अक्षम
कहानी संग्रह के प्रकाशन की व्यवश्था करवाने के क्रम में दीपक बाबू से मिलने उनकी गद्दी पर जब वह पहु“चा तो वहा“ वे अपने सहायकों की परिधि में पडे≥, खानेबाले चूना–खैनी के बंद पैकेट के निर्माण संबंधी वार्तालाप में संलग्न थे । वह उनके दृष्टि पथ में पड≥ते ही उन्होनें यथास्थान बैठे दोनों हाथों को जोड≥ प्रणाम कर उसे भी अपने आसन पर बैंठनेका संकेत किया ।
“सर † मकैका ओडहा (भुट्टा) खाइये ........।”उन्होने अनुरोध किया ।
“आप ही सब उसका आनंद ले ........।”उसने कहा अनिच्छा प्रकट करते हुए ।। उसके अन्तर–मन ने ओड≥हा नखानेका संकेत किया । क्योंकि आज ही उसे सर्दी–जुकाम हो जानेका भारी अहसास सुबह से हो रहा था । “कम से कम एक भी तो ग्रहन कीजिये .......। ” कुछ नहीं होगा .........। “ताजा हैं । ” उन्होने जोर डाला ।
उसे स्वीकार करना पड≥ा ।
“विदयालय अब बंद होनेको आया .......... पता नही मैं मिल“ू या न मिलू“ .......और आप कभी भी पटना चलें जा सकते हैं...........।”
ओड≥हा का आनंद लेते हुए उसने कहा ।
“हम अभी पटना नहीं जा रहे.........छठ (उत्तर भारत,विशेषकर बिहार और नेपाल तराई का प्रमुख प्रसिद्ध पर्व जो कार्तिक शुक्ल षष्ठी तिथिको मनाया जाता है ।) के पहले तो नहीं जायेगें ...........चलते बक्त हम आपको खबर कर रचनाएं मांग लेगें............अपने पास से खोजानेका भय बना रहता है..........।”अपनें कर्मियों से बातें करते हुए उन्होने बताया ।
“धन्यवाद ................। ” कह कर अपने डेरे की ओर वापस आया तो चौधरी डाक्टर साहबको अपनी प्रतीक्षा करते हुए पाया ।
“सर † आज और अभी चलिये सिनेमा देखने .........बड≥ा मन कर रहा है......वैसे तो एक बार देखाकर आ चुका हाू“ ............फिर भी मन संतुष्ट नहीं हो रहा ..........किधर चले गये थे ?........आप ही की प्रतीक्षा कर रहे थे .........।” डा.साहब ने इच्छा प्रकट की ।
“अब तो देर हो चुकी जैसा लगता हैं ......अंधेरा धिर चुका हैं ..........लौटकर खाना बनाते हुए और भी अबेर हो जायगा........।” वह बोला ।
“नहीं † चलना ही पडेगा ........नहीं मालुम..........क्यों नहीं मन मानता ?........ खाना बनाने में समय ही कितना लगता हैं ? ...........मुश्किल से पैंतालीस मिनट से लेकर एक घंटा तक ..........।”
उनके उत्साह में किसी और किसीमका तर्क देकर खलल देना उसे अच्छा नहीं लगा । अपनी साइकल लेकर उनके साथ हो लिया । रात्रि–सेवा बसों कें पूरब–पच्छिम आवत–जाबत के कारण उनके वायु–वेग के अनुकूल प्रकाश के सैलाब में पल–प्रतिपल सूर्योदय एवं अस्त का आभास दिलानेवाले सालों पूर्व भारत–सरकार के सहयोग से निर्मित राज–पथ पर पहँ“ुचते ही एक पारखी शिक्षक के दृष्टि–पथ में पड≥ते ही कैफियत देकर दूरी को मापते वे दोनों गोलबाजार के चलचित्र भवन में पहुँ“चे तो द्धितीय “शो” प्रारम्भ होने ही बाला था ।
अहाता में फैंले अंधकार के कारण असुरक्षित स्थितिको देखकर साइकल की सुरक्षा की चिंता लगी थी ।
“यहीं झोपड≥ी में साइकल लगा दीजिए ..........ताला लगाइये........ ।” डा.साहब का निर्देशन हुआ ।
वह स्थान कांटेदार–तारों से घिरे अहाता के अंदर था । अतः आश्वस्त हो रहा ।
“ठीक है.........लगाता हू“ँ ..............।” ताला बंद करते हुए उसने कहा । उनके पीछे हो चला ।
उसे उस समय सर्दी अंतर में कोई खास महसूस नही हुयी । मध्यांतर में पेशाब करने बाहर हुआ तो साइकल को देख लेना आवश्यक लगा ।
“चाय तो पीजिये.......... । ” वापसी के समय उसने डाक्टर साहब से पूछा । बरसात के कारण हवा में ठंड थी ।
“अभी चाय मिलेगी ? .........? ” शंका जाहिर करते हुए डा.साहव ने कहा ।
“चाय तो बनानी पडे≥गी .......दूकान वाले ने कहा .......थोड≥ा समय चाहिए । ”
“समय तो नहीं हैं । ........ उसने कहा....... चलिये । ”
दोनों ही भीतर हो गए । शोर गुल चल रहा था । खोम्चेवालोंका साम्राज्य बना था चलचित्र भवन का अन्तःपुर ।
“ताजा नारियल है........ । ” पीछे से स्वर आया ।
“नारियल खायेगें....... ?” डा.साहब की दृष्टि उस छोकडे≥ के नारियल पर जमी थी ।
“खाइये ...... । ”उसने हामी भरी ।
“अभी यह खाने में हानि तो नहीं होगी ...... ?”
“यह ताजा फल हैं ......... कच्चा नारियल.......स्वास्थ्यप्रद ही होना चाहिए........। ”
“क्या भाव हैं.......? ” टुकडा बड≥ा दीख रहा था ।
“प्रति टुकड≥ा दो रुपये........ ।
चाहिए दो टुकडे≥........... । ”
बिजली का प्रकाश गुम हुआ नहीं कि टार्च के प्रकाश में भवन का पर्दा झिलमिला उठा । अगल–बगल नव–युवक–नवयुवतियों के जोडे आपस में हँस बोल रहे थे । उसे अपनी जीवन–संगिनीका स्मरण हो आया । विश्राम काल में बनारस के बाबा विश्वनाथ मंदिर के प्रांगन में जब पंजाबी एक पौढा की उसने दर्शनार्थियों की भीड में सुरक्षा प्रदान की थी तो बडी आत्मीयता से उसे “बेटी” शब्द से सम्बोधन करती जो कुछ थोड≥े कृतज्ञतापूर्ण वचन के प्रयोग उसने की उस से उसे अपार प्रसन्नता हुई तथा उसने गौरब अनुभव किया । सुबह होने पर चलते वक्त उन्ही लोगों ने उनसे अपने समूह में सम्मिलित होकर नगर–दर्शनका आग्रह किया था । वह भी केवल दो की ही संख्या में था । उस प्रौढ≥ाने उससे भी बाल–बच्चे ,पेशा, खेती ,गृहस्थी आदि के विषय में पूछा था जिसे जानकर वह बड≥ा ही आनन्दित हुई थी । उसी महिला ने देह दवा देने के प्रेमपूर्ण पति पत्नि के समान आपसी व्यवहार के सम्बन्ध में हाथ के संकेत से जब पूछा तो उसे भी उसी क्षण घर से दूर परदेश में उस स्नेहपुर्ण मधुर व्यबहारका महत्व मालूम हुआ जो आज पर्यन्त भी वह अपनी घरवाली प्राणप्रिय रामसती के साथ निभा रहा हैं । उसी क्षण से उसने पति के श्रेष्ठता की रुढिवादी विचार का परित्याग कर समकक्षता की भावना का स्वीकारता अपने नैतिक दायित्वका पालन करता आ रहा हैं । उस दोनों की प्रसन्नता आर्थिक संकट्काल में बदस्तूर कायम है ।
गोलबाजार से वापस हो आवास में आने पर देर रात में खाना बनाने से मन ने आना कानी की तो चूरा–घी–चिनी खाकर सो गया । ताजा जल पीया ।
सुबह में सर्दी बढ गयी थी । सर्दी अपने आप में कोंई बीमारी तो नहीं । वह प्रकृतिकी शरिरको रोग मुक्त करने की एक प्रकिया हैं जिस क्रम में रोगीको रोग–मुक्त करने की प्रकृया में स्वयं सहायता करनी चाहिये न कि अंट–संट खाकर बाधा । कुपथ्य नहीं करने पर सर्दी स्वयं ही ढ≥ाई से तीन दिनों में समाप्त हो तन रोग–मुक्त हो जाता हैं । उसने खाना छोड उपवासका सहारा लिया । पर्याप्त गर्म जल पी, दूध का आहर कर रोग–मुक्त होने की चेष्टा की ।
“सर † लगता हैं ......... ? सर्दी हो आयी हैं ...... । विद्यलय पहुँचने पर शेखर बाबू ने पुछा । गमछा से जब तब नाक से आते पानी को पोंछ कर साफ करना पडता था । आ“खे लोल, उससे ताब निकलता महसुस होता था । सिर भी भारी लगता । नाक बंद लगती अनुभव होता । प्र.अ.की अनुपस्थिति में काम का अतिरिक्त भार और भी बढ आया था अनावश्यक तौर पर । सूर्योदय पश्चात् चपरासी से दूध की व्यबश्था कर देने के लिये कहने पर उसने असमर्थता प्रकट की कि इस टोल में दूध नहीं लगता है , मिलना मुश्किल है ।
सर † दूध की व्यवस्था हुई कि नहीं. .........? कक्षा से वापस आकर शेखर बाबू ने जब पूछा तो उसने नकारात्मक उत्तर दिया ।
“नही हुआ ........ दूध का अब समय भी नहीं रहा । ”
ठहरिये.........हमारे गांव की एक पड≥ोसिन यहा“ रहती है .......उसकी गाय दूध देती है .....गाय का चलेगा न.....? प्रश्नात्मक दृष्टि उसने डाली ।
यह तो और भी अच्छा है....रोगी के लिये अमृत ...........।
विद्यालय के समीप ही वह घर है ठाकुर का जिसके भीतर जाकर उन्होने एक लोटा दूध का इन्तजाम किया ।
एक घंटे बाद दूध होगा..... दूध दूहा नही गया है अभी.........।
तीन दिनों से वह उपवास करता रहा । दूधाहार और पर्यााप्त गर्मजल पीकर ज्वर सहित सर्दीका उपचार करता रहा । परन्तु ज्वर शुद्ध नहीं हुआ । सर्दी और उससे बना ज्वर ।
सर † ज्वर हो आया है....... अन्न खााना नहीं छोडि≥ये........ कोई औषधि भी लीजिये...... आज कल का ज्वर भोजन आौर औषधि खाते रहने पर भी ठीक होता है ।....... अन्यथा कमजोर होते चले जायेंगे....... ।
कहते तो ठीक ही हैं आप....... खाने से ज्वर म्यादी नहीं हो जाय....... ? भय लगता है ।
पथ्य परहेज से बीमारी ठीक होती है । बीमारी प्रकृति के कार्यरत होकर शरीरको निरोग रखने का माध्यम है । यह प्रकृत के निर्धारित नियम का पालन नहीं करने की सजा भी है, क्रिया है ।
उत्तरदायी व्यक्ति की अनुपस्थिति में विद्यलय संचालन के अतिरिक्त दैनिक अध्यापन के फलस्वरुप अनावश्यक शारीरिक तथा मानसिक श्रम ने ज्वर के नैरंतर्य को बनाये रखने में तेज उर्वरक का कार्य किया । दूध तथा गर्म जल पान ने मल अवरोध विल्कूल नहीं रहने दिया । अन्न के परहेज ने पेट को पूर्णातः खाली कर हल्का कर दिया । कमजोर होने पर भी कमजोर महसूस उसने नहीं किया ।
डेरे में पानी गर्म करने के लिये जब वह स्टोव जलाने लगा तो स्टोव ने ठीक तरह से काम करने में झंझट कर दिया । देर तक कमरे में कमर झुका स्टोव बालने में अक्षम हो लक्ष्मी चौधरी से जल गर्म करवाया । गर्म जल पी मध्यान्ह अवकाश के उपरान्त विद्यालय गया तो सभी शिक्षकों ने अध्यापन नहीं करने का सल्लाह दिया । विना पूर्व जानकारी के शिक्षकों की अनुपस्थिति के कारण खाली जा रहे कक्षा की पढाइ की व्यवस्था अवकाश में विश्राम कर रहे शिक्षकोें से कहकर कर देने का परामर्श दिया । निःशक्तता के कारण दैनिक समय–सारिणी का अध्ययन कर घण्टी घण्टी में विश्रामरत अध्यापककों को कक्षा में अध्यापन कर देने का आग्रह करना उसके लिये पर्वतारोहण से भी दुष्कर लगा । विश्वविद्यालयी उपाधिधारी विवेकशील अध्यापकों को परिस्थिति की गम्भीरता का हृदयंगम कर स्वयं स्फूर्त हो कार्य निष्पादन नहीं करते रहने से उसे बहुत खीझ उत्पन्न होती । उसे शान्ति कोई कीमती औषधि से बढकर प्रतीत हुइ । बातचीत नहीं कर केवल शान्त रह मौन के अथाह सागर में तैरना–डुबना प्रिय लगता । चंचल मन छात्र–छात्राओं की चहल पहल से जीवन्त बने विद्यालय के प्रांगन में निष्क्रिय, निस्पंद हो बैठे रहना उसे अनैतिक प्रतीत होता ।
“सर † कोई दूसरी साइकल होती तो आपको हम आपके घर तक पहू“चा आते ।” धर्मनाथ बाबू ने कहा ।
“काोशिश करता ह“ू......हो जाय तो अच्छी बात होती............।
शुक्रवाार के दिन नियमतः डेढ बजते न बजते विद्यालय सप्ताहान्त विश्राम के लिये बन्द हो जाता है । आवास में आकर लक्ष्मी चौधरी से उसकी साइकल के सम्बन्ध में पूछा तो उससे डा० साहब कोई रोगी को देखाने के लिए गये थे की जानकारी हुई । घर की ओर रुख करने का विचार छोड दिया । विद्यालय के समीप डंडा पर सहोदरा के घर जा स्वास्थ्य लाभ करने का मन बना लिया । घर से दूर होने से रास्ते में अन्य कोई भी गड≥ बड≥ी की आशंका उसे सताती रही ।
उपवास से उत्पन्न कमजोरी के कारण पेशाब करने के लिये कमरा से बाहर जाने में असमर्थ पा जब वह रात में खिड≥की से ही पेशाब कर चौकी तो वापस हुआ पर वापस होना नदार था ।
यह तो असीम, अदृश्य शक्ति ही जान सकता है, वह कुछ भी नहीं समझ सका । कब तक वह शीतल सींमेंटेड फर्श पर अचेत पडा रहा इस बात का लेखा– जोखा वह नही कर सकता । साइकल चौकी पर गिरी पडी थी । जब संज्ञा–शून्यता दूर हुई तो उसे ठंढ मालूम पड≥ी । उसे आश्चर्य का ठिकाना नहीं था । उठकर साइकल स्टैंड पर खडा किया । लंूगी उठाकर कमर में लपेटा क्योंकि लूंगी सााइकल पर ही लटकी थी । कम्बल ओढकर लेट रहा । जाने कब नीदा–देवी की गोद में सो गया ?
“लक्ष्मी † स्टोव जला कर दूध गर्म कर दो......पीकर डंडा पर चले जायेंगे....... यहां अब रहने से कल्याण नहीं .......अपटी खोत में प्राण चले जायेंगे ।”
लक्ष्मी ने दूध गर्म होने को स्टोव पर रखा । बेंच पर बैठा था । वह कटोरा साफ करने बाहर पानी फेंकने गया । पानी फेंक पाया परन्तु वापस कमरा में नही हो सका । उसी के नजदीक बेंच पर चेतनाहीन बन गिर गया । वह चौंका और अविलम्ब ललिता को बुला लिया । उसके साथ उसके मेहमान भी थे । सभी कोई डरे–सहमें हुए उसे घेरे खडे थे । पलकें खुली तो आश्चर्य लगा कि वे सब के सब क्यों उसे घूर रहे हैं ?
