गड≥ बड≥ी की आशंका उसे सताती रही ।
उपवास से उत्पन्न कमजोरी के कारण पेशाब करने के लिये कमरा से बाहर जाने में असमर्थ पा जब वह रात में खिड≥की से ही पेशाब कर चौकी तो वापस हुआ पर वापस होना नदार था ।
यह तो असीम, अदृश्य शक्ति ही जान सकता है, वह कुछ भी नहीं समझ सका । कब तक वह शीतल सींमेंटेड फर्श पर अचेत पडा रहा इस बात का लेखा– जोखा वह नही कर सकता । साइकल चौकी पर गिरी पडी थी । जब संज्ञा–शून्यता दूर हुई तो उसे ठंढ मालूम पड≥ी । उसे आश्चर्य का ठिकाना नहीं था । उठकर साइकल स्टैंड पर खडा किया । लंूगी उठाकर कमर में लपेटा क्योंकि लूंगी सााइकल पर ही लटकी थी । कम्बल ओढकर लेट रहा । जाने कब नीदा–देवी की गोद में सो गया ?
“लक्ष्मी † स्टोव जला कर दूध गर्म कर दो......पीकर डंडा पर चले जायेंगे....... यहां अब रहने से कल्याण नहीं .......अपटी खोत में प्राण चले जायेंगे ।”
लक्ष्मी ने दूध गर्म होने को स्टोव पर रखा । बेंच पर बैठा था । वह कटोरा साफ करने बाहर पानी फेंकने गया । पानी फेंक पाया परन्तु वापस कमरा में नही हो सका । उसी के नजदीक बेंच पर चेतनाहीन बन गिर गया । वह चौंका और अविलम्ब ललिता को बुला लिया । उसके साथ उसके मेहमान भी थे । सभी कोई डरे–सहमें हुए उसे घेरे खडे थे । पलकें खुली तो आश्चर्य लगा कि वे सब के सब क्यों उसे घूर रहे हैं ?
“सर अचेत हो गए थे.........लक्ष्मी ने कहा....... बेंच पर ही गिरे थे ।”
उसे कुछ भी पता नहीं चल पाया । कटोरा में गर्म दूध लेकर पीया ।
कपडा पहने तो थाही, लूंगी ओर दवा लेकर चल दिया । लक्ष्मी मील वाले की साइकल लाया । उसे बैठा डंडा पर सहोदरा के घर ले चला ।
निस्तव्ध निर्जन रात में जो उसे प्रत्यक्ष अनुभव हुआ उसकी उसे कल्पना भी नही थी । निःशक्ताने घर की दूरी को उसके जैसा सक्षम प्राणी के लिये इतना बडा बना दिया था कि किसी अन्यका सहारा लेकर भी उस दूरी को तत्काल तय कर पाना सम्भव नही लगा । जगत नियन्ता ने संसार के किसी भी प्राणी को इतने नगण्य अंश की ऊर्जा प्रदान कर अक्षम बना रखा है कि उसकी अद्भूत गतिविधि का उस निर्बल प्राणी को सिर्फ अभास भर मिल सके । इसके सिवाय और कुछ भी नहीं वह जान पाये ।
जीवन–संगिनी के अतिरिक्त बेटा बहू तथा पाोता पोते भी हैं घर पर परिवार में परन्तु वह आज निर्जन एकान्त रात में भरा पूरा परिवार वाला होकर भी निसहाय यहँं पडा है । जीवन संगिनी होती तो वह पल भर को चैन नहीं रहती । अन्तिम बल लगाकर उठा, बिछौने पर सुलाती, बेटे पुतहु को जमा कर सेवा सुश्रुषा करती । घर परिवार के अन्य लोगों को एकत्र कर लेती । भनक पाते ही पड≥ोसी गण भी घेर कर खडा रहते । इस निर्जन, अंधकार भरे रात में भी दौड≥ धूप चलती । पूरा परिवार समाज चिन्ता से आकुलित होकर कुछ भी करने को तत्पर रहते । रामसत्ती तो ऐसी साध्वी है कि उसका वश चले तो वह स्वयं भैषज्य विधान के कुशल देव धनवंतरी जहां भी होते, उठा, कन्धे पर बैठा ले आती ।
