परदेस पिया की आस नहीं
पोखरे का यज्ञ खत्म हुआ तभी मे देवी जी का रंग कुरंग सरीखा लगा । गला मुंह फुलाए रहती । बोलती कम ।
मैं लहान से लैटकर आया था । सात कोस पैदल चलना पड≥ा था । ठोर पर पपड≥ी उड≥ रही थी । आंखो धंसी थी । चेहरे से स्वभाविक सुन्दरता गायब । देवी जी तेवर चढ आया । जल गयींं । मन सोत कर रह गयी । मुझे समझते देर नहीं लगी । तभी चली गयीं पित्त मतोत करा मैं नहा आया । अलगनी पर धोती पसार रहा था । कुल कुल क्यों कुम्तलाया हुआ है ”
मुंह फुलाये दुध ही बैठी ।
“डब्बल डोज चला गया ....................... । ”
मुन्बाले हुर र्मैने ब्हा । मेरी मुन्राहट मै देवी जी को शरारत दिखायी पड≥ी । डब्बल डोज का नाम तुनते ही तलबे की लहर बगज घर चली गयी । र्मैत्काता रहा । वह बलती भुनती रहीं । उनके चेहरे पर के बनते – मिटते भाबौ दोपैद्धता रहा । उनके तंशय का तmुहाता और भी शना होता गया ।
यज्ञ की रात बार्र्तै हुयी । देवी जी भी वहा“ थी । घर उन्है आवश्यक काम त कभी कभी वाहर जाना पडता । उत रात वह वहुत थकी ती थी । वहुत देरतक बात होते रहीं । हन तर्बो की अब भोजी के इलाके मैं आ गयी थी वड गांव की हीं ।
अत ः उसके परित्र ते तभी कोई वाकिफ र्थै ।
उसका घरबाला दुतरा व्याह कर लिया था उसके तिन बच्चे थै । सबके सब हुवत के चिराग हो गये । अब बह केबल जान लेकर ही नैहर मैं रहती थी । स“गी घर को त“गी कर दिया था ईसीलिये हामारे पट्रटी मै ही कुटाउन– पिसाउन कर पेट भरती । हम सबौ की एक बात ध्यान मै आयी । लाहन बाले भाई को कोई संतान नही है । उन्हें व्याही है घर उससे संतान सुख की प्राप्तिा नहीं हुई । माई भी रहते हैरान मै कि कोई संतान हो ।ईसके पहले भाई ने एक अौर ब्याह किया पर वतने के पहले ही उतने किसी अन्य के साथ तम्बन्ध बना लिया ।
अब वे तीसरा ब्याह करने को लक लगाये बैठे था । हम सब भी चाहते थे कि उन्हें कोई संतान हो । व्याही से संतान होनेवाला नहीं हुआ तो व्याह के पक्ष में हम सभी थे । नाटक रचा गया । एक रात को भाई चुपके आये । इस भावी दुलहन को वरण–हरण कर ते गये । पोखरे के यज्ञ में भाई का भी न्यौता गया । जवार–मान्यजन को भोज देने के बाद इसे सामाजिक मान्यता मिल गयी । इसलिये भाई –भौजी दोने एक ही बैलगाड≥ी पर चढकर आये । गाड≥ी–पर लाल एक रंगा का ओहार और भाई बहलमान । इस नाटक को समाप्त हुए छः महीनों से उपर हो गये थे । सभी को आशा थी । लई भौजी अवश्य ही नया तनेरा लेकर आयनी पर मु“स न मु“स की नंगड≥ी ।
“कोई खिलौना नहीं ............... ।” अचानक मैने उसके पेट को टोकर कहा । .............कोई सनेश नहीं ।
ऐसे मजाक की उसे कोई आथा नहीं थी । शरम के मारे मङूू गयी । लाजे कठौत हो गई ।
”हमारा इसमें क्या दोष ” लाज से सिमटते हुयी बोली ............ ।”
देवी जी भी इस नाटक को निहार कर हंस पड≥ ि। पर दूसरे ही क्षण मन का भाव बदल गया । डीविया के इंजोत में यह मुझसे छिपा नहीं रहा” तब कोई आशा नहीं ..................”