“सर अचेत हो गए थे.........लक्ष्मी ने कहा....... बेंच पर ही गिरे थे ।”
उसे कुछ भी पता नहीं चल पाया । कटोरा में गर्म दूध लेकर पीया ।
कपडा पहने तो थाही, लूंगी ओर दवा लेकर चल दिया । लक्ष्मी मील वाले की साइकल लाया । उसे बैठा डंडा पर सहोदरा के घर ले चला ।
निस्तव्ध निर्जन रात में जो उसे प्रत्यक्ष अनुभव हुआ उसकी उसे कल्पना भी नही थी । निःशक्ताने घर की दूरी को उसके जैसा सक्षम प्राणी के लिये इतना बडा बना दिया था कि किसी अन्यका सहारा लेकर भी उस दूरी को तत्काल तय कर पाना सम्भव नही लगा । जगत नियन्ता ने संसार के किसी भी प्राणी को इतने नगण्य अंश की ऊर्जा प्रदान कर अक्षम बना रखा है कि उसकी अद्भूत गतिविधि का उस निर्बल प्राणी को सिर्फ अभास भर मिल सके । इसके सिवाय और कुछ भी नहीं वह जान पाये ।
जीवन–संगिनी के अतिरिक्त बेटा बहू तथा पाोता पोते भी हैं घर पर परिवार में परन्तु वह आज निर्जन एकान्त रात में भरा पूरा परिवार वाला होकर भी निसहाय यहँं पडा है । जीवन संगिनी होती तो वह पल भर को चैन नहीं रहती । अन्तिम बल लगाकर उठा, बिछौने पर सुलाती, बेटे पुतहु को जमा कर सेवा सुश्रुषा करती । घर परिवार के अन्य लोगों को एकत्र कर लेती । भनक पाते ही पड≥ोसी गण भी घेर कर खडा रहते । इस निर्जन, अंधकार भरे रात में भी दौड≥ धूप चलती । पूरा परिवार समाज चिन्ता से आकुलित होकर कुछ भी करने को तत्पर रहते । रामसत्ती तो ऐसी साध्वी है कि उसका वश चले तो वह स्वयं भैषज्य विधान के कुशल देव धनवंतरी जहां भी होते, उठा, कन्धे पर बैठा ले आती ।
हर तरह से असहाय, आशाहीन हो वह वेदना भरे राग में करुण कन्दन कर उठती । ब्रम्हाण्ड के स्रष्टा का अन्तर पसीज उठता । आज भी टोला–पड≥ोस में्र किसी भी शुभ कार्य के अवसर पर होनेवाले गीत–नाद में उसंका पंचम का स्वर बुलन्द होता रहता है । अपने रुदन में वह सातों महासागर में उथल–पुथल मचा देने का सामथ्र्य रखती है । उस बाढ≥ में हिमालय को भी समूल दहला कर सागर के अतल गहराई में डुबाने की शक्ति भरी हंै । जब वह चेतना शून्य हो निश्चेष्ट ठंढे फर्श पर देर तक पडा रहा होगा तो उस समय भी तो उसके तन में हृदय–कम्पन अवश्य ही चल रहा होगा । शरीर के और सभी अंग सुचा रुप में काम करते रहे होगें । प्राचीन युग की सावित्री की तरह यमराज से प्राण की भीख नहीं तो चेतना हरण करने वाली उस अदृश्य शक्ति के पीछे चलकर अनुनय विनय कर, पांव पकड कर –ज्ञानचेतना वापस मांगकर आवश्य ही अपने अटल सुहाग की रक्षा कर लेती परन्तु वह जिस गम्भीर, खतरापूर्ण परिस्थिति से गुजरा तत्काल उसे कोई अता पता नही चल पाया वरना आसमान ही सर पर उठा लेती ।
वह दरबाजा, खिडकी बन्द चार दीवारों के भीतर तडपते अंधेरा के अगम सागर में ज्वर से व्याकुल भांड में तड≥पते तपते बालू के मध्य मक्का के दानों सदृश्य इस–उस करवट छटपटाता रहा । पर साल बड≥ी बेटी सुमित्रा के घर सुबह स्नान कर भोजन की प्रतीक्षा मे बैठा नाती गणोश को कुछ अंग्रेजी में करा रहा था कि अचानक ही बिना किसी पूर्व संकेत के ऐसी मानसिक बेचैनी बन गयी कि सारे घर– द्वार, वृक्ष–टोला ही नाचते पल प्रतिपल बदलते रुप लेते दीख पडे । नजदीक में बैठे गणोश, ममता की स्थिर आकृतियां भी स्पष्ट रुपसे मानस पटल पर नही उभर पाती रही । उसने सर्व प्रिय स्वजनों के मध्य रहकर भी अपनी बेचैनी का अहसास उस वक्त तक नही होने दिया जब तक दामाद सुबह ही गांव के किसी बृद्ध यादव की अन्त्येष्टी से भाग लेकर नहीं आ गए । छोटी नतनी के लोटा भर जल लेकर आ जाने पर भोजन करने आगन जाने समय दोनों ही हाथो से दीवारों का सहारा ले वह पीढी तक पहुंचा जहां दीवारों के ही सहारे उस पीढ≥ी पर पल्थी मार बैठ सका ।
नाचते, अस्थिर निगाहों के बीच ही मौन हो आधा पेट भोजन किया आज भी वह इस बात की चा“ज–परख करता ही है कि यह मकै के ओड≥हा या चलचित्र भवन में खाये नारियल के एक छोटे टुकडे की करिश्मा के कारण ज्वर का नैरंतर्य बना रहा या उपवास, गर्भ जल के पान दूग्धाहार से उत्पन्न कमजोरी के फलस्वरुप संज्ञा शून्यता, के अंक में समा गया । अब तक यह उलझन सुलभ नही पा रहा ।
कुछ समय के अन्तराल पर गर्मजल तथा दूध पी शुक्र की सुबह के दस बजे वह विद्यालय जाने के लिये धोती पहनने लगा तो वह धोती लपेट में नहीं ले सका ? कोठरी के अन्दर खुले किवार के नजदीक ठंढे फर्श पर कब तक लुढका रहा वह नहीं समझ पाया ? जब वह चेतना युक्त बना तो धोती चौकी से लेकर चौखट तक फैली पसरी थी । नंगा तन शीतल पक्का पर देर तक पड≥ा रहने के उपरान्त ही चेतना वापस आयी तो समझ सका कि वह अचेत हुआ था । संयाोग ऐसा था कि कोई डेरे के भीतर आया नहीं । किसी की जर उस चेतनाहीन अवस्था मे नही पडी थी । बड≥ी मुश्किल से धोती को जैसे तैसे कमर में लपेट, कमीज पहन विद्यालय पहुंचा । उसने न रात की न दिन की घटना की चर्चा किसी सहकर्मी से की । एक वचन बेलने तक की इच्छा नहीं हुई । चुपचाप माौन बैठा रहा । अधिकांशतः संकेत से ही काम लेता रहा । घर ककी ओर जाने का विचार छोड बहन के घर जाने का मन बनाया ।
यह तो वह समझ ही रहा था कि लगभग साल भर से उसे सर्दी खांसी नहीं हुई । इस बीच अधिकतम पानी के प्रयोग से मल अवरोध भी नही हुआ था । जिसके कारण सर्दीं बनती । फिर वह संज्ञा शुून्यता का इस तरह शिकार क्याें हो रहा है ? सुबह की संज्ञा हीनता के फलस्वरुप चोट लगने से जो घाव चेहरे पर बन आया था उसके सम्बन्ध में कई सहकर्मियों ने जिज्ञासा की थी जिसका उन्हें मनगढंत जबाब देना पडा था । लक्ष्मी चौधरी कडी मिहनत करके साइकल पर बैठा डंडा पर पहुंचा आया । बीमारी की बात से अनभिज्ञ उस परिस्थिति में पाकर सारे परिवार भर के लोग अचम्भित रह गये । थोडा ज्वर रहने पर भी पथ्य के संग एलोपैथिक औंषधि लेता रहा । दूसरी सुबह शनिवार को हेमन्त को भेज लंूगी और पैंट मगवाया तो लूंगी को फटा पाया । तब समझ में आया कि लूंगी के फट जाने का सब रात में साइकल पर गिरने से है । साइकल स्टैण्ड के प्लेट में लगकर लूंगी फट गयी । सिर में चोट लग जाने से बडा घाव बन आया था । समय समय पर खांसी उठ आती । रात के बारह बजते न बजते चार बजे तक जोर पर खांसी रहती । उसी रात को घर के अन्य किसी को नहीं बता जब पेशाव करने बाहर जाने का उपक्रम किया नहीं कि चौखट के नजदीक कटे वृक्ष सदृश्य धराशायी हो गया । पल्ला के नजदीक धरती पर बिछौना लगा सोया मिस्त्री ठाकुर तुरन्त जाग, उठकर भगिना हेमन्त की मदद से बिछावन पर सुलाया तो होश में आया । उन दोनों ने कोई देर नहीं की । तभी सुबह घर भर के लोग इस बेहोशी की बात सुन सहोदरा सहित सभी चिन्ताकुल हो गये । पथ्य औषधि एक साथ चलते । बहन की पड≥ोसिनी एक ब्राह्मणी फुर्सत के क्षण में कपडा सीलने का काम करती है जिसने फटी लुंगी की मरम्मत कर पुनः पहनने लायक बना दी । विद्यालय जाना बन्द कर दिनभर कार्यरत मिस्त्री ठाकुरों के बीच गफ शफ में समय आसानी से बीतता । उसने उस ब्राह्मणी कनिआ को परिश्रमिक के रुप में कुछ भी नही दिया । सूर्योदय पश्चात शौच पर बैठने के समय जब धोती के नीचे पहने पैन्ट को देखा तो लहु लुहान रक्तमय पाकर समझ में आया कि साइकल स्टैण्ड के नुकीले प्लेट में लगकर पैण्ट का पिछला भाग बेकाम बन गया है । कमर के नीचे परे घाव का रुप ले लिया है ।
अगर यह सब बात रामसत्ती तत्काल जान पाती तो उसका हृदय अवश्य ही वैशाख मास में पोखरा के पानी के सूख जाने पर तेज सूर्य के प्रकाश के परिमाण स्वरुप धरती जैसा हो जाता । व्याकुल हो कुलदेवता धर्मराज कारख की मनौती करती । गाांव के दक्षिण मी युगों से पीपल वृक्ष के नीचे ग्राम देवता डीहवार की आंचर खोल कबूला करती । पोखरा में नहाने के समय हाथ जोर दिनानाथ दिनकर से रोग मुक्त होने के लिये अवश्य ही आराधना करती ।
शिक्षा विभाग के माध्यम से विदेशी सरकार द्वारा संचालित माध्यमिक विज्ञान सम्मेलन में राजविराज चन्द्रशेखर बाबू से जाते समय इसी हेतु अंग्रेजी में लिखा प्रश्न दिया था कि फुर्सत के क्षण उन विज्ञान वेत्ता विदेशी–देशी शिक्षकों के बीच प्रश्न को अवश्य रखें जिससे कि उस उलझन का कोई सही हल निकल सके । उनके वापस होने पर प्रश्न सम्बन्धी बात रखाने पर उनका यह जवाब रहा कि सभी लोग इस प्रश्न के विषय में एकमत से किसी निष्कर्ष पर नही पहुंच सके । खान–पीन की पूरी व्यवस्था में सप्ताह तक वह वहीं सहोदरा के घर स्वाास्थ्य लाभ करता रहा । सप्ताहान्त अवकाश के दिन शनिवार को बचाने के ख्याल से शुक्रवार के दिन विद्यालय पहुंचा । उपस्थिति को दर्ज किया, सरकारी एवं गैर सरकारी सभी कर्मचारियों के लिए शनिवार सप्ताहान्त के अवकाश का दिन होकर भी बड≥ी महत्वपूर्ण होता है ।
मानव सुलभ कमजोरी से वह भी भरा है । जगत के प्राणी प्राणी प्रकृति प्रदत्त ऊर्जा का सदुपयोग–दुरुपयोग जाने अजनाने करते ही हैं । जो कुछ ऊर्जा नगण्य अंश हो कर भी उसे उपलव्ध है । ऊर्जा निष्क्रिय नहीं रहती । जीवन संगीनि से प्राप्त शारीरिक सुख आनन्द के अतिरिक्त अन्य अनेकौं तरह से ऊर्जा का खर्च कर औसत तरीका से ही जीता रहा है । सकभर भूल से बचने की कोशिश करता हुआ अब तक का सफर तय किया है । अपनी नासमझी से वह अपना सामने का दांत गंवाया है ।उस दाांत के गवां देने के कारण शायद अनेक किस्म की कठिनाइयोंका सामना करना पड रहा है । खाते रहते समय अनजाने जीभ के चौह के तले आ जाना या बोलते–अध्यापन के समय जीभ का दब जाना आदि से कभी कभार अपार पीड≥ा का अनुभव हाल के वर्षों में होने लगा है । यह वह नही जान पा रहा कि यह सब कोई पूर्व संकेत है अचानक विद्युत प्रवाह के अवरुद्ध होने के कारण अन्धकार के धमक आने जैसे संज्ञा शून्यता की स्थिति का पड≥ना एवं शनैःशनैः फिर संज्ञा की वापसी जैसी अनुत्तरीय घटना से वह हमेशा त्रसित रहा है । सजग, सचेत रहकर भी तन के भीतर हो रहे क्रमिक परिवर्तन के फलस्वरुप तीन बार संज्ञाहीनता के चपेट में पड जाने की उलझन को वह सुलझा नहीं पा रहा है । नेपाल के प्रधानमन्त्री श्री गिरिजा प्रसाद कोइराला के कार्यरत अवस्था में रहने पर भी दो बार चेतना हीनता की अवस्था में पड≥ना तो जगतविदित् सत्य है । यद्यपि देश विदेश के उच्च कोटि के आयुर्वेद विज्ञाान वेत्ता चिकित्सकों ने उन्हें पूर्ण परीक्षण के बाद निरोग पाया है । अदृश्य शक्ति के कार्य करने की प्रणाली को समझ पाने में वह अबतक अक्षम ही रहा है । पूर्णस्वास्थ्य लाभ कर अब वह कार्य क्षम होकर अध्यापन कार्य में लग गया है ।
“सर † मकैका ओडहा (भुट्टा) खाइये ........।”उन्होने अनुरोध किया ।
“आप ही सब उसका आनंद ले ........।”उसने कहा अनिच्छा प्रकट करते हुए ।। उसके अन्तर–मन ने ओड≥हा नखानेका संकेत किया । क्योंकि आज ही उसे सर्दी–जुकाम हो जानेका भारी अहसास सुबह से हो रहा था । “कम से कम एक भी तो ग्रहन कीजिये .......। ” कुछ नहीं होगा .........। “ताजा हैं । ” उन्होने जोर डाला ।
उसे स्वीकार करना पड≥ा ।
“विदयालय अब बंद होनेको आया .......... पता नही मैं मिल“ू या न मिलू“ .......और आप कभी भी पटना चलें जा सकते हैं...........।”
ओड≥हा का आनंद लेते हुए उसने कहा ।
“हम अभी पटना नहीं जा रहे.........छठ (उत्तर भारत,विशेषकर बिहार और नेपाल तराई का प्रमुख प्रसिद्ध पर्व जो कार्तिक शुक्ल षष्ठी तिथिको मनाया जाता है ।) के पहले तो नहीं जायेगें ...........चलते बक्त हम आपको खबर कर रचनाएं मांग लेगें............अपने पास से खोजानेका भय बना रहता है..........।”अपनें कर्मियों से बातें करते हुए उन्होने बताया ।
“धन्यवाद ................। ” कह कर अपने डेरे की ओर वापस आया तो चौधरी डाक्टर साहबको अपनी प्रतीक्षा करते हुए पाया ।
“सर † आज और अभी चलिये सिनेमा देखने .........बड≥ा मन कर रहा है......वैसे तो एक बार देखाकर आ चुका हाू“ ............फिर भी मन संतुष्ट नहीं हो रहा ..........किधर चले गये थे ?........आप ही की प्रतीक्षा कर रहे थे .........।” डा.साहब ने इच्छा प्रकट की ।
“अब तो देर हो चुकी जैसा लगता हैं ......अंधेरा धिर चुका हैं ..........लौटकर खाना बनाते हुए और भी अबेर हो जायगा........।” वह बोला ।
“नहीं † चलना ही पडेगा ........नहीं मालुम..........क्यों नहीं मन मानता ?........ खाना बनाने में समय ही कितना लगता हैं ? ...........मुश्किल से पैंतालीस मिनट से लेकर एक घंटा तक ..........।”
उनके उत्साह में किसी और किसीमका तर्क देकर खलल देना उसे अच्छा नहीं लगा । अपनी साइकल लेकर उनके साथ हो लिया । रात्रि–सेवा बसों कें पूरब–पच्छिम आवत–जाबत के कारण उनके वायु–वेग के अनुकूल प्रकाश के सैलाब में पल–प्रतिपल सूर्योदय एवं अस्त का आभास दिलानेवाले सालों पूर्व भारत–सरकार के सहयोग से निर्मित राज–पथ पर पहँ“ुचते ही एक पारखी शिक्षक के दृष्टि–पथ में पड≥ते ही कैफियत देकर दूरी को मापते वे दोनों गोलबाजार के चलचित्र भवन में पहुँ“चे तो द्धितीय “शो” प्रारम्भ होने ही बाला था ।
अहाता में फैंले अंधकार के कारण असुरक्षित स्थितिको देखकर साइकल की सुरक्षा की चिंता लगी थी ।
“यहीं झोपड≥ी में साइकल लगा दीजिए ..........ताला लगाइये........ ।” डा.साहब का निर्देशन हुआ ।
वह स्थान कांटेदार–तारों से घिरे अहाता के अंदर था । अतः आश्वस्त हो रहा ।
“ठीक है.........लगाता हू“ँ ..............।” ताला बंद करते हुए उसने कहा । उनके पीछे हो चला ।
उसे उस समय सर्दी अंतर में कोई खास महसूस नही हुयी । मध्यांतर में पेशाब करने बाहर हुआ तो साइकल को देख लेना आवश्यक लगा ।
“चाय तो पीजिये.......... । ” वापसी के समय उसने डाक्टर साहब से पूछा । बरसात के कारण हवा में ठंड थी ।
“अभी चाय मिलेगी ? .........? ” शंका जाहिर करते हुए डा.साहव ने कहा ।
“चाय तो बनानी पडे≥गी .......दूकान वाले ने कहा .......थोड≥ा समय चाहिए । ”
“समय तो नहीं हैं । ........ उसने कहा....... चलिये । ”
दोनों ही भीतर हो गए । शोर गुल चल रहा था । खोम्चेवालोंका साम्राज्य बना था चलचित्र भवन का अन्तःपुर ।
“ताजा नारियल है........ । ” पीछे से स्वर आया ।
“नारियल खायेगें....... ?” डा.साहब की दृष्टि उस छोकडे≥ के नारियल पर जमी थी ।
“खाइये ...... । ”उसने हामी भरी ।
“अभी यह खाने में हानि तो नहीं होगी ...... ?”