हर तरह से असहाय, आशाहीन हो वह वेदना भरे राग में करुण कन्दन कर उठती । ब्रम्हाण्ड के स्रष्टा का अन्तर पसीज उठता । आज भी टोला–पड≥ोस में्र किसी भी शुभ कार्य के अवसर पर होनेवाले गीत–नाद में उसंका पंचम का स्वर बुलन्द होता रहता है । अपने रुदन में वह सातों महासागर में उथल–पुथल मचा देने का सामथ्र्य रखती है । उस बाढ≥ में हिमालय को भी समूल दहला कर सागर के अतल गहराई में डुबाने की शक्ति भरी हंै । जब वह चेतना शून्य हो निश्चेष्ट ठंढे फर्श पर देर तक पडा रहा होगा तो उस समय भी तो उसके तन में हृदय–कम्पन अवश्य ही चल रहा होगा । शरीर के और सभी अंग सुचा रुप में काम करते रहे होगें । प्राचीन युग की सावित्री की तरह यमराज से प्राण की भीख नहीं तो चेतना हरण करने वाली उस अदृश्य शक्ति के पीछे चलकर अनुनय विनय कर, पांव पकड कर –ज्ञानचेतना वापस मांगकर आवश्य ही अपने अटल सुहाग की रक्षा कर लेती परन्तु वह जिस गम्भीर, खतरापूर्ण परिस्थिति से गुजरा तत्काल उसे कोई अता पता नही चल पाया वरना आसमान ही सर पर उठा लेती ।
वह दरबाजा, खिडकी बन्द चार दीवारों के भीतर तडपते अंधेरा के अगम सागर में ज्वर से व्याकुल भांड में तड≥पते तपते बालू के मध्य मक्का के दानों सदृश्य इस–उस करवट छटपटाता रहा । पर साल बड≥ी बेटी सुमित्रा के घर सुबह स्नान कर भोजन की प्रतीक्षा मे बैठा नाती गणोश को कुछ अंग्रेजी में करा रहा था कि अचानक ही बिना किसी पूर्व संकेत के ऐसी मानसिक बेचैनी बन गयी कि सारे घर– द्वार, वृक्ष–टोला ही नाचते पल प्रतिपल बदलते रुप लेते दीख पडे । नजदीक में बैठे गणोश, ममता की स्थिर आकृतियां भी स्पष्ट रुपसे मानस पटल पर नही उभर पाती रही । उसने सर्व प्रिय स्वजनों के मध्य रहकर भी अपनी बेचैनी का अहसास उस वक्त तक नही होने दिया जब तक दामाद सुबह ही गांव के किसी बृद्ध यादव की अन्त्येष्टी से भाग लेकर नहीं आ गए । छोटी नतनी के लोटा भर जल लेकर आ जाने पर भोजन करने आगन जाने समय दोनों ही हाथो से दीवारों का सहारा ले वह पीढी तक पहुंचा जहां दीवारों के ही सहारे उस पीढ≥ी पर पल्थी मार बैठ सका ।
नाचते, अस्थिर निगाहों के बीच ही मौन हो आधा पेट भोजन किया आज भी वह इस बात की चा“ज–परख करता ही है कि यह मकै के ओड≥हा या चलचित्र भवन में खाये नारियल के एक छोटे टुकडे की करिश्मा के कारण ज्वर का नैरंतर्य बना रहा या उपवास, गर्भ जल के पान दूग्धाहार से उत्पन्न कमजोरी के फलस्वरुप संज्ञा शून्यता, के अंक में समा गया । अब तक यह उलझन सुलभ नही पा रहा ।