“अपने कोई कैसे गढ सकती है ................ ।”माथे की साड≥ी की जरा और लम्या करती हुयी बोली ।
“बहुत उपाय हो सकते है .......... अगर इच्छा हो ................मैने कहा .......... किसी के समाने का मतलब ही यही .............“आप ही बताइये न .............”प्रश्नात्मक नजरों से मैरी और देखती हुयी बोली ..................... ।
“राह बताते आगे चल” बाली बात हो गयी ।
“पुराने जमाने में जिस पुरुष से गर्भाधान नहीं होता था उसकी स्त्री अपने –पति–आज्ञा से पर पुरुष से गर्भाधान करा लेती थी ............ यह शात्र–सम्मत है ................ । ”
“हम कहा“ खोजने जाय ...............।” पलक–उठाकर देखती हुयी बोली ............ ।”
“खोजने क्या नहीं मिलता .............. दुनिया बहुत बड≥ी है ................. । ”
इतनी देर तक की बातचीत में देवी जी अनुपस्थित रहीं । इसी बात की काना–पंmुसी हो गयी । काना–पंmुसी भाई के कानों तक भी पहू“ची । बस ब“द–धावा की तरह विस्तार होती गयी । सारा टोल सुरीखा गन्हा गया । पर मुझे कोई खबर नहीं ।
इसी बीच लहान बाले ने एक पत्र भेजा पिऊसा आये । लहान की कचहरी में एक मुकदमा चलता था मेरे विना काम नहीं चलता । उन्हें परेशान होना पड≥ता । मुझे उनके साथ जाना पड≥ा । देवी जी से वहा“ जाने की बाद मैने कहीं । वह जी मतोस कर रह गयी । समझा उसने कि गंगा स्नान अवश्य होगा ।
”हन.......हन........पट......पट...... मत की जिये ......... मैंने कहा पिउसा साथ ही रहेगैं ..............विश्वास रखिये .............. ।”
”मैं सब समझती हू“ ............।” कह कर जुन्ना होता हुयी चली गयी ।
सा“झ मैं लहान पहू“चा । कटहल और आम के रमुट मैं छिपा लहान । श्री–हीन सूरज के पीले प्रकाश में बाजार का बगल–पंंखी मकान हरे–पत्तों के बीच से जगमगा रहा था दूर से ही । भाई के ही धर ठहरा । अन्त्र कहा“ जाना । देखा कर आश्चर्य लगा । तभी भाई नहीं थे । भौजी माथ से साड≥ी खिसकाये पीठ उधारे देंकी से चाक्ल फटक रहीं थी सड≥क पर से वैसी ही खुली दिखायी पड≥ती थी । नैहर की अलहड≥पन हब भी नहीं गया था ।
“चलते चलते देह टकुआ सदृशय बन गई है .............कहा मैने .............।” बोली सुनते ही चौंक पड≥ी ।
“कोई बात नहीं .............. तेल से खूब सेवा कर दू“गी .......... । डा“ड पर धौला दहिने हाथ में डोल से इनार पर चली गयी ।
“अब दुहरी की दुध खुट आयी ............. कहा उसने धौला धरी में धड≥ा रखाती .............धूमकर एक बार भी ...........................।”
“रहने दीजिये ...........मैने कहा ............भाई कुशल तो है न ।
पूरब और पच्छिम से दो धार । एक हन्ना दक्षिण से । दक्खिन बरिया हन्ना का सोकवा लड खाड≥ाया हुआ था । उसी मैं पूरव से दो बैल बंधते उससे पच्छिम देंखी । बगल में ही रखी हुयी चौकी । झुर–मुट में छिपा घर । बेहद गुफ । हवा बंद । चौकी पर पिउसा का आसन जमा । मैं पछबारिया ओसारे पर लेटा । उड≥ीत दल–बल लेकर आ पह“ुचा । रात भर उसी की सुसता रहा । भाई पुबरिया ओसरे पर और भौजी भीतर उसी घर में । भाई की अतीत को बिसरे थी ।
दिन में नहा कर खाया । तरुआ और तरकारी । तरकारी में मिरचाई का ही अधिक्या वातावरण में उमस । भीतर में भी खुमारी रात का जागरण । पटिया पर लेटा तो नीन्द आ गयी । उसे बरसना था ही । कल्पना के पंखा लगा देवी जी भी आ धमकींंंं । बादल तत्काल ही बरस पड≥ा ।
तीन–चार दिन लगे । मिरचाई की ही तरकारी बनती । तरकारी नहीं, आग खाते । आग कैसे पचाते । फिर दूसरी भी देवी जी आ धमकी । नीन्द टुटी तो संयम का बांंध उफन कर बह रहा था ।शरीर–सर का नया रास्ते की थकान चेहरे की रुखी रºुºुचक्कर ।
“कोइ गंगा छोड≥ गु“हडबरा में कैसे नहायग ................. ।”
मुस्काते हुए मैंने कहा । सारी बाते अपराधी की तरह खोलकर कहनी पड≥ी ।” परदेस गयें .................पर चटट भये ............... परदेस पिया की आत नहीं ..............।” कह भभाके हंस पड≥ी । मै विस्मय बिमुग्ध हौ निहारता रहा । मनोज बाहर रौ रहा था, चुप करने चली गयी ।
खोदा पहाड तो निकली चुहिया
जोखन जब साइकिल पर प्लाष्टिकका दश लिटर बाला जरकिन लेकर घरसे निकला तो वह मिक्षक रहा था । उसे लज्जाका अनुभव हो रहा था । कई दिन पहले से ही लोग तेलके जुगाड. में लग गये थे। वह तो पिछा पड चुका था ।तब भी कहीं अगर उसे दश लिटर तेल मिल जाय तो कुछ दिनों कें लिये निश्चित हुआ जा सकता था । पवित्र गंगाजल की आवश्यकता र्कम,यज्ञ तथा किसी पावन अनुष्ठान कें अवसर पर ही होती हैं । परंतु इस मटितेलकी हर दिन होती रहती है ।जब से पोती š पोतों से घर भडा है । तेलका खर्च अत्य अधिक बढ चला है ।शाम से सोनेके समय तक तो कई डिवियों एवं लालटेन से काम होता है । परंत