“यह ताजा फल हैं ......... कच्चा नारियल.......स्वास्थ्यप्रद ही होना चाहिए........। ”
“क्या भाव हैं.......? ” टुकडा बड≥ा दीख रहा था ।
“प्रति टुकड≥ा दो रुपये........ ।
चाहिए दो टुकडे≥........... । ”
बिजली का प्रकाश गुम हुआ नहीं कि टार्च के प्रकाश में भवन का पर्दा झिलमिला उठा । अगल–बगल नव–युवक–नवयुवतियों के जोडे आपस में हँस बोल रहे थे । उसे अपनी जीवन–संगिनीका स्मरण हो आया । विश्राम काल में बनारस के बाबा विश्वनाथ मंदिर के प्रांगन में जब पंजाबी एक पौढा की उसने दर्शनार्थियों की भीड में सुरक्षा प्रदान की थी तो बडी आत्मीयता से उसे “बेटी” शब्द से सम्बोधन करती जो कुछ थोड≥े कृतज्ञतापूर्ण वचन के प्रयोग उसने की उस से उसे अपार प्रसन्नता हुई तथा उसने गौरब अनुभव किया । सुबह होने पर चलते वक्त उन्ही लोगों ने उनसे अपने समूह में सम्मिलित होकर नगर–दर्शनका आग्रह किया था । वह भी केवल दो की ही संख्या में था । उस प्रौढ≥ाने उससे भी बाल–बच्चे ,पेशा, खेती ,गृहस्थी आदि के विषय में पूछा था जिसे जानकर वह बड≥ा ही आनन्दित हुई थी । उसी महिला ने देह दवा देने के प्रेमपूर्ण पति पत्नि के समान आपसी व्यवहार के सम्बन्ध में हाथ के संकेत से जब पूछा तो उसे भी उसी क्षण घर से दूर परदेश में उस स्नेहपुर्ण मधुर व्यबहारका महत्व मालूम हुआ जो आज पर्यन्त भी वह अपनी घरवाली प्राणप्रिय रामसती के साथ निभा रहा हैं । उसी क्षण से उसने पति के श्रेष्ठता की रुढिवादी विचार का परित्याग कर समकक्षता की भावना का स्वीकारता अपने नैतिक दायित्वका पालन करता आ रहा हैं । उस दोनों की प्रसन्नता आर्थिक संकट्काल में बदस्तूर कायम है ।
गोलबाजार से वापस हो आवास में आने पर देर रात में खाना बनाने से मन ने आना कानी की तो चूरा–घी–चिनी खाकर सो गया । ताजा जल पीया ।
सुबह में सर्दी बढ गयी थी । सर्दी अपने आप में कोंई बीमारी तो नहीं । वह प्रकृतिकी शरिरको रोग मुक्त करने की एक प्रकिया हैं जिस क्रम में रोगीको रोग–मुक्त करने की प्रकृया में स्वयं सहायता करनी चाहिये न कि अंट–संट खाकर बाधा । कुपथ्य नहीं करने पर सर्दी स्वयं ही ढ≥ाई से तीन दिनों में समाप्त हो तन रोग–मुक्त हो जाता हैं । उसने खाना छोड उपवासका सहारा लिया । पर्याप्त गर्म जल पी, दूध का आहर कर रोग–मुक्त होने की चेष्टा की ।
“सर † लगता हैं ......... ? सर्दी हो आयी हैं ...... । विद्यलय पहुँचने पर शेखर बाबू ने पुछा । गमछा से जब तब नाक से आते पानी को पोंछ कर साफ करना पडता था । आ“खे लोल, उससे ताब निकलता महसुस होता था । सिर भी भारी लगता । नाक बंद लगती अनुभव होता । प्र.अ.की अनुपस्थिति में काम का अतिरिक्त भार और भी बढ आया था अनावश्यक तौर पर । सूर्योदय पश्चात् चपरासी से दूध की व्यबश्था कर देने के लिये कहने पर उसने असमर्थता प्रकट की कि इस टोल में दूध नहीं लगता है , मिलना मुश्किल है ।
सर † दूध की व्यवस्था हुई कि नहीं. .........? कक्षा से वापस आकर शेखर बाबू ने जब पूछा तो उसने नकारात्मक उत्तर दिया ।
“नही हुआ ........ दूध का अब समय भी नहीं रहा । ”
ठहरिये.........हमारे गांव की एक पड≥ोसिन यहा“ रहती है .......उसकी गाय दूध देती है .....गाय का चलेगा न.....? प्रश्नात्मक दृष्टि उसने डाली ।
यह तो और भी अच्छा है....रोगी के लिये अमृत ...........।
विद्यालय के समीप ही वह घर है ठाकुर का जिसके भीतर जाकर उन्होने एक लोटा दूध का इन्तजाम किया ।
एक घंटे बाद दूध होगा..... दूध दूहा नही गया है अभी.........।
तीन दिनों से वह उपवास करता रहा । दूधाहार और पर्यााप्त गर्मजल पीकर ज्वर सहित सर्दीका उपचार करता रहा । परन्तु ज्वर शुद्ध नहीं हुआ । सर्दी और उससे बना ज्वर ।
सर † ज्वर हो आया है....... अन्न खााना नहीं छोडि≥ये........ कोई औषधि भी लीजिये...... आज कल का ज्वर भोजन आौर औषधि खाते रहने पर भी ठीक होता है ।....... अन्यथा कमजोर होते चले जायेंगे....... ।
कहते तो ठीक ही हैं आप....... खाने से ज्वर म्यादी नहीं हो जाय....... ? भय लगता है ।
पथ्य परहेज से बीमारी ठीक होती है । बीमारी प्रकृति के कार्यरत होकर शरीरको निरोग रखने का माध्यम है । यह प्रकृत के निर्धारित नियम का पालन नहीं करने की सजा भी है, क्रिया है ।
उत्तरदायी व्यक्ति की अनुपस्थिति में विद्यलय संचालन के अतिरिक्त दैनिक अध्यापन के फलस्वरुप अनावश्यक शारीरिक तथा मानसिक श्रम ने ज्वर के नैरंतर्य को बनाये रखने में तेज उर्वरक का कार्य किया । दूध तथा गर्म जल पान ने मल अवरोध विल्कूल नहीं रहने दिया । अन्न के परहेज ने पेट को पूर्णातः खाली कर हल्का कर दिया । कमजोर होने पर भी कमजोर महसूस उसने नहीं किया ।
डेरे में पानी गर्म करने के लिये जब वह स्टोव जलाने लगा तो स्टोव ने ठीक तरह से काम करने में झंझट कर दिया । देर तक कमरे में कमर झुका स्टोव बालने में अक्षम हो लक्ष्मी चौधरी से जल गर्म करवाया । गर्म जल पी मध्यान्ह अवकाश के उपरान्त विद्यालय गया तो सभी शिक्षकों ने अध्यापन नहीं करने का सल्लाह दिया । विना पूर्व जानकारी के शिक्षकों की अनुपस्थिति के कारण खाली जा रहे कक्षा की पढाइ की व्यवस्था अवकाश में विश्राम कर रहे शिक्षकोें से कहकर कर देने का परामर्श दिया । निःशक्तता के कारण दैनिक समय–सारिणी का अध्ययन कर घण्टी घण्टी में विश्रामरत अध्यापककों को कक्षा में अध्यापन कर देने का आग्रह करना उसके लिये पर्वतारोहण से भी दुष्कर लगा । विश्वविद्यालयी उपाधिधारी विवेकशील अध्यापकों को परिस्थिति की गम्भीरता का हृदयंगम कर स्वयं स्फूर्त हो कार्य निष्पादन नहीं करते रहने से उसे बहुत खीझ उत्पन्न होती । उसे शान्ति कोई कीमती औषधि से बढकर प्रतीत हुइ । बातचीत नहीं कर केवल शान्त रह मौन के अथाह सागर में तैरना–डुबना प्रिय लगता । चंचल मन छात्र–छात्राओं की चहल पहल से जीवन्त बने विद्यालय के प्रांगन में निष्क्रिय, निस्पंद हो बैठे रहना उसे अनैतिक प्रतीत होता ।
“सर † कोई दूसरी साइकल होती तो आपको हम आपके घर तक पहू“चा आते ।” धर्मनाथ बाबू ने कहा ।
“काोशिश करता ह“ू......हो जाय तो अच्छी बात होती............।
शुक्रवाार के दिन नियमतः डेढ बजते न बजते विद्यालय सप्ताहान्त विश्राम के लिये बन्द हो जाता है । आवास में आकर लक्ष्मी चौधरी से उसकी साइकल के सम्बन्ध में पूछा तो उससे डा० साहब कोई रोगी को देखाने के लिए गये थे की जानकारी हुई । घर की ओर रुख करने का विचार छोड दिया । विद्यालय के समीप डंडा पर सहोदरा के घर जा स्वास्थ्य लाभ करने का मन बना लिया । घर से दूर होने से रास्ते में अन्य कोई भी गड≥ बड≥ी की आशंका उसे सताती रही ।
उपवास से उत्पन्न कमजोरी के कारण पेशाब करने के लिये कमरा से बाहर जाने में असमर्थ पा जब वह रात में खिड≥की से ही पेशाब कर चौकी तो वापस हुआ पर वापस होना नदार था ।
यह तो असीम, अदृश्य शक्ति ही जान सकता है, वह कुछ भी नहीं समझ सका । कब तक वह शीतल सींमेंटेड फर्श पर अचेत पडा रहा इस बात का लेखा– जोखा वह नही कर सकता । साइकल चौकी पर गिरी पडी थी । जब संज्ञा–शून्यता दूर हुई तो उसे ठंढ मालूम पड≥ी । उसे आश्चर्य का ठिकाना नहीं था । उठकर साइकल स्टैंड पर खडा किया । लंूगी उठाकर कमर में लपेटा क्योंकि लूंगी सााइकल पर ही लटकी थी । कम्बल ओढकर लेट रहा । जाने कब नीदा–देवी की गोद में सो गया ?
“लक्ष्मी † स्टोव जला कर दूध गर्म कर दो......पीकर डंडा पर चले जायेंगे....... यहां अब रहने से कल्याण नहीं .......अपटी खोत में प्राण चले जायेंगे ।”
लक्ष्मी ने दूध गर्म होने को स्टोव पर रखा । बेंच पर बैठा था । वह कटोरा साफ करने बाहर पानी फेंकने गया । पानी फेंक पाया परन्तु वापस कमरा में नही हो सका । उसी के नजदीक बेंच पर चेतनाहीन बन गिर गया । वह चौंका और अविलम्ब ललिता को बुला लिया । उसके साथ उसके मेहमान भी थे । सभी कोई डरे–सहमें हुए उसे घेरे खडे थे । पलकें खुली तो आश्चर्य लगा कि वे सब के सब क्यों उसे घूर रहे हैं ?
“सर अचेत हो गए थे.........लक्ष्मी ने कहा....... बेंच पर ही गिरे थे ।”
उसे कुछ भी पता नहीं चल पाया । कटोरा में गर्म दूध लेकर पीया ।
कपडा पहने तो थाही, लूंगी ओर दवा लेकर चल दिया । लक्ष्मी मील वाले की साइकल लाया । उसे बैठा डंडा पर सहोदरा के घर ले चला ।
निस्तव्ध निर्जन रात में जो उसे प्रत्यक्ष अनुभव हुआ उसकी उसे कल्पना भी नही थी । निःशक्ताने घर की दूरी को उसके जैसा सक्षम प्राणी के लिये इतना बडा बना दिया था कि किसी अन्यका सहारा लेकर भी उस दूरी को तत्काल तय कर पाना सम्भव नही लगा । जगत नियन्ता ने संसार के किसी भी प्राणी को इतने नगण्य अंश की ऊर्जा प्रदान कर अक्षम बना रखा है कि उसकी अद्भूत गतिविधि का उस निर्बल प्राणी को सिर्फ अभास भर मिल सके । इसके सिवाय और कुछ भी नहीं वह जान पाये ।
जीवन–संगिनी के अतिरिक्त बेटा बहू तथा पाोता पोते भी हैं घर पर परिवार में परन्तु वह आज निर्जन एकान्त रात में भरा पूरा परिवार वाला होकर भी निसहाय यहँं पडा है । जीवन संगिनी होती तो वह पल भर को चैन नहीं रहती । अन्तिम बल लगाकर उठा, बिछौने पर सुलाती, बेटे पुतहु को जमा कर सेवा सुश्रुषा करती । घर परिवार के अन्य लोगों को एकत्र कर लेती । भनक पाते ही पड≥ोसी गण भी घेर कर खडा रहते । इस निर्जन, अंधकार भरे रात में भी दौड≥ धूप चलती । पूरा परिवार समाज चिन्ता से आकुलित होकर कुछ भी करने को तत्पर रहते । रामसत्ती तो ऐसी साध्वी है कि उसका वश चले तो वह स्वयं भैषज्य विधान के कुशल देव धनवंतरी जहां भी होते, उठा, कन्धे पर बैठा ले आती ।
हर तरह से असहाय, आशाहीन हो वह वेदना भरे राग में करुण कन्दन कर उठती । ब्रम्हाण्ड के स्रष्टा का अन्तर पसीज उठता । आज भी टोला–पड≥ोस में्र किसी भी शुभ कार्य के अवसर पर होनेवाले गीत–नाद में उसंका पंचम का स्वर बुलन्द होता रहता है । अपने रुदन में वह सातों महासागर में उथल–पुथल मचा देने का सामथ्र्य रखती है । उस बाढ≥ में हिमालय को भी समूल दहला कर सागर के अतल गहराई में डुबाने की शक्ति भरी हंै । जब वह चेतना शून्य हो निश्चेष्ट ठंढे फर्श पर देर तक पडा रहा होगा तो उस समय भी तो उसके तन में हृदय–कम्पन अवश्य ही चल रहा होगा । शरीर के और सभी अंग सुचा रुप में काम करते रहे होगें । प्राचीन युग की सावित्री की तरह यमराज से प्राण की भीख नहीं तो चेतना हरण करने वाली उस अदृश्य शक्ति के पीछे चलकर अनुनय विनय कर, पांव पकड कर –ज्ञानचेतना वापस मांगकर आवश्य ही अपने अटल सुहाग की रक्षा कर लेती परन्तु वह जिस गम्भीर, खतरापूर्ण परिस्थिति से गुजरा तत्काल उसे कोई अता पता नही चल पाया वरना आसमान ही सर पर उठा लेती ।
वह दरबाजा, खिडकी बन्द चार दीवारों के भीतर तडपते अंधेरा के अगम सागर में ज्वर से व्याकुल भांड में तड≥पते तपते बालू के मध्य मक्का के दानों सदृश्य इस–उस करवट छटपटाता रहा । पर साल बड≥ी बेटी सुमित्रा के घर सुबह स्नान कर भोजन की प्रतीक्षा मे बैठा नाती गणोश को कुछ अंग्रेजी में करा रहा था कि अचानक ही बिना किसी पूर्व संकेत के ऐसी मानसिक बेचैनी बन गयी कि सारे घर– द्वार, वृक्ष–टोला ही नाचते पल प्रतिपल बदलते रुप लेते दीख पडे । नजदीक में बैठे गणोश, ममता की स्थिर आकृतियां भी स्पष्ट रुपसे मानस पटल पर नही उभर पाती रही । उसने सर्व प्रिय स्वजनों के मध्य रहकर भी अपनी बेचैनी का अहसास उस वक्त तक नही होने दिया जब तक दामाद सुबह ही गांव के किसी बृद्ध यादव की अन्त्येष्टी से भाग लेकर नहीं आ गए । छोटी नतनी के लोटा भर जल लेकर आ जाने पर भोजन करने आगन जाने समय दोनों ही हाथो से दीवारों का सहारा ले वह पीढी तक पहुंचा जहां दीवारों के ही सहारे उस पीढ≥ी पर पल्थी मार बैठ सका ।
नाचते, अस्थिर निगाहों के बीच ही मौन हो आधा पेट भोजन किया आज भी वह इस बात की चा“ज–परख करता ही है कि यह मकै के ओड≥हा या चलचित्र भवन में खाये नारियल के एक छोटे टुकडे की करिश्मा के कारण ज्वर का नैरंतर्य बना रहा या उपवास, गर्भ जल के पान दूग्धाहार से उत्पन्न कमजोरी के फलस्वरुप संज्ञा शून्यता, के अंक में समा गया । अब तक यह उलझन सुलभ नही पा रहा ।
कुछ समय के अन्तराल पर गर्मजल तथा दूध पी शुक्र की सुबह के दस बजे वह विद्यालय जाने के लिये धोती पहनने लगा तो वह धोती लपेट में नहीं ले सका ? कोठरी के अन्दर खुले किवार के नजदीक ठंढे फर्श पर कब तक लुढका रहा वह नहीं समझ पाया ? जब वह चेतना युक्त बना तो धोती चौकी से लेकर चौखट तक फैली पसरी थी । नंगा तन शीतल पक्का पर देर तक पड≥ा रहने के उपरान्त ही चेतना वापस आयी तो समझ सका कि वह अचेत हुआ था । संयाोग ऐसा था कि कोई डेरे के भीतर आया नहीं । किसी की जर उस चेतनाहीन अवस्था मे नही पडी थी । बड≥ी मुश्किल से धोती को जैसे तैसे कमर में लपेट, कमीज पहन विद्यालय पहुंचा । उसने न रात की न दिन की घटना की चर्चा किसी सहकर्मी से की । एक वचन बेलने तक की इच्छा नहीं हुई । चुपचाप माौन बैठा रहा । अधिकांशतः संकेत से ही काम लेता रहा । घर ककी ओर जाने का विचार छोड बहन के घर जाने का मन बनाया ।
यह तो वह समझ ही रहा था कि लगभग साल भर से उसे सर्दी खांसी नहीं हुई । इस बीच अधिकतम पानी के प्रयोग से मल अवरोध भी नही हुआ था । जिसके कारण सर्दीं बनती । फिर वह संज्ञा शुून्यता का इस तरह शिकार क्याें हो रहा है ? सुबह की संज्ञा हीनता के फलस्वरुप चोट लगने से जो घाव चेहरे पर बन आया था उसके सम्बन्ध में कई सहकर्मियों ने जिज्ञासा की थी जिसका उन्हें मनगढंत जबाब देना पडा था । लक्ष्मी चौधरी कडी मिहनत करके साइकल पर बैठा डंडा पर पहुंचा आया । बीमारी की बात से अनभिज्ञ उस परिस्थिति में पाकर सारे परिवार भर के लोग अचम्भित रह गये । थोडा ज्वर रहने पर भी पथ्य के संग एलोपैथिक औंषधि लेता रहा । दूसरी सुबह शनिवार को हेमन्त को भेज लंूगी और पैंट मगवाया तो लूंगी को फटा पाया । तब समझ में आया कि लूंगी के फट जाने का सब रात में साइकल पर गिरने से है । साइकल स्टैण्ड के प्लेट में लगकर लूंगी फट गयी । सिर में चोट लग जाने से बडा घाव बन आया था । समय समय पर खांसी उठ आती । रात के बारह बजते न बजते चार बजे तक जोर पर खांसी रहती । उसी रात को घर के अन्य किसी को नहीं बता जब पेशाव करने बाहर जाने का उपक्रम किया नहीं कि चौखट के नजदीक कटे वृक्ष सदृश्य धराशायी हो गया । पल्ला के नजदीक धरती पर बिछौना लगा सोया मिस्त्री ठाकुर तुरन्त जाग, उठकर भगिना हेमन्त की मदद से बिछावन पर सुलाया तो होश में आया । उन दोनों ने कोई देर नहीं की । तभी सुबह घर भर के लोग इस बेहोशी की बात सुन सहोदरा सहित सभी चिन्ताकुल हो गये । पथ्य औषधि एक साथ चलते । बहन की पड≥ोसिनी एक ब्राह्मणी फुर्सत के क्षण में कपडा सीलने का काम करती है जिसने फटी लुंगी की मरम्मत कर पुनः पहनने लायक बना दी । विद्यालय जाना बन्द कर दिनभर कार्यरत मिस्त्री ठाकुरों के बीच गफ शफ में समय आसानी से बीतता । उसने उस ब्राह्मणी कनिआ को परिश्रमिक के रुप में कुछ भी नही दिया । सूर्योदय पश्चात शौच पर बैठने के समय जब धोती के नीचे पहने पैन्ट को देखा तो लहु लुहान रक्तमय पाकर समझ में आया कि साइकल स्टैण्ड के नुकीले प्लेट में लगकर पैण्ट का पिछला भाग बेकाम बन गया है । कमर के नीचे परे घाव का रुप ले लिया है ।