कुछ समय के अन्तराल पर गर्मजल तथा दूध पी शुक्र की सुबह के दस बजे वह विद्यालय जाने के लिये धोती पहनने लगा तो वह धोती लपेट में नहीं ले सका ? कोठरी के अन्दर खुले किवार के नजदीक ठंढे फर्श पर कब तक लुढका रहा वह नहीं समझ पाया ? जब वह चेतना युक्त बना तो धोती चौकी से लेकर चौखट तक फैली पसरी थी । नंगा तन शीतल पक्का पर देर तक पड≥ा रहने के उपरान्त ही चेतना वापस आयी तो समझ सका कि वह अचेत हुआ था । संयाोग ऐसा था कि कोई डेरे के भीतर आया नहीं । किसी की जर उस चेतनाहीन अवस्था मे नही पडी थी । बड≥ी मुश्किल से धोती को जैसे तैसे कमर में लपेट, कमीज पहन विद्यालय पहुंचा । उसने न रात की न दिन की घटना की चर्चा किसी सहकर्मी से की । एक वचन बेलने तक की इच्छा नहीं हुई । चुपचाप माौन बैठा रहा । अधिकांशतः संकेत से ही काम लेता रहा । घर ककी ओर जाने का विचार छोड बहन के घर जाने का मन बनाया ।
यह तो वह समझ ही रहा था कि लगभग साल भर से उसे सर्दी खांसी नहीं हुई । इस बीच अधिकतम पानी के प्रयोग से मल अवरोध भी नही हुआ था । जिसके कारण सर्दीं बनती । फिर वह संज्ञा शुून्यता का इस तरह शिकार क्याें हो रहा है ? सुबह की संज्ञा हीनता के फलस्वरुप चोट लगने से जो घाव चेहरे पर बन आया था उसके सम्बन्ध में कई सहकर्मियों ने जिज्ञासा की थी जिसका उन्हें मनगढंत जबाब देना पडा था । लक्ष्मी चौधरी कडी मिहनत करके साइकल पर बैठा डंडा पर पहुंचा आया । बीमारी की बात से अनभिज्ञ उस परिस्थिति में पाकर सारे परिवार भर के लोग अचम्भित रह गये । थोडा ज्वर रहने पर भी पथ्य के संग एलोपैथिक औंषधि लेता रहा । दूसरी सुबह शनिवार को हेमन्त को भेज लंूगी और पैंट मगवाया तो लूंगी को फटा पाया । तब समझ में आया कि लूंगी के फट जाने का सब रात में साइकल पर गिरने से है । साइकल स्टैण्ड के प्लेट में लगकर लूंगी फट गयी । सिर में चोट लग जाने से बडा घाव बन आया था । समय समय पर खांसी उठ आती । रात के बारह बजते न बजते चार बजे तक जोर पर खांसी रहती । उसी रात को घर के अन्य किसी को नहीं बता जब पेशाव करने बाहर जाने का उपक्रम किया नहीं कि चौखट के नजदीक कटे वृक्ष सदृश्य धराशायी हो गया । पल्ला के नजदीक धरती पर बिछौना लगा सोया मिस्त्री ठाकुर तुरन्त जाग, उठकर भगिना हेमन्त की मदद से बिछावन पर सुलाया तो होश में आया । उन दोनों ने कोई देर नहीं की । तभी सुबह घर भर के लोग इस बेहोशी की बात सुन सहोदरा सहित सभी चिन्ताकुल हो गये । पथ्य औषधि एक साथ चलते । बहन की पड≥ोसिनी एक ब्राह्मणी फुर्सत के क्षण में कपडा सीलने का काम करती है जिसने फटी लुंगी की मरम्मत कर पुनः पहनने लायक बना दी । विद्यालय जाना बन्द कर दिनभर कार्यरत मिस्त्री ठाकुरों के बीच गफ शफ में समय आसानी से बीतता । उसने उस ब्राह्मणी कनिआ को परिश्रमिक के रुप में कुछ भी नही दिया । सूर्योदय पश्चात शौच पर बैठने के समय जब धोती के नीचे पहने पैन्ट को देखा तो लहु लुहान रक्तमय पाकर समझ में आया कि साइकल स्टैण्ड के नुकीले प्लेट में लगकर पैण्ट का पिछला भाग बेकाम बन गया है । कमर के नीचे परे घाव का रुप ले लिया है ।
अगर यह सब बात रामसत्ती तत्काल जान पाती तो उसका हृदय अवश्य ही वैशाख मास में पोखरा के पानी के सूख जाने पर तेज सूर्य के प्रकाश के परिमाण स्वरुप धरती जैसा हो जाता । व्याकुल हो कुलदेवता धर्मराज कारख की मनौती करती । गाांव के दक्षिण मी युगों से पीपल वृक्ष के नीचे ग्राम देवता डीहवार की आंचर खोल कबूला करती । पोखरा में नहाने के समय हाथ जोर दिनानाथ दिनकर से रोग मुक्त होने के लिये अवश्य ही आराधना करती ।