बच्चों सो जाने के बाद भी भर रात लालटेन जलती रखी जाती हैं । अभी बाजार में तेल मिल जाता हैं । प्रशासन सें भी कुपन कटाकर तेल मिल जाता हैं । तेल ही तो हैं कोई व्यबस्था होही जायेगी । झिझकते मन से ही वह जर्किन लेकर घर से चला । कई दिनो सें वह देख रहा था लोगों को खाली बर्तनों लेकर बाजार जाते ।
यह तेल बीसबीं शताव्दी के अंतिम दशाव्दीका अत्यंत महत्वपूर्ण जीवनšसामग्री के रुपमें समझा जाता हैं । निर्धन तो निर्धन ,बडे बडे धन्ना सेठ भी अधिकतम मात्रा में इसे भंडारण कर निश्चित हो जाना चाहते है । वर्तमान सताव्दीका महाशक्ति अमेरिका सबसे अधिक ललायित है , तेलšपेटञोल के भंडारण के लिये । ललायित माही नही ,पेटञोलियम उत्पादनके श्रोत स्थल पर ही सात समुद्र पार कर वर्चस्व कायम करलेनेका षडयंत्र रचता हैं ।पडोसी यूरोपियनों की सहायता लेकर तेल की कुओं पर निर्भिकता एवं निल्र्लजता से खतरनाक चिनगारियों का खेल शुरु कर दिया है । विज्ञान प्रदत्त रेडियोके फलस्वरुप आम जनता भी इस बात से अवगत है कि इस खतरनाक खेलका अंत कहा होगा ? सभी खाली बर्तनों को लेकर पैदल ,साईकिल अथवा अन्य साधनों से भी तेल लाकर कुछ समय के लिये चितांšमुक्त हो जाने को प्रयत्नशील है ।
प्रशासन नें छः सय लिटर तेल उपलव्ध कराकर विधालय परिवार को भी सुविधा प्रदान की थी । उसी तेलको छात्रों एवं सहकर्मियों के विच थोडा थोडा बाँटकर सहुलियत प्रदान की गयी । ूयह छोटा सा बत्र्तन भी अगर घर खाली जायगा तो हम दोनों की ही हँसी होगी । ूउसने हँसते हुए भुवन बाबू से कहा था । ूये बाँटमे बाले भी कैसे जो इस छोटे बत्र्तनको भी नही भर सकें ?और कोई नहीं तो बुढिया तो कहेगी ही कि इतनी दूर से भी बत्र्तन खाली ही वापस लाये ? कम से कम पाँच लिटर भी नही हो सका ।ूवे सिर्फ मुस्कुरा करही रह गए ।बोले कुछ भी नही । ऐसा नही की भुवन बाबू की मजवुरीको वह नही समझता हो । वह तो हर परिस्थिति में हर किसी की लाचारीको समझता आया है । भले दुसरा कोई उसकी मजबुरीबको नही समझे। ईस नाजुक परिस्थिति में तेल जैसी चिज के बाँटने में थोडा भी उपर šनिचा हुआ नहीं कि भयंकर विबाद ।आक्षेप की बर्षा शुरु हो जाती है । उसने हँसते हँसते कह दिया । जोर नही डाला कि बर्तन भर ही दिया जाय ।या थोडा खाली भी रहने पर काम हो गया जैसा हो जायगा । तेल डिपो से मँगाना ,बाँटना उतना ही कठिन है जितना चुहावट या दरुपयोग होने से उसकी रक्षा करना ।शिक्षकका मुल कर्तव्य अध्यापन हैं । नाजुक परिस्थिति में मट्टीतेल मँगा ,वितरण करना छात्रों को सुविधा देनी है । इसमे लाभ की आशा तो अनैनिक ही होगा ।यह गूरुवर के आचरण की परिधि में नही आता है ।दूसरी बार तेलका कुपन लाया गया तो एक परिचित व्यबसायिक डीलर के हवाले कर दिया गया । उस कुपन के समय का अंत भी हो रहा था । सहकर्मियों मे से कम ही को ज्ञात हो सका । मुठ्ठीभर व्यक्ति ही ईस बार तेलका अधिकतम अंश लेकर लाभान्वित हो सका । अधिकांश लोग मुँह देखते रह गये । तेल पाने से बंचित हो गये । तब तक युद्ध जवानी पर आ गया ।बातचित के क्रम में सुबोध बाबु निजि कुपन कें सम्बन्ध में भी बोल गये थें ।
अपनें दों सहयोगियों के साथ इलाका कार्यालय में निजी कुपन बनबाने वह गया तो। पहले ही परसों अपने नाम से कुपन बनवाकर ले गया हैं ।जाना ठिक नही होगा । बाहर ही हरी घास पर बैठ गए ।
आप सब कौन है .........कैसे तकलीफ की.........? प्रश्नों की झंडी šविना उत्तर की प्रतीक्षा किए लगादी अधिकारी ने ..........तेल सम्बन्ध की जानकारी देते,देते गला रुँध गया है............लोगों को कितना समझाया जाय .............सभी को अभी ही अचानक तेल आवश्यक हो गया ?.........हम सभी स्थानीय मा.वि. बस्तीपुर के है..........तेलका निजी कुपन चाहिये । उसने उत्तर दिया ।
ूदर्जनो उद्र्धछाप्रेषित छात्रगण आपके विधालय के आते रहते है हर दिन ...........उस मात्रा में तेल की व्यबस्था कर सकना कठिनतम कार्य है ..............विदयालय से ही निवेदन लिखाकर लाईये.............कुपन बन जायगा...........।ूआज ही हिदायत आयी हैं टेलिफोन से ................जिला भर के लिये मात्रा आधी करदी गयी हैं उपर से ही ..................हम क्या कर सकते हैं...............?ूपदाधिकारी साहबका कहना हुआ ।
विदयालय लौटकर उसने सहकर्मियो के वीच सिंहजी पदाधिकारी की बातें यथावत सुनादी । दैनिक कार्यतालिका के सम्पादन में लग गया । मध्यावकाश के समय निवेदन उसे ही थमा दिया गया ।
दुवार जाने में उसने हिचकिचाहवट अनुभव किया । तेल की उपलव्धता की बात मन में सोचकर परेशानी मोल लेना अनुचित नही लगा । फिरभी अन्र्तमन नही मान रहा था ।मन की अनसुनी कर इलाका कार्यालय की इरी तय की । कार्यालय के भीतर का तापमान मन पसंद का नही था बाध्यता हुई । सत्ताबिरोधी व्यक्ति के जीवन पथ में अनेकों ऐसे ग्क्ब् पडाव आते हैं।