अगर यह सब बात रामसत्ती तत्काल जान पाती तो उसका हृदय अवश्य ही वैशाख मास में पोखरा के पानी के सूख जाने पर तेज सूर्य के प्रकाश के परिमाण स्वरुप धरती जैसा हो जाता । व्याकुल हो कुलदेवता धर्मराज कारख की मनौती करती । गाांव के दक्षिण मी युगों से पीपल वृक्ष के नीचे ग्राम देवता डीहवार की आंचर खोल कबूला करती । पोखरा में नहाने के समय हाथ जोर दिनानाथ दिनकर से रोग मुक्त होने के लिये अवश्य ही आराधना करती ।
शिक्षा विभाग के माध्यम से विदेशी सरकार द्वारा संचालित माध्यमिक विज्ञान सम्मेलन में राजविराज चन्द्रशेखर बाबू से जाते समय इसी हेतु अंग्रेजी में लिखा प्रश्न दिया था कि फुर्सत के क्षण उन विज्ञान वेत्ता विदेशी–देशी शिक्षकों के बीच प्रश्न को अवश्य रखें जिससे कि उस उलझन का कोई सही हल निकल सके । उनके वापस होने पर प्रश्न सम्बन्धी बात रखाने पर उनका यह जवाब रहा कि सभी लोग इस प्रश्न के विषय में एकमत से किसी निष्कर्ष पर नही पहुंच सके । खान–पीन की पूरी व्यवस्था में सप्ताह तक वह वहीं सहोदरा के घर स्वाास्थ्य लाभ करता रहा । सप्ताहान्त अवकाश के दिन शनिवार को बचाने के ख्याल से शुक्रवार के दिन विद्यालय पहुंचा । उपस्थिति को दर्ज किया, सरकारी एवं गैर सरकारी सभी कर्मचारियों के लिए शनिवार सप्ताहान्त के अवकाश का दिन होकर भी बड≥ी महत्वपूर्ण होता है ।
मानव सुलभ कमजोरी से वह भी भरा है । जगत के प्राणी प्राणी प्रकृति प्रदत्त ऊर्जा का सदुपयोग–दुरुपयोग जाने अजनाने करते ही हैं । जो कुछ ऊर्जा नगण्य अंश हो कर भी उसे उपलव्ध है । ऊर्जा निष्क्रिय नहीं रहती । जीवन संगीनि से प्राप्त शारीरिक सुख आनन्द के अतिरिक्त अन्य अनेकौं तरह से ऊर्जा का खर्च कर औसत तरीका से ही जीता रहा है । सकभर भूल से बचने की कोशिश करता हुआ अब तक का सफर तय किया है । अपनी नासमझी से वह अपना सामने का दांत गंवाया है ।उस दाांत के गवां देने के कारण शायद अनेक किस्म की कठिनाइयोंका सामना करना पड रहा है । खाते रहते समय अनजाने जीभ के चौह के तले आ जाना या बोलते–अध्यापन के समय जीभ का दब जाना आदि से कभी कभार अपार पीड≥ा का अनुभव हाल के वर्षों में होने लगा है । यह वह नही जान पा रहा कि यह सब कोई पूर्व संकेत है अचानक विद्युत प्रवाह के अवरुद्ध होने के कारण अन्धकार के धमक आने जैसे संज्ञा शून्यता की स्थिति का पड≥ना एवं शनैःशनैः फिर संज्ञा की वापसी जैसी अनुत्तरीय घटना से वह हमेशा त्रसित रहा है । सजग, सचेत रहकर भी तन के भीतर हो रहे क्रमिक परिवर्तन के फलस्वरुप तीन बार संज्ञाहीनता के चपेट में पड जाने की उलझन को वह सुलझा नहीं पा रहा है । नेपाल के प्रधानमन्त्री श्री गिरिजा प्रसाद कोइराला के कार्यरत अवस्था में रहने पर भी दो बार चेतना हीनता की अवस्था में पड≥ना तो जगतविदित् सत्य है । यद्यपि देश विदेश के उच्च कोटि के आयुर्वेद विज्ञाान वेत्ता चिकित्सकों ने उन्हें पूर्ण परीक्षण के बाद निरोग पाया है । अदृश्य शक्ति के कार्य करने की प्रणाली को समझ पाने में वह अबतक अक्षम ही रहा है । पूर्णस्वास्थ्य लाभ कर अब वह कार्य क्षम होकर अध्यापन कार्य में लग गया है ।
ॐट
स्रष्टा का सृष््िरट कार्य चल रहा था । जितने जीवों की रचना हुई है । रचना कार्य समात्प प्राय तो था परंतु प्राणियों में लिगं का वितरण अभी–शेष था । लिंग आवंटन का दिन उन्होंने निश्चय किया । लिंग वितरण के दिन की घोषण की गयी । घोषणा सुनकर जीवों में हलचल मची । उन में उत्साह का संचार हुआ । सभी प्राणी उक्त दिन की उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगे ।
पहले छोटे, निर्बल प्राणी को उपस्थित होने को कहा गया । बड≥े, विशाल जीवों के बीच उनके कुचले जाने की सम्भावन अधिक थी । बल और शरीर के आकार के अनुपात क्रम में उन प्राणियों को उक्त दिन को जमा होना था । उस दिन प्रणियों का समंदर उमड≥ पड≥ा । सूक्ष्म,लघु आकार के प्राणी ब्रहना के सामने उत्साहपूर्वक धूम् रहे थे । रेंगने वाले जीव इधर–उधर, घूम–फिर करने लगे । रंग–बिरंगे पंछी के कल्लो लसे पूरा वातावरण मुखर था । चौपायों में आकार अनुसार के चौपाये आगे–पीछे स्वच्छंदता से विचार कर रहे थे ।
लघु,सूक्ष्म आकार के जीवों से लिंग वितरण का कार्य आरम्भ हुआ । उन जीवों के द्वरा स्थान खाली कर दिए जाने के बाद रंगने वाले स्थलीय एवम् जलीये जीवों की बारी थी । उनके बीच लिगं वितरण सम्पन्न हो जाने पर वे अपने स्थान को वापस हुए । रंग–बिरंगे रुप वाले पंछियों की बारी आई । उनमें लिंछ–आबंटन समात्प हुआ तो वे सभी खुशी,खुशी कलरव करते हुए वापस हुए । ब्रहमा को भी उनके विविध रुयों और कलरव से अधिक प्रसन्नता हुई । मनुष्य चतुर होता ही है । वह क्यों पीछे पड≥ता ।
अंत में चौपायों की बारी थी । शुरु में छोटे आकार के चैपाये आगे आये । आकार के क्रम से पशु आते गए । आबंटन का काम चलता रहा । उन चौपायों के द्वारा स्थान खाली कर देने पड≥ हाथी को अवसर मिला । हाथी में लिंग– आरोपणं का काम अंतिम चरण में था तो अंत में सबसे पीछे उ“mट आया । लिंग– आबंटन का समाचार उसे समय पर नहीं मिला था । उसे दूर रेगिस्तान से चलकर आना पड≥ा था ।
इस बीच लिंग का वितरण हाते, होते उसकी संख्या घटती गयी । एक ही लिंग बचा था । तब उ“mट आया । स्रष्टा ने उ“mट में लिंग अरोपण करने जब लिंग हाथ में लिया तो उ“mट की नजर उस लिंग पर पड≥ी जो उसके हिस्से पड≥ा था । वह क्षुब्ध हो गया । वह लिंग उसके शरीर अनुसार का नहीं था । उसे अपनी देह के अनुपात में लिंग छोटा लगा । वह भड≥का और विना लिंग आरोपण कराए ही भाग चला । ब्रहना भी काम करते, करते थक थकचुके थे । शेष लिंग का आरोपण कर इस काम सेनिवृत्त हो जाना चाहते थे । परंतु उ“mट था कि भागा जा रहा था । भागते हुए उ“mट को पीछे से ब्रहना ने उस लिंग को आरोपित कर दिया ।
अत ः उ“mट का लिंग पीछे की ओर है ।
हिरण की धुर्तता
हिरण की टा“गों में गति है । उसे अपना आकर्षक रुप है । वह मन विचार करता । जंगल में और भी चार टा“गों वाला जीव है । सुअर बहुत भद्धा दीखता है । वह दौड≥ता है । परंतु उसके दा“त नुकी ले होते हैं । जंगल के अन्य जीव उससे भयभीत रहते है । सिंह तो जंगल का राजा राजा ही होता है । सभी जीवों पर उसका आंतक है । बाघ उससे थोड≥ो उन्तीस पड़ता है । वह भी खूँखार ही है । हाथी भारी भरकमं, स्थूल काउ है । भालू की सूरत अनाकर्षक है देह पर रायें है । खूब नहीं दौड़ सकता है । नेंदुआ तेज दौड़ता है परंतु छलाँग लगाता है । अत ः इसकी चाल की अन्य वन्य प्राणी से तुलना नहीं हो सकती । वह समान गतिवाले अन्य वन्य जीवों के विषय में सोचता रहा । उसकी दृष्टि वन–गदहा पर पड़ी । वह दौड़ता है परंतु सुकुमार स्वभाव का है । गदहा बलिष्ठं होता है परंतु दौड़ता तेज नहीं है । वह दुलती झाड़ता है । गाय–बौल–भैंस के चलने में गति नहीं होती । उन के दौउने में निरंतर ता नहीं होती । वह सोच–विचार करता ही था कि तभी उसकी दृष्टि छोड़े पर पड़ी । वह उसके दौड़ने की गति पर विचार करता रहा । उसके दौड़ने के साथ उसकी समानता है । वह दौड़ की बाजी लगा सकता है ।
तभी कहीं से छोड़ा वहाँ आ पहुँचा हिरण को उसे देख प्रसन्नता हुई ।
“कि घर धूमना हो रहा है, भैया ।” हिरणने पूछा छोड़ा हिन हिनाया । वह खड़ा हो रहा । “धूमना ही है । काम–धाम थोड़ा ही हैं ।” घोड़ा बोला ।
“एक बात पूछनी थी । हमें दौड़ना आता है । भैया कोभी दौड़ने की बाजी लगाते ।”हिरण अपने मन की बात कह गया । “ यह तो अच्छी बात है । हम दोनों दौड़ाता है, इस बात का पैmसला कौन करेगा ?” घोड़ा नो कहा ।
हिरण चिंता में डंूब गया । बात असल है कोई पंच तो पैmसला करने वाला होना ही चाहीये ।
“हम दोनों मिलकर एक पंच ढँÞढे ।” घोड़ा बोला दोनों पंच को ढँÞढ़ने निकले । चार टाँगों वाले लगभग सभी प्राणियों पर विचार हिरण पहले की कर लिया था । वे पैmसला करने के काविल नहीं थे । तभी दो टांगों वाला मनुष्य आता दीखा हिरण खुशी से उछला पड़ा ।
“भैया ! चार टाँगवाले कोई भी हमारा पंच नहीं हो सकता अभी सामने में यह दो टाँग वाला मनुष्य आ रहा है । वह हमारा पंच बन सकता है ।” हिरण ने थोड़े से कहा ।
“ ठीक है । हम दोनों ही इस दो पैर वाले मनुष्य को पंच बनकर इस दो पैर बाजी का पैmसला कर देने का आग्रह करें ।” घोड़ा ने सहमति जताई ।
तभी मनुष्य वहा“ँ आ पहुँचा उसके हाथ में एक रस्सी थी ।
उसके हाथ में एक रस्सी थी ।
“भैया मनुष्या हम दोनों की एक बात सुनो ।”
दोनों ने विनय पूर्वक करहा ।
“क्या है ? कोई बात है ?”
मनुष्य रुका वह बोला ।
“हम दोनाें ने दोनों ने दोड़ने की बाजी लगायी है । हम दोनों में कौन अच्छा दौड़ता है, इस बात का पैmसला कर दें ।”दोनों ने कहा ।
”बहुत अच्छा । तुम दोनों ने विश्वाम कर पंच बनने का आग्रह किया बहुत धन्य बाद । लेकिन एक जगह खड़ा रहकर तुम दोनों की चाल का परख कैसे कर सकते है ?” मनुष्य बोला ।
” अच्छी बात आप जैसे चाहें हमारी चाल का परख करें ।” फिर वे बोले ।
”हम पीठ पर बैठेगे । पीठ पर बैठकर ही दौड़नेको गति को जान सकेंगे ।” मनुष्य ने कहा ।
दोनें ने शर्त मान ली ।
मनुष्य पहले हिरण की पीठ पर बैठा । हिरण दौड़ पड़ा दौड़ता रहा । इसकी ऊँचाई कम रहने के कारण उसके पैर धरती पर छुजाते । यह उसे ठीक नहीं जँचा । थाड़ी देर दोड़ लगाकर हिरण अपनी जगह पर आ गया । मनुष्य उसकी पीठ पर से उतरा ।
“तुम्हारे दोड़ने की गति का परख मैने कर लिया । घोड़ा के दौड़ने की गति की जाँच हो जाने कें बाद पैmसला सुनाया जायगा ।” मनुष्यने कहा ।
मनुष्य फिर घोड़े की पीठपर सवार हुआ । घोड़ा जन्म से ही बलिष्ट प्राणी है । उस का दौड़ना मनुष्य को मनोनुकूल लगा । वह दौड़ना शुरु किया तो बहुत देरतक तेज चाल में दौड़ता रहा । मनुष्य उसकी पीठ पर से कभी नहीं उतंरा । मनुष्य आज भी उसकी सवारी करता है ।
गिद्ध
मछली को जल का मेहतर कहना ठीक है । मछली जल–चर है । जल में वास कर जल को शुद्ध रखती है । हम सभी सरोवर, नदी, झील आदि से शुद्ध जल पाते है । उन में स्नान कर स्वस्थ्य रहते हैं । मनुष्य के तन से निकलू गंदा पदार्थ नदी में भसा दिया जाती है । शहरों के कूड़े–कर्कट–कचड़े गदी नालियाँ नदी गिरा दिए जाते है । जल–पंदूषित हो जाता है । सड़े गले शवों, पशु की लाशें नदी किनारे किये गये पैखाने–पेशाब, थूक, ख प्रदूषित होने सेबचाती है ।
जल–प्रलय की कहानी हमारे धर्म गं्रथों में आई है । इशाई के बाइबल में है । जब अति वृष्टि हुई तो संसार ही जलमग्न हो गया । नदी–पहाड़, जंगल सभी कुछ जल में समा गए । संसार में ऐंसा स्थान बचा ही नहीं जहाँ अगम जल राशि नहीं लहराती हो । जंगल से भरे बड़ो ऊँचे पहाड़ भी नहीं बच पाये । संसार से प्राणियों का नामों–निशान मिट गया । उस काल–खंड में सत्पर्षिगण अथाह जल–राशि में ऊग–डूब रहे थे । परम सत्ताने मत्स्य का रुप धारण कर लिया । वह मछली तैरती हुई आई । उसकी पूँछ से नाव बंधी थी । इसतरह उन सत्पर्षियों का उद्धार हुआ था ।
मांस गिद्ध का मक्ष्य है । वह मांसाहारी पंछी है । जी वित रहने के लिये कोई आहार तो चाहिए । अन्य था प्राणियों का जीना दूमर हो जायगा आहार विना के प्राणी की कल्पना नहीं की जा सकती ।
सम्पाती और जटायु त्रेता युगसे ही राम मक्त के रुप में विख्यात रहे है । वैष्णवों का ही क्यों सुद्धदयों के प्रेरणा–श्रोत है ।
गिद्धों की दृष्टि दूर, दूरतक जाती है । उन दूर–दृष्टि अति ही प्रसिद्ध है । तभी तो ऊँचे आसमान मे उड़कर दूर, दूतक देख अपने आहार की खोज करलेते हैं । यथा स्थान रहकर ही सम्पाती ने लंका स्थि अशोक वाटिका में रह रहीं बैदेही की जानकारी भगवान राम को करायी थी ।
उपरो क्तों को फलस्वरुप गिद्ध अब भी मछली से परहेज करता है । भरी के बिच मछली के पैंmक देने पर गिद्ध उसका स्पर्श तक नहीं करता ।
‘ भूल्ला म छली ’
राजा हरिचन्द्र पर आफतआयी । राज–पाट छुट गया । भूख–प्यास के मारे दर–पर भटकना पड≥ा मा“गकर खाने का अभ्यास तो था नही । मा“गने में श्र्म आती थी । भुख–प्यासा ही भटक ते हुए कहा“ से कहा“ चले गए । भुखा¬¬–प्यास प्राणी से प्रबल्न है । प्राणी उनके आगे विवस हो जाता है । उन्हें रहा नहीं गया । निरुपाय होकर एक पेड≥–तले बैठ गए । गुन धुन करते रहे । कम जोरी के कारण चला नहीं जाता था । सामने नदी बह रही थी । मु“ह–हाथ धोने नदी में उतरे । छोटी, छोटी मछलिया“ कूद–फांद करती थीं । मन में विचार कौध गया ।
“इन मछलियों को पका कर खाने से प्राण पलटेंगे ।”
जैसे–तैसे कुछ मछ लियों को पकड≥ा । उन्हें किनारे पर लाकर रखा । उन्हें पकाने के लिए कुछ टहनिया“–सूखे पत्ते चाहिए । उन्होंने इधर–ऊधर ताका ।
नदी के किनारे चीरकर पेंmक गए सूखे दतुवेन दीख पड≥े । उन्होंने बटोरा । दूरकहीं धुआंती आग दीख पड≥ी । जाकर आग लाये । सूखी घास जमा किया । कुछ दतुवनों को नीचे पसारा । थाड≥ी घास रख दिया । उन पर उन मछलियों को तह लगा कर रखा । शेष दतु वन और घाससे उन्हें ढ“क दिया । उन पर आग उन्हें ने रखी सूखी घास जलने लगी । मन्द हवा चल रही थी । आग जल उठी । कुछ देर तक आग जलती रही । जला वन के जलजाने के बाद आग बुझने लगी । आग के डंढ≥ पड≥ने के बाद उन अधपकी मछलियों को निकाल कर भंmाड≥पंूmक कर साफकिया । उन्हें जंगली पत्ता पर रखा ।
हाथ–मु“ह धोने नदी में गए । हाथ में लगे राख को अच्छी तरह साफ किया । कुल्ला करने उपर आये । आ“खें फाड≥, फड≥ कर देखते रह गए । वे मछलिया“ एक, एक कर कूद–पंmाद करती पानी में समा गयी । वे आश्चर्य चकित देखते ही रह गए ।
उसी समय से दतुवन करने वाले दतुवन चीर कर, जीविया करके साफ पानी से धोकर प“mकते हैं । वे ही अधपकी मछलिया“ आजकी ‘भूल्ला’ मछली है ।
साथ, साथ चलने वाली परछं । यी अंधेंरा होने पर साथ छोड≥ देती है ।
चावल से धान