शिक्षा विभाग के माध्यम से विदेशी सरकार द्वारा संचालित माध्यमिक विज्ञान सम्मेलन में राजविराज चन्द्रशेखर बाबू से जाते समय इसी हेतु अंग्रेजी में लिखा प्रश्न दिया था कि फुर्सत के क्षण उन विज्ञान वेत्ता विदेशी–देशी शिक्षकों के बीच प्रश्न को अवश्य रखें जिससे कि उस उलझन का कोई सही हल निकल सके । उनके वापस होने पर प्रश्न सम्बन्धी बात रखाने पर उनका यह जवाब रहा कि सभी लोग इस प्रश्न के विषय में एकमत से किसी निष्कर्ष पर नही पहुंच सके । खान–पीन की पूरी व्यवस्था में सप्ताह तक वह वहीं सहोदरा के घर स्वाास्थ्य लाभ करता रहा । सप्ताहान्त अवकाश के दिन शनिवार को बचाने के ख्याल से शुक्रवार के दिन विद्यालय पहुंचा । उपस्थिति को दर्ज किया, सरकारी एवं गैर सरकारी सभी कर्मचारियों के लिए शनिवार सप्ताहान्त के अवकाश का दिन होकर भी बड≥ी महत्वपूर्ण होता है ।
मानव सुलभ कमजोरी से वह भी भरा है । जगत के प्राणी प्राणी प्रकृति प्रदत्त ऊर्जा का सदुपयोग–दुरुपयोग जाने अजनाने करते ही हैं । जो कुछ ऊर्जा नगण्य अंश हो कर भी उसे उपलव्ध है । ऊर्जा निष्क्रिय नहीं रहती । जीवन संगीनि से प्राप्त शारीरिक सुख आनन्द के अतिरिक्त अन्य अनेकौं तरह से ऊर्जा का खर्च कर औसत तरीका से ही जीता रहा है । सकभर भूल से बचने की कोशिश करता हुआ अब तक का सफर तय किया है । अपनी नासमझी से वह अपना सामने का दांत गंवाया है ।उस दाांत के गवां देने के कारण शायद अनेक किस्म की कठिनाइयोंका सामना करना पड रहा है । खाते रहते समय अनजाने जीभ के चौह के तले आ जाना या बोलते–अध्यापन के समय जीभ का दब जाना आदि से कभी कभार अपार पीड≥ा का अनुभव हाल के वर्षों में होने लगा है । यह वह नही जान पा रहा कि यह सब कोई पूर्व संकेत है अचानक विद्युत प्रवाह के अवरुद्ध होने के कारण अन्धकार के धमक आने जैसे संज्ञा शून्यता की स्थिति का पड≥ना एवं शनैःशनैः फिर संज्ञा की वापसी जैसी अनुत्तरीय घटना से वह हमेशा त्रसित रहा है । सजग, सचेत रहकर भी तन के भीतर हो रहे क्रमिक परिवर्तन के फलस्वरुप तीन बार संज्ञाहीनता के चपेट में पड जाने की उलझन को वह सुलझा नहीं पा रहा है । नेपाल के प्रधानमन्त्री श्री गिरिजा प्रसाद कोइराला के कार्यरत अवस्था में रहने पर भी दो बार चेतना हीनता की अवस्था में पड≥ना तो जगतविदित् सत्य है । यद्यपि देश विदेश के उच्च कोटि के आयुर्वेद विज्ञाान वेत्ता चिकित्सकों ने उन्हें पूर्ण परीक्षण के बाद निरोग पाया है । अदृश्य शक्ति के कार्य करने की प्रणाली को समझ पाने में वह अबतक अक्षम ही रहा है । पूर्णस्वास्थ्य लाभ कर अब वह कार्य क्षम होकर अध्यापन कार्य में लग गया है ।
“तोर सीड≥ खिरऊ पताल”