पदाधिकारी के मेज पार निवेदन प्रस्तुत कर दिया ।अपनी असुविधा की अभिव्यक्ति करता हुआ निवेदन में उल्लेखित मात्राका आधा कर आदेशकर दिया । उनकी असमर्थता किया ।
कुछ पैसे अधिक ही देने पडते ...........और क्या होता ?...........इस स्थिति में तो नही पडता ।
सोचता हुआ कार्यालय के बर से बाहर हुआ ।
इधर दिजिए सर ।
दो व्यक्ति सीढी पर खडे मिले जब वह कार्यालय भवन से बाहर होनेको था ।
कुपन तो लीजिये ............. । दोनों ही कुर्सियों पर जाकर डट गए । यहाँ हस्ताक्षर कीजिए .............। एक ने निर्देश किया । ूसर १तो गत राष्टिञय पंचायत की चुनाव मे अभ्यार्थी बने थे .........? कुपन बाली वही आगे की ओर सरका दिया ।
उसने स्वीकृति सूचक ःभाव मे सिर हिलाया । सर कभी दौरीपट्टी मा.वि.मे ं प्र.अ .................। दूसरे ने प्रश्ण उछाला ।
हाँ कभी वहाँ भी था .................। साकारात्मक छोटा सा उत्तर देकर शिघ्र बाहर होजाना चाहता था । मन विषाद से अभिभूत हो रहा था ।
कुपन बनबाने और इन बातों मे क्या सम्बन्ध हैं ? परिस्थिति बश ही यहाँ आना पडा ।जहाँ जन सम्र्पक स्वरुप सधारण परिचयका होना आश्र्चय जनक नहीं ।उसे स्मरण भी नहीं कि कब इन व्यक्तियों से कहाँ परिचय हुआ ? वे लोग जानते रहे हों । सुनिश्चित होने के लिये उन्होनें पुछा हो । परंतु उसकी वर्तमान स्थिति उनके लिये विस्मयकारी थी । उसने अनुभव किया ।अपनी समाजिक अवमानना प्रति पुर्णतः सजग जव वापस आ रहा था तो रास्ते में तेल लेने बालों को लम्बी कतार लहान से घर वापस हो रही थी । एक निर्धन मसोम्मात असेरी बोतल में आधा शिशि मट्टीतेल लेकर लहु लुहान पैर रंगती चल रही थी । कंकडीली सडक के कारण ठेस लग जाने के फलस्वरुप वह लंगडाती रही थी ।
साठ लिटर बाले कुपन के समाचार ने सहकर्मियों में सनसनी पैदा की । राजदेव बाबु के निर्देशन पर सहकर्मियों की सूची बनायी गयी तो उसके अंश में दो लिटर तेल आया । एक निर्धन चपरासी का नाम सूची से निकाल दिए जाने कारण स्वरुप उनकी दया से दो लिटर तेल की आशा और हुई । उसके खिन्न š चेहेरे को देख राजदेब बाबू भाप गए ।
पेट का फेलाव
“ सानो बहिनी दुुुलगा ....................
लगतौ गलदनिया .................ने औ ................। ”
मनोज गाता हुआ आंगन में निकला एक छोटा सा मोटे कागज का डिब्बा हाथ में लिए था । उसे पुरा खोलता । जतका जैसे फीर बना डालनेका जतन करता । बार बार खोलिने और मोडने से कागज ढीला होता गया । लाख चेष्टा करने पर भी जैते का तैसा अव वह नहीं बन पाता । नये चले इस सलहेश की गीत की कंडी को गाता बार–बार । आनन्द में मग्न डिब्बे को उछालता ऊपर की और । फिर उसे लोकता । मुँह आँगन के दरबाजे पर खोलने में अपने आम में मगन था वह । “गडी पर चढने जाता हूँ.................।” अशोक ने कहा गाडी पर चला गया । मनोज मुँहरा पर बल्ला पकडे खाडा था । “हमारे बाबुजी आज कहाँ है । ...........कहकर अशोक बल्ला लांथ कर पहिया पर आया .................।”
“कहाँ ...................” पुछा मनोज ने । वह दानो हाथो से बल्ला थामे डुल रहा था । दोने घुटनो को मोड डुलता । हाथ दुुुख जाने पर आ जाता ।
“बजार गये है ..............और तेरे बाबुजी ...............”
“हमारे बाबुजी नेपई नेपाल ................।” कह कर धब्ब ते बल्ला छोड गिरा और दोनो हाथो से पीन झाडने लगा । दोनो पीन में धूल लग गइ थी ।
“हमारे बाबूजी बहुत रुपया ले गये है ...............लाल पेंट .................मुँगवा –मिठाई लायेंगे .............तुुझे नही देंगे ।
“हम मिसतिली बाबा मिस्त्री से चिन्नी लायेंगे...............हाँ ............तुुझे भी नही देगें ......”
“लाल पेंट पहीन ...............साइकिल पर चढ बाबुजी के साथ जनेगर जयनगर ,बिहार भारत का एक सीमांत कस्बा जायेंगे ..................कैसे जायेंगे ..................।”
मनोज गुम रहा । अशोक पुँछरा पकड कर लटक रहा था । “हम गली पर चढ कर ......सोचकर कहा मनोज ने .......आया दिदी ...........दीदी दीदी मैआ सब जायेगी .......तु कैसे जायगा ............”
कह कर मनोज खुब जोरसे हंस पडा । “इ बुझल .............तुझे मैआ भी नही ............। अशोक हाथ बंद कर मुठ्ठी बाँध अँगुठा हिलाकर कहता हैै । हमें टीन का घर है ............कोठा हैै.........तुझे कहाँ ”
मनोेज निरुत्तार रहा । पुरब की और गुम–सुम देखता रहा । शायद कुुछ सोचता हो ।
“हमाले घल नें बली मोती मोती किताव है ...........तेरे है भी नही ..........।” फिर मत्ती नें बल्ला को हाथ से थामे दोनो टांगो की रस्सी में फंसाये हिलता रह ।
“हमको अनबारी में अनार सिं ऐनासीन जे की सुन डाइक्रीस्टीसीन और भी बहुत दवाई है । .............है तुझे ..........”