ब््रााहमण अतिथि के सामने सोने की बड≥ी थाल में धी चप,चप बासमती चावल का यथेष्ट भात परोसा था । भिन्न,भिन्न तरह की शीतल, तिक्त रसदार सब्जियों भरे कटोरे बा“यें भाग में सजेथे । किसिम किसिम के साग कटोरों में परोसा गया था । रंग–बिरंगी सब्जियों का भूजिया तश्तरियों में रखकर थाल के पास सजा था । साग–सब्जियों का तला हुआ तरुआ दाहिने भाग में एक छोटे थाल में रख दिया गया था । शीतल, तिक्ष छौंक से युक्त घी से सराबोर राहर की दाल बड≥े कटोरे थाल के दाहिने भाग रखी थी । गाढ≥ा औंटा हुआ लाल रंग का दूध एक बड≥ा बटोरा था । ताजा मलाई दार अच्छी तरह जमा हुआ दही पर्याप्त मात्रा में कटोरा में रखा था । ताजा मलाई एक कटोरा में अलग परोसा गया था । दूध के बने अनेक मिष्ठान्न, खोआ, पेड≥ा, रसभरी, अलग अलग तश्तरियों पर्याप्त रखे थे । बादाम के बेसन के बने रंग–रंग केी मिठाई सजा दी गयी थी । चावल, मखान, सेवई के स्वादिष्ट खीर आधिक मात्रा में ही खाने के लिये दिए गये थे । खीर में मुनका, काजू, काबूली बदाम, पिश्ता, छुहारों के महीन कतरन डाले गये थे । भोजन करायाजा रहा था । बारम्बार आग्रहपूर्वक समाप्त बस्तुओं परोसा जाता था । अतिथिने खा–पीकर पूर्णत ः संतुष्ट होकर पीढ≥ी का परिन्याग किया था ।
भोजनो परांत कसैली के संग हौंगा, इलायची, काजू,छुहारा, सुगंधित पान से अतिथि देव का सम्मान किया गया । राजा ने धोती, जनेऊ, चादर पाग एवम म“ुहमाग दक्षिणा देकर दरबार से विदा किया ।
राजमहल से बाहर निकल ब्राहमण राजपथ से चला । राजपथ के दोनों और खेत ही खेत पैmले थे जिन में फसल लहलहा रही थी । उन खेतों में चावल की फसल लगी थी । आरम्भ में हरीनकेर चावल का खेत लहलहा रहा था । पथिक उमड≥ आये चावलके दानों को देख मुग्ध हो रहा था । दूधिया हरीनकेर चावलका दाना मनमोहक दीखाता था । कुछ देर तक चलने बाद कमलकाठी चावल का खेत अपनी छटा बिखेर रहा था । ब्राहमण चल ही रहा था । तुलसी चूmल चावल के दानाें से निकली गंध नाक में समा गयी । वह ठिठक कर खड≥ा हो रहा । एक तरफ काली कामुर चावल का खेत पसार था तो दूसरी ओर बासमती चावलने अपने यौवन से मनमोहक रुप धारण किया था । उन चावलों से निकाली मिश्रित गंध उसे बसुध किए जा रही थी । वह अपने को रोकने में असमर्क–पाया । लोभ को रखो नहीं सका । सुगंधित चावल को पंmकने लगा । पंmाकता ही चला गया ।
स्रष्टा ब्राहमण्न की करतूत को देख रहा था । वह आश्र्चचकित था । अभी ही रामहल से खा–पीकर पूर्णत ः संतुष्ट बन चला था । फिर यह खाने का लोभ । यह अनसुहात असध्य हो गाया । चावल के उन दानों के उपर स्रष्टाने छिलका डाल दिया । छिलकाडाल कर ऐसे भुक्खरों से भगवान चवाल की रक्षा की इस तरह धान बन गया ।
पानी मे मीन पिआसी
सहदेब खा–पिकर ससूराल चला तो लगभग ग्यारह बज रहे होंगे । आश्विन की धूप । सुरज सोलह कलाओ से सज्जित पूरी प्रचंंडता से अपनी प्रभा धरती पर बिखेर रहाथा । असह्य गर्मी के भय से पवनने भी किसी ब“सबिट्टी में शरणले लिया था । उस पर वह पच्छिम की ओर चल रहा था । उसने आगे पिछेकी ओर देखा । किसी के नहीं आते रहने का आभास पा वह नहर के पूबरिया भाग पर जो रस्ते चलने के काम नहीं आता था, जिस पर मुर्ख किसान ने कूदाल से ताम कर तिल बो दिया था, बैठकर दिसा किया । निश्चिंत से तो नहीं, हड≥बड≥ी में ही शौचकर उठा और पन छोआ कर धोती ठीक करने लगा । पीठ जलानेबाली गरमी तथा जाने की जल्दी ।
हे मरदबा π नीक जगह ही बिगाड≥, ग“ेदा कर दिया..............।’’ कहती हूई अस्सी बरसीया मा“ सरीखा, बृद्धा,विधवा यादिवीनी भौजी अपने वय–क्षय को भूल जवानी अनुभव करती हूई ह“सी–चौल कर गयी तो उसने चौ“क पीछे की ओर देखा । का“ख में पथिया–ह“सिया दबाये दा“तविहीन मु“हपर ह“सी बिखराती आ गयीं ।
उसका मन प्रसन्नतासे भर आया ।
“भौजी । संसारमेंं अब गंदा रहा नहीं ................ वह युग दूसरा था .............दुनिया बदल गयी .......... पुराने समय में गो–भूत्र पान कर लोग कितनी बिमारिया“ भगाते रहे .......... अब अपना मूत्र पिकर रोगको वश में कर सौ बरस की उमर जीते रहे हैं .......... मल पेट के भीत्तर ग“दा नहीं होता .........बाहर आकर मल का काम कर खेतको नया जीवन देता है ......... शहर में उसे गैस में बदल अनेक कामाें को करते है ..............फिर फूहड≥ क्या रहा ।” चलता चलता वह रुका, बोला ।
“त π.........युग ठीक ही बहुत बदल गया ........उस दिन देयादिनी को लाद–पाद कर हरवाह को संग लिये जाते देखा .........शायद........।”
हा“ भौजी । ठीक सममmा ......... उनके अधुरे वावय को पुरा करता उसने कहा .......... अनेक बरस बीत गए । जा नहीं पाये थे ......... नहीं आते–जाते रहने से अपने ही नये जन्मे बच्चे नहीं पहचान पाते हैं .......... देयादनी की भी लालसा थी .......... जारहा हू“ ......... आज ही श्राद्ध है .......... ।”
“बड्ड नीक .......जाईये.......।” घास करने बगल की भेंड≥ पर बैठ रहीं ।
सहदेब आनन्दित होता हुआ नहर पार कर सड≥क पर आया । पच्छिमाभिमूख चलने से हवा लगती नहीं थी । पूरा घमा गया । छाता का कोई उपयोग हो रहा जैसा नहीं लगा फिरभी वह चलता रहा । कमला नहरसे आया पानी बाध को पटा पीले धान को हरा–भरा कर दिया है । जिधर दृष्टि जाती है चौरी हरियरी की चुनरी में मुस्काती लग रही है । बंगठिया पार करने पर उसके पछिम के बाध में नहरका पानी अभीतक नही पहु“चा है जिसके कारण धान उदास, निस्सहाय दीखता है । सड≥क पर विपरीत दिशा से गोद में रखे लगभग सात–आठ महीनों के बच्चे के संग ह“सती बोलती माथे पर दौरा में सर–सनेश,कपड≥ा लिए एक शक्ल सूरत की अच्छी पहिलोठ लड≥की दीखती है । दूर से चलकर अब गा“वके समीप आ गयी जैसी लगती है क्यों कि बिना टेक दिए, संतुलित ढंग से माथे पर दौरा रखे बच्चा के साथ ह“सती–बोलती, बतियाती जल्दी,जल्दी सड≥क डेगती, चल रही है । उस नव युवती–मा“ की प्रसन्नता से वह भी आनन्द अनुभव करता चलता रहा । वह दूध–म“ुहे बच्चेके मु“ह में दूध–पुरित वक्ष लगा चल रही है । प्रचंड गर्मीका न उसके बच्चे पर प्रभाव पड≥ता जैसा लगा न फूत्र्ती से डेगती उस जननी पर । दोनों ही वात्सल्य–सागर की उद्दाम लहर पर फिसलते रहे । सागरपुर के पच्छिम–उत्तर मैंनावत्ती नदी सड≥क पर लबालब निर्मल–जलसे भरी इठलाती दीखती है । सड≥क छोड≥ गा“व के उत्तर पछिम होते ही किनारे के खेत में पियरी लिए रंग–बदल के खेत दीखते हैं । बालु–पांक मिश्रित खेत में कुल्थी की सभी फुनगिया“ राह–भूल भटकरहे बटोहियों को चाहे जिधर जाना हो जाओ, उत्तर यही है की ओर संकेतती वर्तमान किसी कल–करखाना में निर्मित्त मोटे फोम के तोशक सदृश्य फैली थीं जिनके उपर सष्टा ने हरीतिमा की चादर डालदी है ।
“हे बताह π दो–चार कौर खाने दो ......... तब न भैंस अधिक दूध देगी ........... खालिया तो क्या हुआ ........?” सहदेव ने चलते चलते उसे टोक दिया और स्वयं ही मुस्कुरा उठा । वह जबतक रोके लाठी से , भैंस ने लपक कर धान के बीटाें को तबतक मू“ह में समेटलिया । किसी अंठिया को इस तरह मना करते पाकर वह घबड≥ायी तो नहीं मगर उसने दा“तें निपोर दीं । लगभग वह दस–ग्यारह सालकी हागी ।
पच्छिम की ओर चलने से बड≥ी तबाही थी । मध्याहन का सुरज ढलकर नीचे की ओर तेजी से चलता रहा । पसीना बंद होने का नाम नहीं । देर से दूर तक चलते रहने के फल–स्वरूप अबतक धोती–कुर्ता–गंजी मालूम नही पड≥ते कि वह उन्हें सूखा पहन कर घर से चला अथवा भींगा ही । पसीना की बू“दे भौहों से लटककर आंखों में शरण लेती रहीं । सारसर हाट की ओर माथेपर पथिया में सौदा रखे जनिया“ चल रही हैं । पैरों में गति रहने के वावजुद–क्या मजाल कि पथिया माथेपर से जरा भी खिसके ।
“बुढि≥या नहीं मानती ............फेंक कर अलग करना भी पार नहीं लगता .........कुछ किए भी नही बनता...........।” एक ने कहा ।
“सब घर वही लीला......बड आफत........।” दूसरी हू“.....हू“......कर भरना देती चलती रही ।
“अब तो बड≥ा आसान हैंं.........का“टा बाहर निकाल फेंकना.......सहदेवने भा“पलिया । दोनों आपसमें घरकी बोंत करती चल रही हंै.......बुढि≥या है ही.......जहर मिला दीजिये.......खालेंगी.........राम रामकर । गड≥ा लग गया......चल गयीं........काम तमाम......खेल खत्म.......।”
दोनो चौंकती भेंmप गयीं । एक दूसरेको देख खिलखिला पड≥ी ।
वह आगे बढ≥ा चलता रहा । ठेंगहीके पछिम बाध में चल रहा था । उसे याद भी नहीं कि कितने वर्ष बाद उस खुरपेडि≥या से चल रहा है । बाध के पार करने पर गुलरिया गा“व दिखता है । पानी के अभाव में ठेंगही के पच्छिम का पैन पानी विहीन है । इसबार होने वाला संर्व ग्रास सूर्य–ग्रहण अभी से ही अपना प्रभाव लेकर आ रहा है । पैंनमें जन्में हेहरा के सघन बनने से उसे के आकर्षक बना डाला है । अभाव ग्रस्त किसी निर्धन ने कुछ बोझे काट सिरहा–सम्पर्क सड≥क पर सुखने हेतु पैmला कर रखाहै जो बसों–ट्रकों के निरंतर आवत–जावतकी वजह से पिंचता, सुखता कम समयमें ही काम देने लायक बन जाता है । सिरहा–चोहरवा सम्पर्क सड≥क पर एक कम उम्र संतानवती हटवारिनी मु“हपर पर्दाकर बेचनेका सौदा पथिया में रख चल–निकलती है । घर से दूर, बाहर हाट–बजार, रास्ते चलते भी राही–बटोहियों से परदा कर चलना उसे अटपटा लगा । कोई भी सौदा बेचने वाली मु“ह–सौदा खूला नहीं रखे तबतो सौदा बिकने से रहा ? मोल–भाव करने के काल पर्दा हटा बात नहीं करने पर सामान कैसे बिके? आगे चल गा“व गुलरिया के भीतर हो गुजरने वाली सड≥क छोड≥ उसे दक्खिन की चौरी से निकल सारसर हाट के दक्खिन भाग से कमला पार करके जाना पडे≥गा ।
“सारसर हाट का रास्ता.......एक पेडि≥या........कौन होगा ? उसने पूछा ।
एक अधेड≥ उम्र गैवारिनी से जो एक–दो बच्चों के संग विशाल बीजू–आम की छाया में बैठी हैं । अौर गायें–बच्छे–बच्छियो“ जहा“–तहा“ पोखरी म्हार, सड≥क, ब“स–बिट्टी तक में पैंmली चरती हैं । उसे उस खुले शीतल छा“व में बैठ, सुस्ताने का मन नहीं किया । दिन भी लुढ≥कता चल रहा है । गुमस का तेवर यथावत् हैं । “हा““ ........वही ............बायें हाथ वाला रास्ता...........दक्खिन होकर फिर पच्छिम की ओर मरुवआ के बगल से रास्ता चलता है । गैवारिनी कहती है । बच्चे चरवाह । खेलने में ब्यस्त है ।
सिरहा की ओर जानेवाली पुरानी–परम्परा गत जंगल कालीन सड≥क की रुप रेखा मात्र रह गयी है जो काल क्रमेण आस्तित्व को रोते रोते खोती चली जायगी । किसान लोग उसे तोड≥ झटक–ºटक खेंत में समा डालेगे या भैंसें–गायों के चरते रहेने का स्थान भर रहजायगी । पुरानी सड≥के के दोनो ओर बित्ता–भर की चौड≥ाई लिये सुखी ब“सबिट्टी पैmली है । उसी मड≥ताल हुए पछिमी सड≥क के किनारे से कूछ दुर चलने के बाद सीधे पच्छिम की ओर मरुआ–खेत की मेंड से सीधा एकपेडि≥या जाता दृष्टि गोचर,हुआ । पानी बगान हेतु बनाये गए सीमेंट निर्मित्त पुलिया से शाखा नहर को पार कर सारसर की ओर चलता रहा । बाध में कुछ व्यक्तिगण कार्यरत दीख पड≥े । खुर–पेडि≥या से मुड≥ता हुआ सारसर गा“व के बीच से गुजरने वाली सड≥क पार कर लिया है । हाट के समीप कमला छहर पार करता नदी किनार पर पहु“चता है तो नाव नदी पच्छिम के किनार पर दीखती है । देर लगा कर नाव आयगी आभासित हुआ है ।
“कहा“ जाना है ?” एक व्यक्ति ने पूछा ।
“जाना तो सखुआ है..........।” संक्षिप्त उत्तर दिया ।
“तब तक उत्तरबरिया नाव–घाट पहुंच जा सक्ते है ।”
यहां पर नदी पार करने जूता निकालकर पानी में से नावपर सवार–हुआ जा सकेगा अौर दूसरे किनार पर फिर पानी में ही उतरना पड≥ सकता है ।” उस व्यक्ति ने कहा उसने देखा अौर उत्तर के घाट की ओर बढ≥ चला बालुका राशि को दोनो पैरों से नापता, लत–मर्दन करता । सारसर घाट पर पानी में से नाव पर चढ≥ना अौर उतर कर पार करना पड≥ता है.....।” जनका से उसकी जीवन–सगिनी सत्ती को पहु“चा कर वापस आकर पूछने पर बताया था जो अभी उसे याद हो आयी ।
किसान के पा“क–बालू मिश्रित नदी के छाड≥न में जहा“–तहा धान रोप देने से पानी के अभाव में उसका समुचित विकास नहीं हो सका है । दुबारा बाढ≥ आ जाती तो उत्पादन पूर्णतः होने की आशा बन जाती परतु नमी के अभाव ने उसे सुखने की स्थिति में ला दिया है । घाट पर पह“ुचा तो नाव पछिम के किनारे से चल, पार करती दिखायी दी । इस किनार पर करुआर बालु में गहराई तक ध“साकर खड≥ा कर दिया गया है जिसने भाले की तरह आसमान को नोंक पर उठा रखा है । पच्छिम की ओर दूरतक नदी का जल–विहीन पेट पैmलाव लिये है । उस पार दूर, किनारे पर तारका पुराना परिचित पेड≥ खड≥ा, आने–जाने वालों के पथ–प्रदर्शन के काम आता हैं जहा“ से मरान गा“व का लम्बा सिलसिला आरम्भ होता हैं । यही वह बस्ती है जो सदा बरसों से कुख्यात नामका छाप लगाए आजतक पूर्ववत् की स्थिाति में है । उस सीमाहीन सपाट बालुका राशि के विस्तार में तिउरा खढ≥का सधन–वन दूर दूरतक दीख जाता है जिसके बीच वे बदनाम, असमाजिक व्यक्ति शरण लेकर सुरक्षा खोजते हैं । भले लोगों की बरसों की संचित सम्पत्ति पर हाथ–साफ करते आते रहने पर भी घर–दुआर में कोई परिर्वतन आजतक नहीं दीखता है । बरसों तक कुख्यात सोनफिया नाम का अगम गहराई लिए मोइन शनैः शनैः बिलुप्त होता जा रहा है जहा“ उसमें उस खूखार, बदनाम सोनफिया डाकू के शरीर के अंग–प्रत्यंग को उसी निर्ममतासे घड≥से अलग करके बोरेमे बंद कर सागर तलसे मूल की खोज में निकले विशालकाय रोहु–बुआरियों का भोज्य बनने उसी तरह रख दिया गया जिस ह्दृयहीनता से उसने और भले धनिकों का कठोरता से किया होगा । उस मोइन में लगभग तीन बजे अपराहन के ढ≥ेर सारे बच्चे जो उसी समीप के टोले के रहे होगें खुशी मग्न हो चुभक रहेथे ।
“दाइल ददरि ......... मरीच ददरि .......
बाबा पोखरी में भरि मछरी ........
दूसरा गाती
“दाईल दररि .........मरीच दररी ...
भैया पेखरी में भरि मछरी ........। ”
निर्धनता की गांठ लिये उनके गीले वस्त्र,घघरी ,साड≥ी का टुकड≥ा,गमछा तौनी, फटी मैली बचदानी साडि≥या“ आदि जहा“–तहा“ किनार पर धूप में पैmले हैं ।
“पांच रुपये खेवा .......।”
मा¨ी पर बैठा हुआ ही उसने पा“चका एक नोट घासवाहाके हाथमें बढा दिया ।
“कौनसा रास्ता ठीक है ...........?” कई औरोंको जाते देख सहदेव भी सही रास्ता जानने पूछ बैठा ।
“कहा“ जाना है ........ ?”
“सखुआ रामचन्द्रके घर ...........।”
जवाब सुन घटवार कुछ सकपकाया जैसा दीखा ।
“इन्हीं के साथ चलते जाइये ।” कहीं नहीं पूछना पड≥ेगा .........।”
सिरहा–सारसर से सौदाकर लौट रही एक महिला के साथ वह भी चल पड≥ा । रंगीन छीटं पहने पथियामें नमक जैसा कछ वजन वाला सामान रखे, हाथ में प्लास्टिक के जर्किन में मटियातेल लेकर वह चल रही थीं ।
“कहाँ जैतिन्ह ........... ?” चलते चलते साथ चलरही महिला ने उत्सुकता से पूछा ।
“रामचन्द्र के घर । .......... श्राद्ध है ।” “किस टोले में जाना है ?”पूछा ।”
“चौधरी साहबके घरके पास अपना घर है ............ ।”
बरसों बाद इस रास्ते से गुजरने के कारण देखा रास्ता भी अनभुआर हो गया है । भयंकर बाढ≥ने गा“व का नक्शा ही बदल दिया है । कुछ घरोंको छोड≥, अन्य सभी के बाड≥ी–आँगन–घर तक में कमला मैया ने दर्शन दे दिया । भारी भरकम सीसो की लकड≥ी जिसे गाड≥ी पर लांदकर जोराबर बैल भी खीचकर ला पाने में असमर्थ होता, वैसी लकडी भी बड≥ी आसानी से घर तक आ गयी ।
“शिब महतो जी की हाल–खबर .........?”