“ हार उतार दो न ..............” गैबरबा भैया ...........“नौलखा” ............विंती करती हुयीइ बोली कृषक राजा सुपालकी सुकुमारी राज कुमारी .............“हार लेकर लटका दिया हैं ............ उस सिम्मर पर”............।”
गैबार पोखरे के पाकरि के नीचे बैठा था । पाऊज करतीं गायें पेड≥ की छा“ह में खड≥ी बैठी थीं । मु“ह से निकला गांऊज धरती पर फैल कर सूख गया था । वहा“ की धरती भींगी थी । गोबर और गोंत सनी धरती सोना सी दमक रही थी । उससे निकला गंध हवा में दूर दूर तक जाता था । निरंतर गाय के बैठार से धरती कोमल मैदा बन गयी थी । पा“च का साधारण स्पर्श निखर आता था । चुटकी में लेकर मलने में बड≥ा ही आनन्द आता था । छोटे बछड≥े के गोतने से उस जगह पर बना बाटी सा अकार अभी ताजा ही था । दुपहर का समय । सूरज की असहनीय गरमी से बचने के लिये हवा भी पेड≥ की छाया में विश्राम कर रही थी । हवा के कारण कभी कभी पत्तों में कंपकंपी आ जाती । पोखरा के निर्जन पनझाव में अदहन से जल में खड≥ा जाठ ही केवल उस स्ना का आनन्द लेने में लीन था ।
अमृत सरीखा दुध–घी पोसित पुष्ट शरीर में गैबार गौ–खुर मर्दित धूल को बड≥े आनन्द से अपनी मांसल बाहों में मल रहा था । अपनी बा“ह को मलते हुए पीछे की ओर देखे बिना अहकान ने लगा । निर्जन में नारी स्वर । अभी उसे पम्ह ही आ रहा था । उमरती जवानी ने अपने आगमन की सूचना चेहरे पर काली रेखा खीचकर दिया था । कंधे पर घी–गंध में सना फटा–चपड≥ा सा कड≥ा गमछा और हाथ में हाथभर का लाल सोंटा । फिर पलट कर पीछे की ओर देखा ।
“कहा“ है हार ...............?” बड≥ी धीरता से पूछा उसने । सोंटा पर हाथ फेरने लगा । फिर ऊपर पेंड≥ पर खोजने लगा । गाछ पर हार न देख राजकुमारी की ओर देखा ।
पुष्ट गोरी देह । अरहूल सा चेहरा । किसी ने ढं≥के पौधे को उघार दिया हो ।
“वहा“...........डीह पर ...........हाथ उत्तर की ओर दीखा कर बोली .......वह जो बीच पांतर में सुंरुग सिम्मर है ..........उसी की फुनगी पर कौवा बैठा है ............ उसने बैठते देखा है उसे ............।” हार के खो जाने के भय से उसके सुकुमार मु“ह पर पसीना भीर के ओस की तरह चमक रहा था ।
“हमें डर लगता है “ ..............चरवाहे ने बहाना किया .............बाफ रे बाप π उतरे बड≥े सुरुंग गाछ पर कौन चढ≥ेगा ........... बिना डाल–पात का पेंड≥............. गिर कर मर जायेंंगे ...... कौन काम देगा ..............इन बहिनों और भाइयों की देखभाल कौन करेगा ..............?≥”
उसने एक गौड≥ को पकड≥ कर पुचकारने लगा । चुम भी लिया । गौड≥ उसकी देह चाटने लगी । वह उसे सहलाता रहा ।
“मैंंंं तेरे पैर पड≥ती हू“ ............नजदीक आकर बोली राजकुमारी ............ तेरी हैरानी मैं दे दू“गी .................. ।”
चेहरे पर उमड≥ती परेशानी से उसे साहस का रुंंचार हो आया । वह एकटक निहारता रहा ।
“जिसका आगे–पीछे खुला ............. चरवाहे ने कहा .............. उसका क्या विश्वास ...........?”