श्री चन दावा की दुुकान करते है ।
“ हमाले धल में खोदली मे. बहुुत शीशी है...............।”
“हमारे बाबुुजी को धडी है ..............तेरे बाबुजी को कहाँ ............।”
मनोज को जवाव नही सूझा ।वह अपने पिताजी को धडी बाँधते नहीं. देखा था । अशोक अपने धनीपन का प्रभाव डालना चाहता है । पर वह भी पीता के आने की बात सुनकर चोट एकदम से भुुुल गया । अशोक की अँगना की ओृु भागा । “अशोक भैया ...........कल मेरे भी बाबुजी आयेंगे..........
खुशी मे मनोज उछलता रहा । दोंनोे फिर चले गये खोलने । पानी पर कि चोेट सरीखा बच्चोका झगडा क्षण भर मे ही एक
आज पुरे परिवार में प्रसन्ता है । परिबार ही नहीं ,ढोला मा प्रसन्न । गाँव में खुशी की लहर छायी है । श्रीचन मधुबनी गया है । परमेसर जेल से छुटकर आ रहा है । सभी उत्सुक है । दो साल पर काठमाण्डु से आ रहा है ।अपनी आनेकी खबर उसने पहले ही भेजी थी । जयनगर पहँुुचते ही सी.आई.डी पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया ।
उनकी गिरप्तारी की खबर इलाके में बडी तेजी से फैल गयी । नेपालीयो को जयनगर आवा–जाही बंद । उसके धर पहँुचते ही सभी बच्चे ढेर हा गये । पास –पडोस के बुढे अंधेर सभी आये अशोेक दोडकर उसके कंधे पर जा चढा । मनेज चुपचाप खडा था टुकुर–टुकुर देखा रहा था । लग रहा था या पहचान मे नही आरहा था । उसने पकडकर उसे गोद में ले लिया समय कितनी तेजी से परिवर्तन करता चलता है । मनोज गुप –चुप गोद में पडा रहा । डेढ साल पहले की स्मृति परत खुुलने लगा । जेठ की तपी धरती पहली बरसा में नहाकर हल चलने से अपनी पलके खोलती है । देर से उसने पहचाना । खिल खिलाकर हंसा । बायें हाथ पर उसकी नजर पडी । देखा कोर्इ चमकदार बस्तु है ।
“क्या है बाबुजी ............यह ।” पिता की ओर देखने लगा ।
“धडी ..............।” गौर से निहारता हुआ कहा ...........किसकी
“अपनी धडी ...............।”
उछल पडा गोद से खुशी में ।
“अशोक ............खुशी मग्न हो कहा ...............हमाले बाबुको धली .........बली.........गोल ..........चमकती हुयी ...........।”
उसकी आँखमें चमक थी । चेहरे पर गर्व था । मन आसमान में उडने लगा ।
“कैसे पकड़ लिया ............।” एक ने पुछा ।
जयनगर चौक पर खाडा था ।
“पकडवाया उल्लु कग्रिसियों ने जो सीमा पर से देश में क्रान्तिका दीप और नेता गिरी करने का अहँ भरती है । पकड उसने जो पंचशील के स्रष्टा होनेका गौरव करते है । ”
“तब क्या किया ...................।”
पकड थाने पर ले गया । थानाबाले पशुवत व्यहवार करते है , मालुम था । रात के बारह बजे के करीब थाने के दरोगा ने बुलाया । “क्या नाम है ..........”.उडम्कर बोला
।
“परमेसर.............।” निशांक हो उत्तिर दिया । शायद देश शान्तिका पक्का प्रमाण पत्र मिले ।
“कम्युनिष्ट पार्टी में काम करते हो .............” शान्त बिद्वानी को जगाना उचित नही होगा । सम्मानपूर्वक बात करना दरोगा जानता ही नही था। ”हमारे नेपालमे कोई पार्टी ही नही है ..............”
रोयल गुंध में .............दरोगा तेज दृष्टि डालते कहता रहा ...........लाजो धडी रशियन है .........”
“हाँ ..............रशियन है ...............”
“डयुटी दिए है ................”
“डयुटी दिए हो .............”
“नही ..................”
“भारत में क्यो लाये ...............अबैध है धडी .............”
“जी ...............जानता हुँ । ............अपने देश से होकर आने जाने का मार्ग अभी हमें नहीं है ....................इसलिए आना पडता है ................राजनैतिक नाके बंदी करनी हो तो बात दुसरी है ................।”
वह धडी को उलट –पुलट कर गौर से देख रहा था ऐसा नही किया । अन्य नेपालीयो कें साथ उसे दुसरे दिन मधुबनी जेल भेज दिया गया । “जेल में तकलीप भी हेती थी ...........दुखित होकर एक पडोसी ने पुछा ।
“उस उची दीवालके भीतर खुुद अनन्द भी दुखि रहता है .............अपना जुत्ता खोलता हुआ परमेसर बोला ..............फटकर पुलिस का शासन और भीतर चोरे और उचक्को का राज्य...............। ”
“भारतीय बिदेशीयो के साथ व्यवहार करना नही जानते है ...............श्री चन ने पुछा ।
“बिदेशी की बात अलग है ...........कम से कम सम्मानित पडोसी के साथ भी सद व्यवहार करना चाहिए ............। ”
“भैया से हारी , भौजी कोचा फाडी .............।”
“जौ के साथ घुन भी पिसा जाता है ...........”
अब तो नही जाना पडेगा ...............“भाइ ने पुछा ।
तारीख पर तो जनाही पडेगा ............”