“गा“व से सारी सम्पत्ति बेच–बिखन कर हाथी–डंडा चलेगए हैं । ......... उन्ही के सहोदर योगी महतो हैं । .......... सम्भले ही हैं ........।”
“यह सखुआ हाट पर चला जाएगा ......?” सड≥क पर आते ही वह महिला अपने आ“गन–घर की ओर दखिन चली गयीं ।
हाट की ओर जानेवाला रास्ता चौधरी साहबके दरबाजेके उत्तर से पच्छिम को जाता है । वह अपना बैग हाथ में लिये, छाता ताने पूर्व–परिचित स्थान का ख्याल करता हुआ चल रहा हैं । इतने सालों पर आने के कारण अधिकांश लोग परिचय देने पर ही चिन्ह पायेंगे ? हाट पहले से बदला हुआ दीख पड≥ा । बाढ≥ अपने आने–जाने के पर्याप्त अवशेष छोड≥ गयी दीखती है । आदरणीय देवान जी के घर में कोई परिवर्तन नहीं दीख पड≥ा ।
“गरम पानी रखने छी टँ“ग धोअक लेल ...........।”पोता अशोक के पछुवार के करेमन की घरवाली सरहजिनी मुस्कुराती अँ“गन से निकल कर आती उसे देख चिहु“क पड≥ी ।
इसी अपनत्व के एक वाक्य के मmंमmा में घर से चलकर आये रास्ते भरका थकान कहा“ न कहा“ उड≥कर पहु“च गया है ।
“गरम पानी कहा“ हाथ मेंं ?.............हाथ खाली ही है ?...............।”
मुस्काता वह दरबाजे पर पहु“चता है । करीमन इस संसार में नहीं हैं । बड≥ा ही हुलबुलिया । भेंट हो जाने पर चुपरहने का नाम नहीं । जबभी वह सुसाराईर लड≥कन्हा जाने के क्रम में घर पर अवश्य ही पहु“चते । दुनिया भरकी बतियाते । खा–पीकर सुसराइर की ओर डेगबढाते । निष्कपट मन करीमन उम्र में काफी बड≥े होकर भी छोटी उमर की रामसत्ती को दीदी कहकर ही सम्बोधन करते रहे हैं । दरबाजेपर पहु“चते ही सबसे छोटा पोता प्रदीपने पैर स्पर्श कर बैग अौर छाता हाथसे ले भीतर रखा । मंझला मोहन आ“गनसे ताजा एक लोटा जल लेकर आगया है । र केवल एक या दोमेहमानों को छोड≥ सभी मेहमान अपरिचित ही दीख पडे≥ । भेंट–घाट नहीं रहनेसे अपने ही बच्चे अनचिन्हार रहते हैं । बरसों बाद वह यहा“ पहु“चा है । इस टोला भर में जहा“ वह उम्र तथा कौटुम्बिक सम्बन्ध में सब से छोटा हुआ करता रहा है अब वह एक एक कर सभी बडाें के उठ जाने से अब की बार आने पर एक–आध को छोड≥ बडे≥ की कोटी में आ पहु“चा है । पैर धोकर निश्चिंत हो बैठा है । अब परिवार में सती की एक भौजाई को छोड≥ सभी घर–धरती छोड≥ चली गयी हंै । वह स्वयं ही सबसे छोटी रही है । सुसराइरमें सबसे बड≥ा रहने से अौर अपने घर–परिवारमें भाइयोंमें सबसे छोटा होने पर सभी जगह निर्बाध प्रवेश मिल जाता है । अन्यथा हर ढं≥ग से बन्चित,घाटा । इसके पहले पोती गीता की शादी में मोहन की कनिया को नहीं बुलाए जाने की बात सत्ती ने पहले बता दिया था । कभी–कभार बाहर–भीतर करते रहने से अनुमान से वह सममm गया है कि मोहन की कनिया अब की बार नहीं बुलाई गयी है । उस बार की शादी मेंवह स्वयं भी नही आया था । इस बीच सम्पन्न किसी काम में वह नही पह“ुच सका । बीजो होने पर सभी सजातीय आए और पंक्तिबद्ध हो बैठते गए । उन लोगों के भोजन कर चले जाने पर सभी मेहमानों को आ“गन के घर में ही भोजन की व्यवस्था की गयी । उस पहली रातको थका होने से खा–पीकर एक अलग चौकी पर सोया । लालटेम मद्धिम कर रखी थी ।
रात में नीन्द के टुटने पर उसने पेशाब कर, फिरसे बिछावन पर लेटकर सोने का उपक्रम किया लेकिन नीन्द हराम । सत्ती की धुआ–काया क्या, छाया तक भी नहीं दीखी । भीड≥भार में काम के बढ≥ जाने से फुर्सत नहीं हो पाती । घर में नाता में सब से बड≥ी होने के कारण सभी सत्ती को अढ≥ाते । तीसरी पहर रातके ढ≥ल जाने पर नीन्द ही नहीं आयी । जगह–छोडके कारण वैसा कभी होता भी है । बैग से साहित्यालोक का“रेणु–स्मृतांक”निकाल पढ≥≥ने में लगा । कुछ देर पढते रहनेपर फरीच होने लगा तो लोटा ले शौच कोउत्तर की ओर निकल गया । सभी नये,छोटे होने के कारण परिचय किसी से भी नहीं । बात किस से हो ? राह पकड कलम बाग की ओर चल पड≥ता । चुपचाप वह आता–जाता ।
नदी का भरण होने से विकासी धानकी फसल अच्छी दीखती है । कलम–बाग तो वही परंतु बढकर बड≥े बन चुके हंै । नये स्थानों पर बा“स तथा सीसो के लगाए जाने से थोड≥ा बदला हुआ जैसा लगता है । इनहीं खेतों में बीस साल पूर्व आठ से दस मनतक प्रति कठठ्र बिलैती तमाकू का उत्पादन होता रहा है लेकिन बैईमान व्यपारियाेंं के कारण किसानाें को काफी आर्थिक घाटा होने से उन्हो ने तम्बाकुका उत्पा दन करना ही छोड≥ दिया ।
हलदी की भरपूर उपज वह देखते हंै । इस शंकर धान के कट जाने पर गेहु की फसल लगाई जायगी । अशोककी बाड≥ी की सीमा बढ≥ी हुई अनुभव सा लगता है । पोता अशोक के आंगान के घराें में कोई बदलाव हुआ जैसा कुछ भी नहीं लगता है । अन्योेंं के घराें मे कोई उल्लेख करने लायक परिवर्तन नहीं हुआ सा लगता है । बाढ≥के सिमट जानेके वावजूद सड≥क पर बने गढे≥ उसका आ कर चले जाने का एहसास अभी भी ताजा बनाता है । जनार्दन के घरके आगोकी कुटी में रहने वाले साधु के ‘प्रणाम’ करने पर अशीर्वाद स्वरूप एकही स्वांस मे अनेकों बार “जय सियाराम ,जय सियाराम ” की धुन तीव्र गति मे आवृत्ति कर इष्टदेब के स्मरण करा देने वाले महात्मा शरीर त्याग इस असार संसार से चलेगये हंै । सदासें कीर्तन कर मनोरण्जन करने वाले लखन धामी नहीं है ।
गांव के बड≥ाें के नहीं रहने से नये लोगों के अपने काम में लगे रहने के परिणाम स्वरुप दालान जो कभी रातके दश–ग्यारह बजे तक चहल–पहल का केन्द्र बनारहता था, । अब सूना–सूना लगता है । सबों के अपने अपने घरों के लिए वर्ग–सघर्ष अनिवार्यतः आवश्यक की समझदारी रखने वाले धकचरे ज्ञान के व्यासायी नेता द्धारा उत्पन्न विददेष नीतिका ही यह भयावह दुष्परिणाम सामाजिक सामन्जस्याका अभवा लक्षित होता है । विरुराव से बने शन्यता के फलस्वरुप उसका समय बीतान पहाड≥आरोहण जैसा अनुभाव होता है । सयाना होने पर भी पारिवारीक सम्बन्धमें तीसरी–पीढी के होने से किस विषय मे किन से क्या बात हो ? पुस्तक–छपाइ का ज्ञान रखने वाले पोता अशोक से इस सम्वन्ध की जानकारी उपयोगी प्रतीत होने लगी ।
“यह बच्ची कौन है ....... ?” पूछने पर अशोक मुस्काता हुआ बताया कि वह उसीकी बड≥ी है ।
“आना–जाना तो बीच में बंद ही सा रहा । तब इन छोटे बच्चों से क्या जान–पहचान रहें ?”
ससुराल में उसे कभी पूज्य ससुर जी के दर्शन करने का सौभाग्य नहीं मिला क्यों कि वैवाहिक बन्धन में स्वयं भी वह उसी अस्वथाका रहा होगा जिस अवस्थाम में किसी को अपनी तौनी तक ठीक ढंग से सम्भाल्ने के ज्ञान का अभाव ही रहता है । संगिनी सत्ती ने ही कभी बातचीत के क्रम में बताया था कि वह अपनी बहिनधीसागर के साथ जो उम्र में उससे लगभग ६ः मास बड≥ रही होंगी धकम्म–धुक्का करके दाद की एक जांघ पर पहले वह बैठ जाती पब वह दूसरी पर बैठने पाती ।
“दलाल † बेटी–नातिन दोनों का व्याह एक साथ रकना होगा । दोनों बड≥ी तेजी से सयानी होती जा रही है“ .......... ।”मध्य प्रदेश के सागर वाले तमाकू महाजन कहा करते ।
“अभी से ही रुपये कमाकर जमा करते चलते हैं ।” दादा कहते– “यहतो कोरपच्छु बेटी है खुवा खर्च कर इलवाईस से इसका ब्याह अच्छे घर–वर ढू“ढ कर करेगे ।” नातिनीको भी व्याह में खूब देंगे........... ।”
सागर के महाजनउस समय स्वयं आ किसानों के उपजाये तम्बाकू को खरीद देख में तयार करा गहिया बनवाकर जयनगर तक पहु“चवाकर अपने घर तक ले जाते और उधर की “मोहिनी” छाप प्रसिद्ध बीड≥ी इस क्षेत्र के बाजार में भेज आर्थिक लाभ कमाकर स्मृद्धशाली बनते । उन्हीं महाजनों से दलाल को कमीशन स्वरुप में पारिश्रमिक मिलता ।
दूसरी रात का काटना उसके लिये दूभर हो गया । दिन मे पुरुष मेहमानों ने खा–पी कर अपने अपने घर की ओर रुख किया ।आज की रात तो दालान खाली है । रात में संग सोने वालों मे वयस्क पोतों के अलाबे और कोई नहीं । दिन भर में उसकी छाया भी नहीं दिखी । मिलते– जुलते–जुलते डिजायनवाली साड≥ी पहने जो एक आध बार दीखी वह तो शायद मोहन की कनिया रही होगीं जो में लम्बाई वैसी ही है जिसने दिसा किये हुए बच्चे को दरबाजे के पाइप पर स˚ाइ के लिए लाया था । इतने लोगो का भीतर–बाहर आवत–जावत हो रहा है पर वह एक बार भी बाहर नहीं आती । हो सकता है भीतर ही किसी काम में व्यस्त रहती हो । पितर –पक्ष के दिन यज्ञ–कर्म समाप्ति के बाद जलभर स्नान कराने के काम की चर्चा घर भीतर चली तो एक मात्र बची सरहजिनी ने जवाब दिया की दीदी के रहते बेटी बापको पानी भर क्यों स्नान करायेगी“ ? कत्र्ता की धोती की बात से बहस हुई होगी । अतः उस दिन कर्म समाप्ति पर सती को दोनों भतिजों को पा इप पर पानी चला स्नान कराते.........देखा । वह झलक तृषाशांत करने के बजाय और भी उसे बेचैन करदेने का कारक बन गयी । अ“ागन में दूर्वँ–अक्षत देते समय भी उसने इधर–उधर नजरें दौडाई तो पोतिय“ा ही सर्वत्र दीखी ।
“कुशलसे रहैछी मेहमान ? सिर नीचा किए अ“ागन के पछबरिया ओसारे पर रखी चौकी पर जबवह जलखै खाने बैठा था कि एक मात्र शेषरहे सरहजिनी, जिन्होंने इसग“ावको त्याग अपने हिस्से पड≥नेवाला धन सब समेट छोटी बेटी के घर समधी के साथ उगती–डुबती रहती हैं, बरसो बाद थालीके समीप आ इस कदर सटकर बैठी कि उसका ध्यान भंग हुए विना नही रहा क्यों कि थाली कौन पोती आगे रखगयी काभी उसे आभास नहीं हो सका ।
“अहा“नीके रहैत छी ?अपने केना रहैत छी ? कहिया अहिठाम अयलहु“ ।“
वह दोनों ही देरतक बतिआते रहे । वह खुद सुनाया कम और सुनतारहा अधिक जिसमें महाभारत का अध्याय अधिक रहा जिसे सुन उसका मन हल्का होने के बदले भारी ही अधिक होता अनुभव किया । जलखै खत्म होते देख सलहजिनी ने किसी पोती से एक बाटी म“गवा कर रख लियाजिससे उसे मु“ह – हाथ धोने बाहर नहीं जाना पड≥ जाय । वह दोनो देर तक
बात करते रहे ।
“ अबतो स्वास्थ्य ठीक रहता है न ?“ रामचन्द्र के आने पर उसने पूछा क्यों कि उसने उसके पूर्व बडी≥ बेचैनी की स्थिति में सिरहा में निजी नर्सिगहेम में उपचार कराते रहने की खबर सुन आकुलता से जिज्ञासा करने पहु“चा था । उस समय पैर स्पर्श करने तक की स्थिति नहीं रह सकने के कारण अभिभूत हो रहा था । पास में बैठी कनिया“ उसे आते देख एक ओर को हो गयी थीं । ह्दृय दुःख से बैवसी में आखों के कोरो में लुढकतेआ“सू को देख उसका अपना भी मन अवसाद से भर गया । और लक्ष्मीपुर बसने वाली पोती वहा“ आकार खडी≥ रहीं जिससे सारी बातो का पता किया । चलते समय उसने उसकी दीदी को पूछने पर उनकी आ“खों से स्वीकृति सूचक संकेत पा दु ःखित मन ही वहा“ से घर लौटा क्यो कि उसकी दीदी सत्ती को अविलम्ब भेज देना था ही । घर पर सखुआ में सबसे छोटी बेटी की मरनासन्न स्थिति में पहु“च चुकी होने के कारण उसका भी उपचार निहायत आवश्यक हो जाने से उस की मा“ कनिया“ का घरपर रहना अति आपश्यक हो चुका था और यह तभी सम्भव होता जब उसकी दीदी सत्ती सेवार्थ अपने घरका काम–धंधा छोड≥ उसके साथ नहीं हो लेती ।अपने लोग तभी अपने जब गाढ≥–विपत्ति में निस्वार्थ सहायक बनते है । उसपर भी सर–बेटा रामचन्द्र उस बात को जीवन पर्यन्त भूल नही सकता कि कैसे दीदी ने बचपन मे सत्ती के भैया और उसके पिता के संसार से मु“ह मोड≥कर चले जाने पर, रोगी मा“ के तन के दूध सूख जानेपर, रोटी भूजा आदि खायी जानेवाली वस्तु स्वयं खा, अच्छी तरह चबा , चबाकर ,गोदी में रखे उसके मु“ह मे उगल,उगलकर, देकर, खिला पिला, पाल–पोसकर बड≥ा किया था ? “हा“ π उन्हे अब भी गड≥बड≥ रहता है । “ रामचन्द्र के लक्ष्मीपुर वाले समधी , तनुकलाल के पिताजी जिन्हे वह एक अभिभावक के रूप में पहले से जानता है, कहा । इसके पहले जब वे वहा“ पहु“चे थे तो खाने के पहले कईबार उन्हें दिसा करने जाना पडा≥ था ।
“पाचन क्रिया के खराब रहने का कारण महज – मामूली है जिसे आसानी से दूर किया जा सकता है । पर्याप्त मात्रा मे पानी पीने से शौच खुलकर होता है । “ किसी हरमोटाह कोइर – कुटुम्बने तुरत उसके कहेका प्रतिवाद कर दिया ।
“मूर्ख सरीखा बात करने से क्या फयदा ? करना हो करें अन्यथा इसमे जोर – जबरदस्ती ही क्या है । “
अबेर होने पर भी वह अपने घरकी ओर खा – पी कर रवाना हो गया । वह स्वय घर दूर होने से सुबह खा – पी कर चलन अच्छा समझ शा“त बन बैठाही रहा । कई साल बाद आनेपर उकताने का मनोभाव उसने प्रकट नही“ किया । अशोक ने रेडियो खोल टेबुल पर रखा । समय सुगमता से बीतता रहा ।
यही कुछ देर पहले तक उपस्थितों के कारण दालान
दरबाजे जीवतता से स्पंदित होते रहे है । अब उन उपस्थितों के नहींरहने से एक बारिगी खाली हो जाने के कारण यही स्थान शून्य के सागर में परिणत हो काट खाने को उद्यत प्रतीत हो रहा है । पासकी एक या दो चौकियों पर नींद के अगम – अथाह समुंदर में सर – बेटा , पोता थका–मांदा सो गए है । जब कि वह घर – छप्पर के कोरों – बंधनों की गिन्ती कर रात बितना अत्यधिक दूभर अनुभव कर रहा है । वह समझ नहींं पा रहा है कि सगिनी समीप होकर भी भूल कैसे गयी है ? काया तो क्या परछायीं भी देख पाना नदारथ । अदभूत विडम्बना है । जब कभी बाड≥ी मे पेशाब करने वह जाता रहा है तो सिर्फ उसकी सूखने के लिए पसार दी गयी साड≥ी
देख करही उसके यहा“ होनेका आभास पाता रहा है । धधकते चूल्हे पर पड≥ी खपड≥ी में भूजे जानेवाले दानोंकी तरह बेचैन बन,चौकी पर केवल करवटें बदल रहा है । किसी लछमन ने आकर कोइ दुर्लध्“य रेखा नही खीची है । उस जैसी अवस्था की घर–आ“गन में और नहीं कोई होकर भी फिर किससे वह बातचीत में डूब उभी हुई है ? अभी जिनसे वह धिरी बैठी है उन लोगों में इतनी
क्षमता वली कोई है भी नहीं कि उनकी बातो का अंत ही नहीं हो रहा हो । तन एक हो जाने पर स्वत ः एक दूसरे की आवजाज दोनों को जाना पहचाना होने की बात क्यों नहीं चरितार्थ हो रही है ?
उस रोज आते समय कमला नदी के बक्ष पर फैले दूर ............. अति दूर तक जहा“ तक दृष्टि– पथ जाता है निरा सफेद दोखरा बालू का अंतहीन सिलसिला नजर पड≥ा । नहरीभरी दूब,न झौआ का वन केवल बालू ......... बालू । उसपर किसी भी प्राणीकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है । उसी तरह का यहा“ आकर उसका भी हृदय कठोर हो गया है । वह भी यह भूल रहा कि आखिर वह इसी कमला के बालू की सदा सर्वदा पालित–पोसित रही है जो वर्तमान में इसकी कोंख में आकर इस जैसी ही बन गयी है । परतु वह ऐसी हमेशा रहीं है ? तो क्या मनुष्य क्षणभर के लिए ही सही अपना अर्जित गुण अथवा जन्म से पाया संस्कार भी भूल जासकता है ? अबतो यहा“ भी उसकी उस समय की कोई भी सरवी–बहिनपा भी नहीं है । कोइ हों भी तो वे यहा“ शायद होंगी भी नहीं । इस गा“व से दूर अन्यत्र होंगी । अगर कोई होती तो अवश्य ही उसके सभीप श्री एक बार आई होती । वह इस तरह नितांत अकेला नहीं छटपटाता । उन देवि यों के बीच वह देवता सा बैठा रंग रभस में लीन रहा होता । यह सब अब सिर्पm कल्पना भर है । वास्तविकता से उसका कोई नाता भी नहीं । वे सब पहले ही ह्ृदयहीन बन, धरती छोड, आ“खें म“ूद चले गए हैं । ....... शेष जो हैं वे सिर्पm सामाजिकता के निर्वाह की सोचते है .......... “बाबाकी बरखारी ........... भैया लेतड≥ बा“टि ............ हम दूर देसिनी हौ बाबा ........ मोटरिया केरआस” । क्या क्या सोचता पलक भू“दे सपनाता ....... जागता, उसका मन करता कि । वह स्थान तो उतना दूर भी नहीं जिस दूरी को पार कर सकना कठिन हो ? जहा“ अभी सती होगी ? अगर वह कुछ भी ऐसा करे तो उपल्बधि कम और सामाजिक उपहास अधिक । वह स्वयं भी यह समझ पा सक्ने में असमर्थ हो रहा है कि एक आध दिन या रात विना संगिनी के निभा क्यों नहीं सकता ? मालूम नहीं अंतर का कोई चोर उसे उसका तो नहीं रहा ? स्वयं पर खीझता रहा । उस नैहर में जहा“ कोई भी आंतरिक भावना के रुपांतर करने वाले नहीं रह गए, मोह क्या ? वह भी यह कभी नहीं भूल सकता कि सालों बाद दूरागमन के समय, विवाहोपरांत जब पहली बार विदागरी कराने आया तो वापसी के दिन साधारण किसीम के धोती–कुर्ता से ही संताष किया था जिसे बाद में उसने कभी भी इस्तेमाल नहीं किया । उस समय सत्ती के भैया स्वयं ही कर्ता–धत्र्ता रहे । मा“ रही । आज ऐसे नितांत निर्जन क्षण में पोखरी म्हार पर के बेलावाले महारजी की ख“जड≥ी हाथ में बहुत संग देती । उस के ताल–सुर पर वह भरे घड≥े सेभड≥ ...ऽ.....ऽ..... भड≥ कर भभक रहे खड≥ज में जब गाउठता एकांत निस्तन्ध रात्रि में ख“जड≥ी का स्वर .......... गमक उठता ।
उसके साथ गा उठता । “पानी में मीन पिआसी संतो हो” । पुतहुएं, पोतिया“ दूर से ही सही अवश्य ही खिलखिलातीं । दा“ते बजातीं । म“ुह खोल ढ≥ेर सी बातें करतीं । अन्यजबकि आकर और दूसरा, तीसरा गा देने केलिये आग्रह करतीं । कितने आश्चर्यित वे होते । इस गुण का भी उसने यहा“ प्रर्दशन इस के पहले तो किया नहीं ? कोई रीझ कर भेष लेने को तैयार हो सकता ? सेवक बन झोरा–भंmटी लेकर पीछे–पीछे, ध्यान खाने, दूर दूर तक साथ देता । सच्चा सिद्धी प्राप्त गोसाई साहब बन जाता । प्रकृत का विधान भी कैसा विचित्र ? नदी के दो किनारे कभी नहीं मिलपाते है । इसी गुन–धुन में उसे विद्ययापति की वह पंक्ति भी सार्थक लगी जिसमें कवि ने प्रेममग्न है, “एक ही पलंग पर कान्हरे मोर लेख दूर देस भान रे ।” इसी तरह गुन–धुन में कर फेरता कब न कब सो गया तो फरीच होने पर ही नीदं टूट पायी । शौचसे निवृत हो कर बैठा तो चाय बनकर आ गयी । पानी पी लेने के बाद उसने चाय की चुस्की ली । जलखै का अग्रह होने पर इसके लिए उसने मना कर दिया । भोजन कर घर ही, चल ने की बात बतायी । अबकी बार टोले में एक ही जाने पहचाने चेहरे देखने को मिला,सबके सब नये ही । नई पीढ≥ी के युवकवृंद जो कभी उसे देखे होते या बहुत पूर्व देखने के कारण भूल गए जैसा ही चेहरे देखने को मिले । सब के सबनय ही । नई पीढी के युवकवृद जो उसे कभी देखे होते या बहुत पूर्व देखने के कारण भूल गए जैसा प्रतीत होते ।
”धोती पइन लीजिये” ............ । पोता अशोक खापीकर चलने के समय विदाई की धोती लेकर आया ।
”पहनी हुई धोती भी नई ही है ।” तुम्हारी दैया आयेंगी तो लेती आयेंगी । .........अभी रखलो ।” उसने कहा ।
”काका भी नहीं पहने । पहन कर जाते तो अच्छा होता ।” अशोक बोला ।
हो सकता है यही धोती अशोक की मा“ कनियां ने मनोज को पहनने दिया हो । एकही जोड≥ा धोती बाप–बेटे दोनों में बिदाई ।उसे यह पसंद नहीं हुआ । अशोक ने धोती को तह लगा बैग कें रख देना चाहा । “बैग के भीतर जगह नहीं है । वजन भी बढ जाएगा । बाद में ही धोती आयगी तो क्या होगा .............. ?”