“ठगती नहीं हु“ ............... ।”
राजकुमारी अपने कोमल हाथ से पकड≥ उसे उठाने लगी । उसकी देह झनझना गई ।
“क्या मिलेगा हैरानी .............?”मुस्कुराते हुए उसने कहा ।
अलसाये नैन ने जबाब दिया । उका मन खिल उठा । हाथ में सोंटाले और कंधे पर गमछा रख चल दिया । न्यौन का पाला हाथ भर का टीका उसके पोन–पीठ पर लटक रहा था । पीछे–पीछे वह चली ।
अभी अभी गौना करा कर लौटती लाल–पीली जोड≥ी की तरह वे दीख रहे थे । गर्भ तवे सी धरती पर वे चल रहे थे । झिझक निपत्ता । मु“ह मलिन नहींं । दोनों खढ≥हौर के बीच गुजरते मारग से जा रहे थे । कटे खड≥हौर की खुट्टी नये कोमल पत्तो के पंख पैmलाये दोनों ओर ओलरी हुयी
थी । जबतब पा“वों को छेक लेती । अनगिनत चांस के चिन्ह बन गये पैर में । बबूल और खैर के कटीले गाछ खढ≥ के पुराने आवरण में लिपटे यहा“–वहा“ खडे≥ थे । अनजान चेहरे को देख बडे≥–बडे≥ लाल गिरगीट निरापद जगह की और सरपट भागेजा रहे थे । गाछ के नजदीक पहु“चा तो देखा हार लटक रहा है ।
सोंटा रखा हियाने लगा ।
”यह तो एकदम सुरुंग है ............ विना ठाढ≥–पात का ............... बड≥ा डर लता है .........।”
हिचकिचाहट उसने प्रकट की ।
”तुम जो कहो............... नैन सागर के भीतर झ“कती ≈ष्टि से उसने जबाब दिया ...........।”
उसे हुआ नैन–सागर मेंंं समा लु“ । वह वेवस थी । मन ही मन सुभरन किया घर के देव दिव पितर को । गैया –महारानी से बल भा“गा । दोनों हाथ जोड≥ प्रणाम बर सुरुरियामार चढ≥ ने लगा ।
वह बहुत उपर चढ≥ चकाथा । वह विना पल खसये हेरती रही । कलेजा धक धक करता । फिर अपने आप मुस्का पड≥ी ।
“सिमरक गाछ सुरुरिया .............. पुरुष जाति निरमोहिया ...............................।”
राजकुमारी का संगीत हवा की तरंग का सहारा पाकर दिग्गंत म फैल गया । वह मुस्का रही थी ।
“क्या गाया ........?”.......चरवाहे ने कहा नीचे देखकर ।”............ सिर चकराता है ........... हम से नहीं होगा ...........उतरता हू“...............।”गैबार उसके मन के भाव को ताड≥ गया ।
“मेरी कसम ...............”हाथ जोड≥ कर विंती करती हुयी उसने कहा .............जो कहोगे ............ वही करु“गी .............।”...........गीत की एक कंड≥ी याद आ गयी । ”वही गा लिया । मु“ह पर लाली दौड≥ गयी ।
“हार गिरा दो न .............. । उतरने में दिêत होती है ..............।”
“नहीं † मैं अपने लिये हुए आता हू“ .............चरवाहे ने कहा .............।”
“हैरानी जो उतरने में होती है ............... ।”
“तुम बड≥ी चालाक हो .............लेकर भाग जाओगी .............विना मजूरी दिये........... ।”
“तुम्हारा सप्पत ............नहीं भागती ................ ।”
“मैंं गिरकर मर जांऊ ................तुझे क्या ............अच्छा † आ“चर पैmलाओ ........... ।”
“तुझे आ“ख में समा लेना चाहती हू“ ............।“ मुस्कुरायी ।
कुमारी की दीठ ऊपर की ओर थी । उसकी नीचे ओर । हाथ से पकड≥ आ“चर पैmलाये थी । हार नीचे आ रहा था । आंचर के छुते ही हाथ से आ“चर छुट गया । तभी पवन मचल उठा । आ“चर हवा में ऊपर लहराता रहा ।
“.................... ।”चरवाहा निहाल हो उठा ।
“चाइर औंंरी लेल प्राण गंवैया .............कंंड≥ी को पवन का पंख लगते ही आसमान मेंं पैmल गयी । वह नीचे उत्तरा । सोंटा और गमछा हाथ में लिया । खोंच ने देह को क्षत–विक्षतकर दिया । अनगिनत लाल रेखायें पड≥ गयीं थीं । लहू टपकने जैसा था ।
“...........तब.......... ।” प्रश्नात्मक नजर से देखा उसने ।
अपने काम का इनाम चाहता था ।
“तुम भी कैसे हो ............ गंवार ..............राजकुमारी ने कहा .......... दिन में कहीं प्रेम करते हैंं ............ ?”