देखिए । भारत सरकार के चलते कितनी नुेक्सानी हुइ है .............परमेसर ने गम्भीर होते हुए कहा .............मुझ जैसे साधारण शान्ति प्रिय नागरिक को पकड कर न भारत सरकार को लाभ न नेपाल सरकार को घटा ..............वैसे को पकडना जिसससे भारत को लाभ नही भी होता पर नेपाल सरकारको नोक्सानी होती तो एक बात थी ..........सोचता था ट्ेनिंग समाप्त कर किसि स्कूलमे काम करने लग जाउँगा । कोई दिक्कत नही आयेगी ..........पर गिरप्तारी ने मेरा सब कुछ चौपट कर दिया .............बहाली भी नही हो सकी .............कहचरी मे खर्च करना पडा सो अलग..............काठमाण्डु मे ही मेहमान की दो घडीया के लिए रुपया आया था ..............उन्हें एक ही घडी मिली ..............एक का दम वापस करना पडेगा .............अन्य सम्बन्धी यो को दुसरे चलते परेशान होना अलग ................अलग जमानत मे कापी रुपये खर्च पड गये है ...............वह सब तो देनाही पडेगा ........।”
“प्रणाम चाचा जी .........प्रणाम ............।” बौधा दुर से ही प्रणाम करता आया ..........कब आए.............।”
“कल साँझ मे आया ..............आपका आनेका नाम सुना तो भागा –भागा आया ..........यही रसीयन घडी है ............देखीए । ”
हाथ से घडी खोल देखने लगा फिर बाँध लिया । र्
बहुत अच्छी लगती है ..........देदिजिए हमे .............कहाँ उसने ।
बीडी सुनगाकर दिया पर परमेसर ने नही पिया बीडी ............बडा शौक है एक घडी खरीद नेका .............आप दुवारे काठमाण्डु जायेंगे तो. खरीद लेंगे ...............
आँगन से मनोज दौड आया । हाथ मे घडी न पाकर पुछही बैठा । र्
बहुत अच्छी लगती है ..........देदिजिए हमे .............कहाँ उसने ।
बीडी सुनगाकर दिया पर परमेसर ने नही पिया बीडी ............बडा शौक है एक घडी खरीद नेका .............आप दुवारे काठमाण्डु जायेंगे तो. खरीद लेंगे ...............
आँगन से मनोज दौड आया । हाथ मे घडी न पाकर पुछही बैठा ।
“जब धली कहाँ ....... ”
बौधा मैया के हाथ में है ............”
उसकी और उसके हाथ को पकड लटक गया ।
“इँह .............मनोज आनन्दित होना हुुआ बोल.............हमाले बाबु क थाली है.............नही बाबु ...........वह कह कर उसकी ओर देखने लगा ।
हाँ............हाँ..........अपनी ही है..............।”
खुशी मग्न कूदता हुआ चला गया ।
“कितने ही शाम आधा भोजन कर ..............टयुशन पढा कर तब कहीँ पैसे जमा ्हुए .............धडी खरीदी.................।”
“उसे बेच दुँ..............”
“आप सपेद झुठ बेलते है .............बौधा ने अविश्वास करता हुआ कहा ..........आप दुसरी खरीद लेंगे................
हमारी बडी इच्छा है ...............घडी पहनने की ............।”
यह बारम्बार धडी को उलट–पुलट कर देख रहा था । मनोज कल पर खोल रहा था । उसके हाथ में कमल की डंडी थी । उते कल के उपर से धुसा कर मुँह में ले पानी निकलने लगा ।
हाथ में डंडी थी । पानी स्वतः निचे निकल रहा था । बहुत खुश था । श्रीचन हाथ धोने वहाँ पहुँचा ।
“हम कैसे पानी निकालते है .............मनोज ने कहाँ पानी लो काका .........।”बडी उत्साह से डंटी का मुँह उसकी ओर कर दिया ।
श्री चन हाथ धोने लगा । उसकी कलाई में गोल कुछ चमकते देखा । दौडा अपने पिताजी के पास ।
“बाबुजी ...........अप्पन थाली कहाँ ............। ”उसकी गरदन पकइ मचलने लगा । ............
“अपनी धडी गांव के तेरे भैया ले गये है ...............”
“गाम के भैया ................... ” बडे आनन्द से टुहराया ।
हाँ .................हाँ ...............गाम के भैया ..........” अशोक के साथ खोलने पोखरे की ओर
चला गया ।
धडी उस पेट में तमा गयी जिसका पलाव हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक तथा पश्चिम
पाकित्तान से बर्मा तक है ।
काल की निष्ठुरता
बुन्नीलाल सिंह
खा–पीकर कपड≥े पहन जब घर से निकलता सड≥क पर आ जाता तो नतिनी सुचेता किबाड≥ के पले खोल मु“ह बाहर निकाल बोल उठती –“नाना–नाना कु...........कु...................।”
किबाड≥ बंद कर लेती । फिरबाहर झांकती ।
हा“ π बौआ † नाना † खाओ,खेलो । अभी स्कूल जाता हू“ । ”कहकर जब उसकी ओर पलटकर देखता तो वह फुरती से किबाड≥ बंद कर घर भीतर समा जाती ।
उस वक्त वह छोटी थी । ढई या तीन सालों की रही होगी । दुबली, पतली, चिट्टी गोरी,छरहरे बदन की । पताती हुई चलती । बहुत आकर्षक नाक नक्श की नतिनी ।