छाता और बैग लेकर चला तो सबसे छोटा पोता प्रदीप बैग हाथ से लेकर आगे चला । रामचन्द्र और अन्यों ने पैर स्पर्श किया । उसने आशीर्वाद देकर प्रस्थान किया । आ“गनके–म“ुहथर दरबाजे पर सभी पोतिया“ खड≥ीं उसे प्रस्थान करते देखती रहीं ।
जिस रास्ते से वह आते समय आया था उस रस्ते से नहीं चलकर दूसरा रास्ता प्रदीप ले चला । गा“व के हाई स्कुल के बगल से रास्ता गुजरता हुआ मूल सड≥क पर आया ।
“यही सड≥क घाट तक चली जाती है ।” उसने बताया ।
सागरतल की अतल गहराई में यातटपर बने दूर दूर तक पथ–प्रदर्शन कर सकने वाला किसी प्रकाश स्तम्भ की तरह खड≥ा कमला के सपाट दोखरा बालू के वक्ष पर मार्ग से भटक रहे उसके जैसे रही–बटोही को राह दिखाने वाला वही चिर, परिचित एकमात्र तारका गाछ दीखा जिसके नजदीक पीपल के शीतल छा“या में कुख्यात टोलके औरों की संचित सम्पति पर दा“व लगा हाथ मारने हेतु किसी योजना के कार्यान्वयन के लिए गोनरी पर निठल्ला बैठे कुछ शोहदा दीखते हैं । उसके जैसे सफेद पोश को कुछ पूछने का साहस उन लागो में से किसी ने नहीं की । उसे कुछ पूछने की आवश्यकता ही नहींं हुई ।
प्रदीप से अपना बैग लेकर अपनी गति से बालूपर सश्रम पद–चिह्न बनाता घाट की ओर चला । किसानों ने छोटे टुकड≥ों में बना हल से खुड≥खुरा कुल्थी बो दिया था । घाट पर पहु“चा तो पूरब से पच्छिमी किनार पर नाव आते, आते भसियाती बहुत भठ्ठा चली गयी ।
ऐसे तो नाव नहींचलायी जाती ? नाव खेनेको लिये देह मे बल चाहिए । कभी वह भी नाव चला लेता था जब वह उस उम्रका होता हुआ करता था ।
”पेटके बालू मे लग्गा ध“स जाता है ।” वह भेंmपता हुआ बोला ।
उसके जैसे व्यक्ति से यह टिप्पणी सुन थोड≥ा सकुचागया । उस पार जाने वालों में वही अकेला था जिसे उसने इत्नीमान से उस पार करदिया । पैसा भी नहीं मा“गा । वह आपने रास्ते चल पड≥ा । इस गर्मी मे अभी कहा“ से .......... ? अचरन करता एक जान–पहचान के ठेंगही के यादव किसान, अभिभावाक ने पूछ दिया जो और किसानो के संग मिल मैनावती नटी के निर्मल जलसे भूख–प्यास भूल कठोर श्रम कर अपने अपने खेतों को जीवन दान देने में संलग्न थे ।
“सुसराइर से .......... ।” छोटा सा उत्तर सुन हुक्का–बक्का जैसा देखता रहा ।
“कहा“ .................. ?”
“यही कमला पछिम सखुआ ।”
“और बिदाई की धाती .................... ?”
“वहीं रखता चला आया । भारी कौन लाय ? नैहर वाली आयगी तो लेती आयगी ।”
वह अपने रास्ते चल पड≥ा ।
“तुम तो बहुत चतुर हो । एक रोज भैंस से धान चरा लो । दूसरे दिन खाये धान को काट पथिया में भर कर ले जाओ । कोई नहीं है । काट लो थोडा≥ और अधिक ही । भैंस अधिक दूध देगी ।”
उस दिन की भैंस चराने वाली ढे≥ढ≥वा उसकी बात सुन खुब खिटखिटाती रही । आखिर कोइ तो उसे अनुचित करते देखलिया था । वह अपनी गति से चलता ही रहा । उस दिन की अपनी मा“–उम्रकी यादविनी मौजीका उम्रकी सीमा का कोई विचार किए विना निश्चलता से किया गया मजाक उसे रहरहकर स्पंदित करता रहा । वह स्वभावनुसार जहा“ भी मिल जाती हैं कोई न कोई सटीक ह“सी कर हलका हो लेती हैं । पूmनगिया“, पत्ते–बिहीन ठु“ठमें तरुणाई की कोपले पूmटती सी दीख जाती हैं ।
ठीक समय पर घर पह“ुचा तो बच्चे आते न आते लिपट गए ।
“आज पिंटु स्कुल भी नहीं गया ............. ।” विजय ने शिकायत की । मैंया कब आयंगी ........ ? पिंटु बोला ।
“शुक्रबार को आयेंगी ...........।” अरुण बोल पड≥ी । पापाने कहा था ।
वह भी अपने विद्यालय सुबह में चला गया । शुक्ररबार शाम को वापस आया । वह भी वापस आ चुकी थी ।
“एक दिन और रह जाते । धुरिआये पैरघूम जाना ठीक नहीं हुआ ।” “उड≥ीस बहुत काटता था ?” बोल पड≥ी उलाहनादेती ।
“कई दिनों का खटटा दही कौन खाने को रहता ? ...... डा“ड≥ में दर्द करने लगता है । उड≥ीस तो नहीं काटता था । .......... जाड≥ा शुरु होचुका है । ......... गिने हुए कोरों, बंधनों को कितनी रातों तक गिनते रहते ?”
“ऐसा क्या ? दो चार रातें वैसे ही नहीं बिता सकते थे ?”दा“ते दीखाती रहीं ।
“पता नहीं । स्वभावसे लाचार । अकेला होने पर रात काटने लगती है ।”
“चलते समय धोती लपटे लेते ................ ।”
“बेटा धोती पहन नहीं आए । बाप धोती पहन ले ..............।”
“उसे क्या मालूम ? धोती वही रही या दूसरी जोड≥ी भी विदाई के लिए थी .......... ।”
“नहीं † अलग, अलग धोती थी ...........।”
“यह सब बहाना है .......... छोटों के बीच क्या रहना ? साथ बैठने बाली कोइ रही नहीं । अपने भी अलोपित । कहा“ उड≥ती रहीं । पता भी नहीं चला ............... ।”
“वह तो हमेशा बाहर आती रही । स्नान कराते, चुमाउन के समय सामने खड≥ी रही .............. ।”
“भरे आ“गनमें इधर–ऊधर नजर दौड≥ाना कैसा न कैसा लगा .......... ।”
“चलते समय भी वहीं दरवाजे पर उन्ही सबाेंके बीच खड≥ी थी ।
“विदा होते समय उसने सबो को खड≥े देखा । सबके सब समान कद की । उसे तो पता ही नहीं चल सका ......... ।”
वह जोरसे खिलखिला पड≥ी ।
उसने बा“हु पाश में ले लिया ।
“ आज भी रात आयेगी .................।”
पाश मुक्त हो बैल के लिये ओगार देने बाड≥ी की ओर चली गयी ।
बुलबुल
बुलबुल अपने ढं≥ग से चलती है । उसे चल्लने की अपनी गति है । अपना ढ≥ंग है । वह और पंछियों के चलने के ढं≥ग पर गौर करती । औरों के चलने के ढंग से उसका अपना चलन । हीन जैसा लगता ।
लम्बी पू“छ वाला धनस धीसी गति से डे≥ग,डे≥ग चलाकार शिकार पर झपटता तो उसकी बड≥ी प“ूछ उपर–नी चे गति करती धरती का स्पर्श करती बुलबुल सम्मोहित हो उसे निहारती ।
खा रहे बच्यों के आसप्रस बिखरे दानों पर कौवे को मंद गति से चलकर, झपटकर खाते देख वह देखती तो उसका मन आकुल होकर रहजाता । दानो पर फूर्ति से झपटते समय उसकी पू“छ धरती को स्पर्श नही करती ।
खेत–खलिहान में गिरए अनाज पर के दानों को खाने कबुतरों का झुंड उतरता मादाको लुमाने नर काबुतर का धुटरु“ गू“’ का संगीत मधुर कंठ से निकाल कबुतरनी के आगे नचना अपनी सुध–बुध गवां देती । नर कबुतर पांव गतिमान रहते । आकर्षक दृश्य उपस्थि हो जाता ।
नर–भादर मैनाओं की जोड≥ी वाड≥ी–झड≥ी में कीड≥ों–मकड≥ों को खाने जब झपट ती तो पेड≥ की डाल पर बैठी उन्हें निहारती । विचार करती ।
बगुले नदी अथवा तालाव के पानी में शांत, स्थिर चित्र डेग बढ≥ा ,बढ≥ा मछली या शिशु मेंढं≥क का शिकार करने । कदम बढ≥ाते समय गर्दनें आगे–पीछे आकर्षक ढं≥ग से हिलतीं । पानी में चलने रहने पर भी ‘छप,छप’ शब्द का शोर उत्पन्न नहीं होता ।
लम्बी टांग वाला सारस जबभी लम्बा डेग बढ≥ाता तो उसके चलने में बजन जैसा अनुभव होता । बुलबुल उसे वजनदार डंग बढ≥ाते देखती रहती और मन ही मन उसकी चाल की प्रशंस करती ।
प्राच्य–भाषा साहित्य में तो ब्रहमा का संदेश वाहक खञ्जन की चाल तो अति ही प्रसिद्ध है । चलते, चलते त्वरित गति में अचानक दौड≥ पड≥ना उसकी अपनी विशिष्ठता है । चलने की गति में अदभूत लय और गति का सामञ्जस है जिसे निहारकर साहित्यकारों ने उत्कृष्ट काव्यों की रचना की है । खञ्जन क्षिप्रता की सजीव भूत्र्ति है । खलिहान में बिखरे दनों को चुन चुन कर खाते समय उसकी छोटी पंूछ अविराम रुपसे उपर नीचे गति मान रहती है लय–गति युक्त उसकी काव्यमय को निहार कर वह जल–मरती है ।
(Hop) है । चौबे गए घब्बे होने दुब्बे होकर आए ।
रुच और चाल जन्म–संस्कार को फल है ।
लम्बी पू“छ वाला धनस धीसी गति से डे≥ग,डे≥ग चलाकार शिकार पर झपटता तो उसकी बड≥ी प“ूछ उपर–नी चे गति करती धरती का स्पर्श करती बुलबुल सम्मोहित हो उसे निहारती ।
खा रहे बच्यों के आसप्रस बिखरे दानों पर कौवे को मंद गति से चलकर, झपटकर खाते देख वह देखती तो उसका मन आकुल होकर रहजाता । दानो पर फूर्ति से झपटते समय उसकी पू“छ धरती को स्पर्श नही करती ।
खेत–खलिहान में गिरए अनाज पर के दानों को खाने कबुतरों का झुंड उतरता मादाको लुमाने नर काबुतर का धुटरु“ गू“’ का संगीत मधुर कंठ से निकाल कबुतरनी के आगे नचना अपनी सुध–बुध गवां देती । नर कबुतर पांव गतिमान रहते । आकर्षक दृश्य उपस्थि हो जाता ।
नर–भादर मैनाओं की जोड≥ी वाड≥ी–झड≥ी में कीड≥ों–मकड≥ों को खाने जब झपट ती तो पेड≥ की डाल पर बैठी उन्हें निहारती । विचार करती ।
बगुले नदी अथवा तालाव के पानी में शांत, स्थिर चित्र डेग बढ≥ा ,बढ≥ा मछली या शिशु मेंढं≥क का शिकार करने । कदम बढ≥ाते समय गर्दनें आगे–पीछे आकर्षक ढं≥ग से हिलतीं । पानी में चलने रहने पर भी ‘छप,छप’ शब्द का शोर उत्पन्न नहीं होता ।
लम्बी टांग वाला सारस जबभी लम्बा डेग बढ≥ाता तो उसके चलने में बजन जैसा अनुभव होता । बुलबुल उसे वजनदार डंग बढ≥ाते देखती रहती और मन ही मन उसकी चाल की प्रशंस करती ।
प्राच्य–भाषा साहित्य में तो ब्रहमा का संदेश वाहक खञ्जन की चाल तो अति ही प्रसिद्ध है । चलते, चलते त्वरित गति में अचानक दौड≥ पड≥ना उसकी अपनी विशिष्ठता है । चलने की गति में अदभूत लय और गति का सामञ्जस है जिसे निहारकर साहित्यकारों ने उत्कृष्ट काव्यों की रचना की है । खञ्जन क्षिप्रता की सजीव भूत्र्ति है । खलिहान में बिखरे दनों को चुन चुन कर खाते समय उसकी छोटी पंूछ अविराम रुपसे उपर नीचे गति मान रहती है लय–गति युक्त उसकी काव्यमय को निहार कर वह जल–मरती है ।
(Hop) है । चौबे गए घब्बे होने दुब्बे होकर आए ।
रुच और चाल जन्म–संस्कार को फल है ।
ब््रा≈मा का दुत खञ्जन
”जाओ खेजन † मृत–भुवन की हाल–खबर लाकर सुनाओ । संसार के प्रणी सुख से रहते हैं या दुख में रहते हैं ? जाकर देखो । आ“खों देखी तुम सुना ओ ।” बहना ने चिंता कुल स्वर में खंजन को आदेश दिया ।
यह संसार ब्र≈मा की चित फुलवारी हैं । सदैव वे इस मृत–भुवन की जीवात्मा ओं की खोज खबर लेते रहते हैं ।
पंछी सदा से मनुष्य के प्रति संवेदन शील रहा है । कौआ सदा से संदेशवाहक पंछी है । तभी तो विरयापति की नायिका कौए को उसकी चोंच को सोना से भढ≥वा देने का प्रलोभन देती है । तुलसी दास जी की राम की मा“ रानी कौशल्या कौए को उसकी चोंच भड≥वा देने का वचन देती है । रामायण में जटायु भगवना राम की खातिर प्राण न्यो घावर कर देते है । मलिक मुहम्मद जायसी का हीरामन सुग्गा लंका की पदमीनी तक राजा रत्नसेन का संदेश पह“ुचाता है । राजानल का संदेश दमयंती ह“स ह“ुचाता है । कबूतर बाझ तक मनूष्य के आज्ञाकारी रहे है । यदयपि ये सब पाचीन कालीन बाते है ओर आज की पाढ≥ी को यह सब कपोल कल्पित लगे तथा आज भी खञ्जन संदेशवाहक का काम करती है ।
खञ्जन प्रवासी पंछी है । ग्रीष्म के पर्दापण के पूर्व ही धरती के इस भू–खंडको छोड≥ देती है । अन्यत्रप्रवास में यह चली जाती है । जब पावस समाप्त होने को आता है और शरद आरम्भ होता है तो खंजन चारी ओर फुदकने लगती है । खंजन की चाल साहित्य और खास कर काव्य में अति प्रसिद्ध है ।
खंजन मृत–भुवन के लिये चल पड≥ती है । नवरात्र के आरम्भ होते ही वह इस संसार का हाल–चाल जानने धरती पर पह“ुच जाती है ।
यह किसी को नहीं मालूम कि किस दिश से आती है और वापसी में किस दिशा को जाती है । परंतु हर वर्ष निस्चितरुपेण नवरात्र के आरम्भ में आजाती है और फागुन के अंत में वसंत के समाप्त होते न होते वह ब्र≈मा लोक के वापस हो जाती है ।
नवरात्र के प्रारम्भ हो ने तक कृषक भदई फसल काट लेते हैं । उसी समय धान के खेत में दालहन–बो दिए जाते है । भदई संग खाली–खेत में जोतकर–तेलहन–दलहन बाग हैं । माघ–फागुन तक धान की फसल घर हैं । रख लिये जाते हैं । चैत्र तक गेह“ु–जब भी समेट लिये जाते है ।
खंञ्जन सभी फसलों का उत्पादन अपनी आ“खों देख प्रति वेदन आ“खों में रख जाते समय बानगी रुप में सिर्पm ‘जब’ के दो चार दोनाें को चोंच में लेकर ब्र≈मालोक को वापस होती है ।
“देव †मृत–भुवन में दुःख ही दुःख है । प्राणी बहुत संकट में हैं । उन प्राणियों के कल्याण हेतु और अधिक उत्पादन की आवश्यकता हैं । अधिक फसल उन्हें चाहिये ।
खंजन ब≈मा को सूचित करती है । वह बहुत चतुर पंछी है । सिर्पm ‘जव’ के दानों को बानगी स्वरुप ले जाती है ।
यह संसार ब्र≈मा की चित फुलवारी हैं । सदैव वे इस मृत–भुवन की जीवात्मा ओं की खोज खबर लेते रहते हैं ।
पंछी सदा से मनुष्य के प्रति संवेदन शील रहा है । कौआ सदा से संदेशवाहक पंछी है । तभी तो विरयापति की नायिका कौए को उसकी चोंच को सोना से भढ≥वा देने का प्रलोभन देती है । तुलसी दास जी की राम की मा“ रानी कौशल्या कौए को उसकी चोंच भड≥वा देने का वचन देती है । रामायण में जटायु भगवना राम की खातिर प्राण न्यो घावर कर देते है । मलिक मुहम्मद जायसी का हीरामन सुग्गा लंका की पदमीनी तक राजा रत्नसेन का संदेश पह“ुचाता है । राजानल का संदेश दमयंती ह“स ह“ुचाता है । कबूतर बाझ तक मनूष्य के आज्ञाकारी रहे है । यदयपि ये सब पाचीन कालीन बाते है ओर आज की पाढ≥ी को यह सब कपोल कल्पित लगे तथा आज भी खञ्जन संदेशवाहक का काम करती है ।
खञ्जन प्रवासी पंछी है । ग्रीष्म के पर्दापण के पूर्व ही धरती के इस भू–खंडको छोड≥ देती है । अन्यत्रप्रवास में यह चली जाती है । जब पावस समाप्त होने को आता है और शरद आरम्भ होता है तो खंजन चारी ओर फुदकने लगती है । खंजन की चाल साहित्य और खास कर काव्य में अति प्रसिद्ध है ।
खंजन मृत–भुवन के लिये चल पड≥ती है । नवरात्र के आरम्भ होते ही वह इस संसार का हाल–चाल जानने धरती पर पह“ुच जाती है ।
यह किसी को नहीं मालूम कि किस दिश से आती है और वापसी में किस दिशा को जाती है । परंतु हर वर्ष निस्चितरुपेण नवरात्र के आरम्भ में आजाती है और फागुन के अंत में वसंत के समाप्त होते न होते वह ब्र≈मा लोक के वापस हो जाती है ।
नवरात्र के प्रारम्भ हो ने तक कृषक भदई फसल काट लेते हैं । उसी समय धान के खेत में दालहन–बो दिए जाते है । भदई संग खाली–खेत में जोतकर–तेलहन–दलहन बाग हैं । माघ–फागुन तक धान की फसल घर हैं । रख लिये जाते हैं । चैत्र तक गेह“ु–जब भी समेट लिये जाते है ।
खंञ्जन सभी फसलों का उत्पादन अपनी आ“खों देख प्रति वेदन आ“खों में रख जाते समय बानगी रुप में सिर्पm ‘जब’ के दो चार दोनाें को चोंच में लेकर ब्र≈मालोक को वापस होती है ।
“देव †मृत–भुवन में दुःख ही दुःख है । प्राणी बहुत संकट में हैं । उन प्राणियों के कल्याण हेतु और अधिक उत्पादन की आवश्यकता हैं । अधिक फसल उन्हें चाहिये ।
खंजन ब≈मा को सूचित करती है । वह बहुत चतुर पंछी है । सिर्पm ‘जव’ के दानों को बानगी स्वरुप ले जाती है ।
समाप्त
अभाव
“आशा.............आशा..............आशा ..............सतुआ खायगी रे.............”