“तो ............तुम रात में आयगी ............?” घने जंगलकी ओर हाथ से संकेतते हुए कहा उसने आश्चर्य से ............ वहीं हमारा बथान है .......... किनारे में ही .......... यही रास्ता भी है.......... ।”
“ तुम विश्वासकरो ............ मैं अवश्य आउ“mगी रात ............. ।”
बातचीच करते पोखरे तक वे आचुके थे । “अच्छा ............आना .........अवश्य आना ...........।”कहा चरवाहे ने ।
उसने हार उसके हाथ में रखा । हाथ में हाथ स्पर्श हुआ । नस के भीतर कुछ दौडता सा उसे लगा । विचित्र आनन्द की अनुभूति उसे हुयी । वह मकुनी हाथी की तरह सम्भल सझाल कर डेग देती जा रही थी । कहीं कुछ छिलक कर बह नहीं जाया सुन्दर माटी से निरमाया है भगवानने ।
सांझ के पहले अन्हार में पूर्णकाल के चा“द का हल्दिया प्रकाश एक बद्धू शखुआ–महिशोन की व्योम चुम्बी फुनगी पर धीरे धीरे निखर कर बिखर रहा था । छिटकती दूधिया चा“दानी घिया चा“दनी को दिन समझ भंmड के–भंड पंछी अगोड≥–पछोड≥ा में पनपे पेड≥ के झुरमुट में कलरव का संगीत अलाप रहा था । सूखे कल्ले असंख्या गोबर–चोत गोरी परती–धरती के चहरे पर बिखर तिलवा सरीखा बड≥ा भला दीख रहा था । गोबर–गोंत के गंध से भरा पवन सन–सन कर बथान के मचान पर सोये गैबार के नस–नस में उफान ला रहा था । स्वच्छन्द विचारने वाली गायें के निरोग–दूध पान कर बलिष्ट पुष्ट बछड≥े यत्र–सत्र उठे–बैठे पाउज करते थे ।
“दूर .........गे सिलेविया ............ दूर गोली ............हट .............जा.............।
“करवट लेता हुआ बोला चरवाहा गाढ≥ी नीन्द में सोया बड≥बड≥ा रहा था । उसे लगा कोई गाय हुदकाती है थुथुन से । राजकुमारी उसे जगा रही थी दिन भर का थका गैबार । सुबह से बहा हा का बैल हो । बोझा उतारा हुआ लदनी का घोड≥ा हो । वह सोया क्या शव हो गया ?
लाख उसने जगायी, पर जगा नहीं । निश्चिंत हो सोता रहा ।
थाली में पा“चो पकवान । माली में तेल–फुलेल । इत्र दान में इत्र । पनवटा में पान सुपारी–इलांयची–लंग । समीरने वातावरण को गंध से तर कर दिया ।
माली से तेल ले अपने हाथों लगी सेवा करने । थकान मिटेगी । वह जगेगा । कोमल कर के स्पर्श से और भी बेसुध होता गया । राजकुमारी सेवा करती रही । सोम–सुधा–वर्षण करताचा“द बीच आसमान में आ गया था । पर कुम्म कर्णी नीन्द से गौबर नहीं जागा । पान खाकर चारों–कात थूक दिया । पीक से गमछा के ख“ूट को रंग दिया ।
देर तक सोता रहा । सूरज का पीला प्रकाश चरों ओर पैmल गया था । पंछी आहार की खोज में चल पड≥ा था । पुरबैया भी मन्द गति से आ रहा था । गाय की हु“कार से नीन्द टुटी तो बड≥ी प्रसन्नता अनुभव की । देह पर चिकनाहट थी । गात मुलायम, हरियर । राजकुमारी का स्मरण हो आया । ठग लिया उसने । तभी इत्र का गंध नाक में समा गया । पान का पीक चारों–कात देखा । वह समझ गया । लगा पछताने ।
“अम्बा हे † ...........