अपना घर बच्चे के विना सूना,सूना सा लगता । सदा ही बच्चों के संग–साथ समय बिताने का स्वभाव हो जाने के कारण अपना ही मन नहीं मानता । उसकी नानी का भी यही हाल होता ।
अपनी दोनों बहनें अपने घर चली गयीं । लड≥का भी बडा हो जाने से वह अपने साथियों के बीच रहता । बड≥ी बेटी की पहली संतान सुचेता । मा“–बाप के विपरीत सुचेता अलग स्वभाव की रुपवाली । विद्यालय से वापसी समय में सड≥क पर खड≥ी हो कर आने का रास्ता देखती । आते देख भागकर घर में चली जाती । किबाड≥ की ओट से झा“कती होती ।
“नाना † नाना ” कह किसी छिप जाने के स्थान में छिप जाती । कभी पीछे से आकर दानों ही हाथों से टा“ग को अपने घेरे में ले लेती । कभी चौकी पर चढ≥कर कुदक कर गोद में आ जाती । कुछ दिनों से वह मा“ को छोड≥ कर यहा“ अपने घर रह रही थी । मैं ही योगिया जाकर ले आया था ।
पर मा“ को बेटी के बिना चैन रहे ? उसे लेने मेहमान एक दिन आ गए । अपने घर में दूध–दही खाने वालों का अभाव सा था । हम सपने तीन कितना खाते ? इच्छा भर नातिनी खायेंगी,पीयेंगी,शरीर पुष्ट होगा अपना भी समय उसके साथ बितेगा । आनन्द होगा । नित्य की तरह खा–पीकर विद्यालय चले गए । चार बजे विद्यालय से लौटे । नित्य की तरह उसे किवाड≥ की ओट से झ“ाकते नहीं देखा । बालक्रीड≥ा से मन आनन्दित नहीं हुआ ।
“सुचेता कह“ा है ?” मैंने उसकी नानी से पुछा ।
अन्य दिनों की तरह वह किवाड≥ की ओट से ‘कु’ की मधुर बोली सेन स्वागत किया न ही पल्ला को आधा खोल झ“ाकती हुई मिली ।
बाप के साथ शायद अरनमा हाट चली गयी होगी । कुछ कहकर मेहमान भी नहीं गए हैं । सूपा चलाती हुई उसकी नानी ने कहा ।
आश्वस्त हो रहा । सूर्यास्त होचला । खिड≥हरि बाध–वन से भैंस लेकर आ गए थे । खु“टे से भैंस को ब“ाधा । अधेंरा छाने लगा । वह घर खड≥रने लगा ।
“ अभी तक मेहमान नहीं हाटसे आये । अन्हार होता जा रहा है । ” मैंने कहा जब मनोज की मा“ रात का भोजन बनाने के लिये जलावन लेने आ“गन से दरबाजे पर आयी । तब सुचेता को लेकर घर चले गए । ऐसा लगता है । उसने कहा ।
धी,जमाय,सपना,ये तीनों नहीं अपना ।
उपरोŒाm तीनों अपने नहीं होते ऐसाकहा जाता है । कहकर ही लेकर जाते क्या होता ? हम थोड≥े ही रोकते । अपना मन विषाद से भर आया । घर –आ“गन में सूनापन फैंल गया । खिड≥हरि लालटेन जलाकर सा“झ देकर टा“ग दिया ।
खिड≥हरि मनोज को देखिये तो † मैंने कहा । कहीं खेल रहा होगा ?
दिशायें हैं । आसमान है । सूरज जाते, जाते अपने पीछे मकड≥ा के जाल की तरह तम का जाल बुनता चलागया है । दोनों के ही भीतर अवसाद का अंधेरा पैmलता चला गया ।
सुचेता तारके गाछ सदृश्य बढकर बड≥ी होती गयी । घर–आ“गनकी सीमाको ला“घती गयी । सुना किसी रोज सहपाठिनियोंके संग पदमा स्कूलसे पढकर घरकी ओर आरही थी । सड≥क पर छिट्टी में जलावन बिछती कुछ निर्धन लड≥किया“ उसी सड≥क को पार करती हुई कुछ अप्रिय बातों को बोल गयी । सभी सहपाठिनियोंने एकजुट होकर उस कुछ उल्टी सिधी बात करनेवालीकी मरम्मत करडाला । अन्य मु“ह ताकती ही रहगयी । उन सबोंको साहस नही हुआ ।
विवाह की बात पहले से चलरहीथी । मुझे खबर हुई तो नातिनीके घर को देखने की अपनीभी उतसुक्ता हुई । योगिया पहु“चा । निश्चिंत हो चौकी पर बैठा था । स्कूलसे वापस होकर हमें आया देख मेहमानने पा“व स्पर्श किया । माथेपर हाथसे स्पर्श कर आशीश दिया ।
बेनीपट्टी यहा“ से दूर है । उधर कोइ सम्पर्क सूत्र भी नहीं है । वर की शिक्षा–दीक्षा शक्ल–सूरत अनुकूल है ? मैने जिज्ञासा की । सभी अनुकूल है । घर वर पसंद होजाएगें एम.एस.सी. के छात्र हैं ।
सुनतेही मन गद गद हो गया । यही चाहिये । और क्या ? पूmलसी सुकुमारी नातीन सुख शरया पर सदा ही सोए अपनी कामना रही है । घरसे चलते समय उसकी नानीने भी यही बिचार व्यक्त किया था । वहा“ जानेपर हर कुछ अनुकूल देखा । विवाहित होकर सुचेता सास का उसास करने ससुरालमें रहने लगी । समय–समय पर मा“ को देखने आ जाती । कुछ समय रहकर फिर वापस हो जाती । जब भी आती साथ में ननद बेबी भी होती । दोनों ही ननद–भौजाइका आना जाना, रहना, साथही होता । यह भौजीका घर है बेबी को अनुभव नहीं होता । दो देह, एक प्राण ।
उस समय मैं घरसे दूर अन्यत्र के विद्यालयमें कार्यरत था । सप्ताहांत ही घर आता ।
“सुचेता का आपरेशन हुआ है । आ जाने की खबर है ।” उसकी नानी ने कहा जब मैं शुक्रवार को घर पहु“चा । सब कुछ तैयार कर उसने रखा था ।