लाल ने कहा । वह अँगुठे दाबकर गुँड फोड रहा था । सुखकर गुँड हरनैठ गया था । फोडने पर भी नही फुटता था । देख बेटी ...सतुआ गरमी के महिने मे ठंडा होता है ...... आजकल सभी कोई यही खाते हंै । जलखै मैं ......बडी अच्छी है । बेटी ....खालो ...मैंगा हाट से लड्डू लेती आयंगी .......तुम्हें भी दूँगी ......सुमित्रा का नहीं ..... । “उसकी माँ परतार रही थी ” ऊँ .........हुँ ...........नहीं । मैं सतुआ नहीं खाती मैं ....मैं .......भात ही खाऊँगी...........। ” और उदास हो वह उत्तरबरिया ओसारे की ओर टुकुर टुकुर देखने लगी । मँुह फुलाये बैठी थी । उस ओेसारे पर उसका काका दही चूरा खा रहा था । पुरबरिया ओसारे पर कलिया और सीतिया खाती थी ।
“लोग दाल से अधिक भात खाते हैं .......और तुम भात से अधिक दाल ही ........ । ” लाल ने हाथ धोने बाहर जाते हुए कहा ......सुमिंत्रा । बाटी में सतुआ हैं । ले जाओ ................... ।”
आशा भात–दाल लेके खाने लगी ।
उसकी माँ ने मांग कर ला दिया । इस साल बरसाततो हुयी पर लाल का खेत आबाद नहींं हो सका था । वह पूरे अभाव में था ।
“दुर....... रे.......... बुड़बक...........देखो कलिया ...........देखो .........भूपा उगलकर खा रहा है गुँडको ..........।”लाल ने कहा ।
“इंह ..........देखते नहीं ..........मुँह बिचका कर कलिया ने कहा गूडको टुकडा–टुकडा कर रहा हैं .......चूरा के साथ सौनकर खायगा वह........... । ” यह उसकी अवस्था के विकाशका परिणाम था। “सीतिया .......... कितना खायगी........तुझको ये लोग चूरा–दही खाने नही देते..........? ” तब तक बाटी लेकर वह आंगन में चली आयी थी ।
वहीं ओसारे के नीचे एक बच्ची रो रही थी । बेशुमार रोती थी । डेढ़ साल की होगी । उसकी माँ दक्खिन बरिया ओसारे पर जाँता चला रही थी । रोते देख जाँता चलाना बंद कर हत्था को पकडे उसकी ओर व्यथित मनसे देखने लगी । अपनी माँ को अपनी ओर ताकते पाकर वह ओर जोर से रोने लगी । भूखी माँ के सुखे स्तन से बच्ची दुध के बदले रक्त चूसकर भी जब संतुष्ट नही हो सकी तो उस ओसारे के नीचे जाकर रोने लगी जहाँ कलिया और भूपा अन्न को छींट–छींट कर खा रहे थे । कुत्तों और कौऔका भोज हो रहा था ।
प्रभाव संबेदनशील हृदय पर पडता हैं, पन्थर पर नहीं । दोनों का जलखै समाप्त पाय था । भूपा बटीका जलखै खाकर पिता के नजदीक गया जो थाल भर दही–चूरा मँुह नीचा किए खाते चले जा रहे थे । कोई अन्र्तयामी ही जान सकता है कि उन्हे कुछ अनुभव हुआ कि नहीं ? मध्यम बर्गीय संस्कार ही उनके सिरको ऊपर उठने नही देता था । बेहुदा.......कितना खाता हैं .........कहते हुए उसकी बाटी में चूरा–दही थम्ह से दो मुठ्ठी गिरा दिया ।
भूपा और सीतिया दोनों ही बेठकर आंगन मे अब खा रहे थे । लाल दोनों को छेड रहा था । छ्ेड़ने मे आनन्द निहित होता हैं ।
तू भगबे कि नै .......... । “उसकी माँ जाता के नजदीक से ही जोर से डाँटती हुई बोली । उस बच्ची को क्या पता कि ये छिट–छिट कर खाने वाले बच्चे उसके अपने कोई नहीं । उन दोनों को भी क्यों सूझता कि कुछ उस रोती बच्ची को भी दे दें । आशा भी निहार लेती कभी थी कभी उनकी ओर ।“देखिये भौजी ! ........ छांैड़ी चिचिआती हैं .....उसे जो दोनों नहीं देते खाने की....... ।” आशा की माँ की ओर देखकर बोली वह ।उठ कर गई और बच्ची को ले आई । वह खुद भी सतुवा ही पीस रही थी पर दे तो कैसे ? उसका अपना था नहीं । बिना मांगे दे देती तो सात पुरखे का उद्धार करवाती । आगे भी रोजी पर आफत, अविश्वास । अकाल की दीवाल बाधक बनी थी उसके और उसके घरबाले के बीच जिसने उसे बाध्य किया ससुराल छोड देनेको । नैहर में आकर कुटाउन–पिसाउन कर जीवन चलायें जा रही थी ।
बच्ची जब गोद में आई तो शांत हुयी । जा कर । सरयुग से थोड़ा सतुआ मंगा दो ....... । आशा की माँ ने कहा । सौना हुआ सतुआ और नुन मंगा दिया जिसे लेकर वह खाने लगी ।
“सीतियाको भी थोडा दो न भूपा .........वह तुम्हारी छोटी बहिन है ........ससुरा में खुब तरुवा तरकारी खानेकोदेगी ....... लाल कहता .........सीतिया कहो न .........तरुवा खानेको नहीं दूँगीं .......।”
“तौआ खाने नहीं दूंगी ......।” “सीतिया ने तुतलाकर कहा । बाटी लेकर वंहा खड़ी थी । उसकी बाटीका सतुआ समाप्त था । बाटी आगे ले गई तो पिता ने कुत्ताके लिये बचाकर रखा दही–चूरा उसकी बाटी में रख हाथ धोने चला गया। सीतिया भूपा के लग बैठ गई और खाने लगी ।
“रे भूपा ...........यहाँ तो पेट खाली है ........ ।” लाल ने खड़े–खड़े पैर के अंगूठे से उसके पेट को छुते हुए कहा ।
“ठहर न.........आरों खाइत छी ............ । ” पानी पीने लगा कह कर । मँुहका फाजिल पानी छाती और पेट से टघरकर धरती पर आ रहा था ।
“ दो न भुपा ........... सीतिया को दही–चुरा ........सीतिया की माँ को सुनाकर कहा ........छौंड़ी दही–चुरा नहीं खाती क्या.............?”
एक बौकटा दही–चूरा उसकी बाटी में थम्ह से गिरा दिया । फिर बाटी लेकर चला हाथ धोेने । “अब कितना खाती हो सीतिया.............. ? ” कहा नहीं कि थम्ह से मुँह का दही–चूरा बाटी में उगल दिया । और लगी पानी पीने । अब भी हाथ से बाटी थाम्हे थी ।
”आब नै खो सीतिया” ..........।” लाल ने फिर कहा । अब बाटी को छोड़ घटाघट पानी पीने लगी ।
”अैौर खाले ............। ”
फिर वह खानेका उपकम करने लगी ।
”अब नही खाओ ........ । ”
फिर वह खानेका उपकम करने लगी ।
”अब नही खाओ ........ । ”
बाटी छोड ,वह लोटकी ले दाहिने हाथ में ,टहलने लगी । उसका पेट अफरने लगा ।
लाल ने भी बाटी उठाने में संकोच अनुभव किया । वह उठा न सका ।
”दे आओ उसे ...........? ” बच्ची ओर दिखाकर लाल ने कहा ।
सीतिया दोनों हाथों से बाटी उठा, उसे लेकर टुघर–टुघर कर चलने लगी । थरथराती हुई चल रही थी ।
“लो ........खालो ........ । ” बैठे ही बैठे बोला लाल आंगन से बच्ची डर के मारे चिपकती जा रही थी माँ से ।
“ले .....लो दैया .......। ” उसकी माँ ने कहा ।
तब बच्ची ने हाथ से पकड़ा पर कटोरा हाथ से छूट नीचे गिर गया । कटोरा एक ओर, दही–चुरा एक ओर गिरा ।
सीतिया के चलने के साथ कुत्ता भी जा रहा था । जब तक हाँ........हाँ......... करें तब तक दही–चुरा उसके पेट में समा गया ।
दाने–दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम । आशा भी संतुष्टि से भात–दाल खा गई थी । अभाव से उत्पन्न संतोष से उसने अभाव का प्रतीकार किया ।
लाल ने कहा । वह अँगुठे दाबकर गुँड फोड रहा था । सुखकर गुँड हरनैठ गया था । फोडने पर भी नही फुटता था । देख बेटी ...सतुआ गरमी के महिने मे ठंडा होता है ...... आजकल सभी कोई यही खाते हंै । जलखै मैं ......बडी अच्छी है । बेटी ....खालो ...मैंगा हाट से लड्डू लेती आयंगी .......तुम्हें भी दूँगी ......सुमित्रा का नहीं ..... । “उसकी माँ परतार रही थी ” ऊँ .........हुँ ...........नहीं । मैं सतुआ नहीं खाती मैं ....मैं .......भात ही खाऊँगी...........। ” और उदास हो वह उत्तरबरिया ओसारे की ओर टुकुर टुकुर देखने लगी । मँुह फुलाये बैठी थी । उस ओेसारे पर उसका काका दही चूरा खा रहा था । पुरबरिया ओसारे पर कलिया और सीतिया खाती थी ।
“लोग दाल से अधिक भात खाते हैं .......और तुम भात से अधिक दाल ही ........ । ” लाल ने हाथ धोने बाहर जाते हुए कहा ......सुमिंत्रा । बाटी में सतुआ हैं । ले जाओ ................... ।”
आशा भात–दाल लेके खाने लगी ।
उसकी माँ ने मांग कर ला दिया । इस साल बरसाततो हुयी पर लाल का खेत आबाद नहींं हो सका था । वह पूरे अभाव में था ।
“दुर....... रे.......... बुड़बक...........देखो कलिया ...........देखो .........भूपा उगलकर खा रहा है गुँडको ..........।”लाल ने कहा ।
“इंह ..........देखते नहीं ..........मुँह बिचका कर कलिया ने कहा गूडको टुकडा–टुकडा कर रहा हैं .......चूरा के साथ सौनकर खायगा वह........... । ” यह उसकी अवस्था के विकाशका परिणाम था। “सीतिया .......... कितना खायगी........तुझको ये लोग चूरा–दही खाने नही देते..........? ” तब तक बाटी लेकर वह आंगन में चली आयी थी ।
वहीं ओसारे के नीचे एक बच्ची रो रही थी । बेशुमार रोती थी । डेढ़ साल की होगी । उसकी माँ दक्खिन बरिया ओसारे पर जाँता चला रही थी । रोते देख जाँता चलाना बंद कर हत्था को पकडे उसकी ओर व्यथित मनसे देखने लगी । अपनी माँ को अपनी ओर ताकते पाकर वह ओर जोर से रोने लगी । भूखी माँ के सुखे स्तन से बच्ची दुध के बदले रक्त चूसकर भी जब संतुष्ट नही हो सकी तो उस ओसारे के नीचे जाकर रोने लगी जहाँ कलिया और भूपा अन्न को छींट–छींट कर खा रहे थे । कुत्तों और कौऔका भोज हो रहा था ।
प्रभाव संबेदनशील हृदय पर पडता हैं, पन्थर पर नहीं । दोनों का जलखै समाप्त पाय था । भूपा बटीका जलखै खाकर पिता के नजदीक गया जो थाल भर दही–चूरा मँुह नीचा किए खाते चले जा रहे थे । कोई अन्र्तयामी ही जान सकता है कि उन्हे कुछ अनुभव हुआ कि नहीं ? मध्यम बर्गीय संस्कार ही उनके सिरको ऊपर उठने नही देता था । बेहुदा.......कितना खाता हैं .........कहते हुए उसकी बाटी में चूरा–दही थम्ह से दो मुठ्ठी गिरा दिया ।
भूपा और सीतिया दोनों ही बेठकर आंगन मे अब खा रहे थे । लाल दोनों को छेड रहा था । छ्ेड़ने मे आनन्द निहित होता हैं ।
तू भगबे कि नै .......... । “उसकी माँ जाता के नजदीक से ही जोर से डाँटती हुई बोली । उस बच्ची को क्या पता कि ये छिट–छिट कर खाने वाले बच्चे उसके अपने कोई नहीं । उन दोनों को भी क्यों सूझता कि कुछ उस रोती बच्ची को भी दे दें । आशा भी निहार लेती कभी थी कभी उनकी ओर ।“देखिये भौजी ! ........ छांैड़ी चिचिआती हैं .....उसे जो दोनों नहीं देते खाने की....... ।” आशा की माँ की ओर देखकर बोली वह ।उठ कर गई और बच्ची को ले आई । वह खुद भी सतुवा ही पीस रही थी पर दे तो कैसे ? उसका अपना था नहीं । बिना मांगे दे देती तो सात पुरखे का उद्धार करवाती । आगे भी रोजी पर आफत, अविश्वास । अकाल की दीवाल बाधक बनी थी उसके और उसके घरबाले के बीच जिसने उसे बाध्य किया ससुराल छोड देनेको । नैहर में आकर कुटाउन–पिसाउन कर जीवन चलायें जा रही थी ।
बच्ची जब गोद में आई तो शांत हुयी । जा कर । सरयुग से थोड़ा सतुआ मंगा दो ....... । आशा की माँ ने कहा । सौना हुआ सतुआ और नुन मंगा दिया जिसे लेकर वह खाने लगी ।
“सीतियाको भी थोडा दो न भूपा .........वह तुम्हारी छोटी बहिन है ........ससुरा में खुब तरुवा तरकारी खानेकोदेगी ....... लाल कहता .........सीतिया कहो न .........तरुवा खानेको नहीं दूँगीं .......।”
“तौआ खाने नहीं दूंगी ......।” “सीतिया ने तुतलाकर कहा । बाटी लेकर वंहा खड़ी थी । उसकी बाटीका सतुआ समाप्त था । बाटी आगे ले गई तो पिता ने कुत्ताके लिये बचाकर रखा दही–चूरा उसकी बाटी में रख हाथ धोने चला गया। सीतिया भूपा के लग बैठ गई और खाने लगी ।
“रे भूपा ...........यहाँ तो पेट खाली है ........ ।” लाल ने खड़े–खड़े पैर के अंगूठे से उसके पेट को छुते हुए कहा ।
“ठहर न.........आरों खाइत छी ............ । ” पानी पीने लगा कह कर । मँुहका फाजिल पानी छाती और पेट से टघरकर धरती पर आ रहा था ।
“ दो न भुपा ........... सीतिया को दही–चुरा ........सीतिया की माँ को सुनाकर कहा ........छौंड़ी दही–चुरा नहीं खाती क्या.............?”
एक बौकटा दही–चूरा उसकी बाटी में थम्ह से गिरा दिया । फिर बाटी लेकर चला हाथ धोेने । “अब कितना खाती हो सीतिया.............. ? ” कहा नहीं कि थम्ह से मुँह का दही–चूरा बाटी में उगल दिया । और लगी पानी पीने । अब भी हाथ से बाटी थाम्हे थी ।
”आब नै खो सीतिया” ..........।” लाल ने फिर कहा । अब बाटी को छोड़ घटाघट पानी पीने लगी ।
”अैौर खाले ............। ”
फिर वह खानेका उपकम करने लगी ।
”अब नही खाओ ........ । ”
फिर वह खानेका उपकम करने लगी ।
”अब नही खाओ ........ । ”
बाटी छोड ,वह लोटकी ले दाहिने हाथ में ,टहलने लगी । उसका पेट अफरने लगा ।
लाल ने भी बाटी उठाने में संकोच अनुभव किया । वह उठा न सका ।
”दे आओ उसे ...........? ” बच्ची ओर दिखाकर लाल ने कहा ।
सीतिया दोनों हाथों से बाटी उठा, उसे लेकर टुघर–टुघर कर चलने लगी । थरथराती हुई चल रही थी ।
“लो ........खालो ........ । ” बैठे ही बैठे बोला लाल आंगन से बच्ची डर के मारे चिपकती जा रही थी माँ से ।
“ले .....लो दैया .......। ” उसकी माँ ने कहा ।
तब बच्ची ने हाथ से पकड़ा पर कटोरा हाथ से छूट नीचे गिर गया । कटोरा एक ओर, दही–चुरा एक ओर गिरा ।
सीतिया के चलने के साथ कुत्ता भी जा रहा था । जब तक हाँ........हाँ......... करें तब तक दही–चुरा उसके पेट में समा गया ।
दाने–दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम । आशा भी संतुष्टि से भात–दाल खा गई थी । अभाव से उत्पन्न संतोष से उसने अभाव का प्रतीकार किया ।