तोहर लम्मा पात........
चनन छिटैक गेल चारु कात ............
दुर......दुर.......अम्बा......नीन्द पुरबैया
बुझली हम हुदकावे गैया ..............।”
माथे पर दिये बैठा रहा । दैवने कहा“ से नीन्द ला दिया । कैसे पलक बंद हो गये थे । किस जोगीनिआ ने जादू कर दिया । मंत्र से मार दिया । अछत्ताता–पछताता । गीत गाता । जबभी उदास रहता । गाय के पीछे जाता । तन कहीं । वस्त्र का ठिकाना नहीं ।
आती हुई नजर पड≥ी । आ“खो ने पहचान लिया । दौड≥ा उस ओर । फुही बन गया । जाने कहा“ से बल आया । पानी का प्रवाह सागर की ओर दौड≥ता हो । शून्य को भरने समीर सिहरा हो । लपका आ“ख मंूद कर ।
राजकुमारी भी भाग चली । आगे राजकुमारी, पीछे गैबार । जी–जान लेकर चली । वह भी पागल की भा“ति दौड≥ा । भागती जाती । वह खदेड≥ता जाता । कितनी आड≥–मेंड≥ पार की । झाड≥ी को ला“घा । गरता खाकौर में था । नदीं–नाला–पैन को टपा । सुकुमार पैर लहुलुहान । क्षत–विक्षत । तन के वस्त्र चीर्री–चोंथ । खुट्टी चुभ गई । पैर पकड≥ लगी इसइसाने । तभी चरवाहा वहा“ आ पहुचा । देखा पा“व लहुलुहान । राज कुमारी राड≥ी को कोषती ।
“राड≥ी .............तोर सीड≥ जारी ...................
राजकुमारी का मधुर स्वर आसमान में पैmलता गया । ..............
तोर सीड≥ गाड≥ी,
तोर सीड≥ जारी, तोर सीड≥ पड≥ौ अ“गोर
जेने कहियो तरवा देखे
मरोड≥े यौवन मोर ............... ।”
चरवाहा निहाल था । भर नैन निहारता रहा । नैनौं में समा लेना चाहता था । मु“ह से बात भी नहीं निकलती थी । लगा वह राड≥ी को आशीष देने । हवा ने उसकी स्वर–लहरी को दूर–पांंतर में पैmला दिया । निर्जन प्रांत मधुर स्वर से सजीव हा उठा ।
“तोर सीड≥ खिरऊ पताल राड≥ी ...........
युग युग बढ≥ौ अमार ......................
बौरल गौरी के घुमौले ..................
देबौ दूघक ढ≥ार ....................... ।”
तभी से राड≥ी की जड≥ अजर–अमर है । चरवाहे गाय दूहकर धमियानी थान या बथान में अभी भी दूध का धार देते हैं । बहुतों पशुपालक जो श्रद्ववान हैं घर पर भी दूध का धार देते हैंं । अपने चरवाहे के गीत सुन गायों ने हुंकार भरी ।
आज ‘धमियानी’ थान वह नहीं रहा जो महेंन्द्र राजमार्ग के निमार्ण के पूर्व हुआ करता था जहा“ आज गोल बजार अवस्थित है, जो स्थान चौबीस धंटो में कभी भी पल नहीं म“ूदता, जो नई–पुरानी बसों की दूधिया प्रकाश से रात भर जगमगाता रहता है । सीमा पार भारत–बिहार के सुदूर गा“वों के लोग आज भी दूर–दूर से दूध–झा“प लेकर या कभी बलि प्रदान करने आते हैं । लगभग तीस बर्ष पहले जब्द कर घनघोर जंगल हुआ करना था ।