जितना रुपया मा“गा मैंने उतना दिया । राम लाभीत यादव को साथ लेकर नातीन को देखने जयनगर गयी जहा“ बेटी बेटी के साथ डाक्टर के क्लीनिक में थी ।
मैं यह सोचते हुए स्कूल चला गया कि गड≥बड≥ खबर तो है नहीं की चिंता की गाया । सप्ताह बीच,स्कूल से घर आया । सुबह ही खाकर नातीन को देखने जयनगर आया । आरोग्य लाभ कर रही थी । शल्यक्रिया के कारण रक्त बहाव अधिक हो जाने से अत्यधिक कमजोर हो गयी थी । डा. ने स्थिर गति में थोड≥ा टहलाते रहने की हिदायत की थी । विना सहारा के एक डेग भी चलना उसके बूते के बाहर की बात थी । मा“–नानी को सहयाृग करने देना नहीं चाहती । पोता विजय के मामा अशोक बाबू ही सहारा देकर चलाते । मेहमान को भी सहारा देने नही आता । मुझे चिंता सताने लगी कि पहली संतानोत्पत्ति में शल्यक्रिया करनी पड≥ी तो बाद में भी क्या इसी ढंग से बच्चे जन्मेंगें ? उपचारिका की नासमझी से प्राण संकट में पड गए । गर्भस्य शिशु नुक्सान हुआ ।
हम आश्वस्त हो रहे । खबर होने पर बाद में नातीन का घर ही उठकर चला आया । नातीन के सास स्वसुर, ननद एवम् मेहमान आदि आगए । तीन परिवारों का मेला ही लग गया । मेहमान के शुभचिन्तकों, ग्रामीणों का ता“ता ही लग गया । खुले हाथ खर्च करती नातीन की सास । खाने का तैयार नमकीन सामान बाजार से ले आतीं । सबोें के आगे रख देतीं । “क्यों ये सब बाजार से उठा लाती हैं ? घर से खानेके सामान बनकर आते ही हैं ।” सुचेता की नानी कहतीं ।
“ जैसे समधीन की मा वैसी ही हमारी मा“ । कभी भेंट होगी कि नहीं क्या ठिकाना ? अभी तो एक साथ हैं । मा“ की सेवा करना, खिलाना धर्म है । मुझे नहीं वर्जिये मा“ । इतना तो करने दीजिये ” । नातीन की सास कहतीं ।
सुचेता के स्वास्थ्य में अकल्पित ढंगसे सुधार हो चला । ह“सी–खुशी के माहौलने नातीने के मन को आनन्द से सराबोर किये रहा । लगता नहींं था कि किसी क्लीनिक में रोगी की सेवा में आये लोग हैं,। धर्मशाला का सा वातावरण बना रहा । खाना–पीना, हा,हा, हीं हीं मात्र । “अब सुचेता भी ठीक हो चली है । सभी कोई घर से आ ही गए हैं । मेरा काम भी अब नहीं रहा । खा–पीकर बस से घर चली जाउ“mगी ।” उसकी नानीने बेटीसे कहा ।
नातीन की सास ने मां–बेटी की बातों को सुना । बाजार चली गयीं । विदाई के लिये साड≥ी, शाया, तथा ब्लाऊज लेकर आ गयीं । “यह विदाई का समान मुझे क्यों देती हैं ? मां ही बेटी को विदाई–सनेश देती हैकि बेटी ही उल्टे मां को विदाई करती है ? सुचेता की नानी लेने से इनकार करती है । “नही मा“ † मुझे ऐसा अवसर अब कभी नहीं मिलेगा । ये सब रख लीजिये । मां की सेवा करना अपना फर्ज है’’। कहती हुई सुचेता की सास ने सब समान झोला में रख दिया । लाख मना करते कहने रहने पर भी उन्हों ने नहीं माना । बस ने डेरे के सामने हार्न बजाया । सुचेता के मेहमान नानी को बस में बैठाने झोला लेकर बस तक आ गए । वे नानी को बैठा, पा“व स्पर्श कर, बस से बाहर हुए ।
हम बेटी आशा से मिलकर वापसी समय में नातीन से भेंट करने बेनीपट्टी पहु“चे । बरामदे पर रक्खी चौकी पर मेहमान ने बिछावन लाकर लगाया । पा“व स्पर्श किया । कुशल–मंगल आदि की बातें हुई । पानी लाने भीतर गए तो सुचेता को खबर हुयी ।
नतीन ने एक बच्चेको मुझे बुलाने भीतर से भेजा । पीढि≥या पर जलपान करने बैठा था । जलपान करते समय नातीन पलंग पर बैठ गयी । बतियाते जलपान कर रहे थे कि नातीन की सहपाठीन भी आकर पलंग पर बैठ गयीं । जलपान समाप्त हो जाने पर नातीनने थाल में ही हाथ धो लेने को कहा । बहुत देर तक बातेहोती रही । सूर्यास्त होनेको आया तो आ“गन से बाहर हुआ । नातीन की सास अपनी बेटी से भी निरोग दीखी लावण्य युक्त गौरवर्ण दीपित चेहरा, सफेदी लिए दा“त । पुष्ट वदन । यद्यपि नातीन की सतौत सास थीं परंतु व्यवहार में किसी दुर्भावना की शिकायत नातीनने कभी नहीं सुनाई । टोले–मुहल्ले की सारी खरीददारी वही करवातीं । शादीका अवसर हो या अन्य पर्व । सभी अवसरों पर उनका सभी जगह होना आवश्यकता थी ।
कई महीनों बाद योगिया बच्चोंको देखने पहु“चा । सदा की भा“ति बेटी बाहर नहीं हुई । छोटी नातीन ममता पानी लेकर बाहर आई । बेटी रो पड≥ी । बेटी का करुण क्रन्दन हमको व्यथित करता रहा । कुछ समझ में नहीं आ रहा था ।
“क्या हुआ ममता मा“ को ?” क्यों रोती है ? मैने दुखीत मन से पूछा ।
“दीदी की सास मर गयीं ।’’ “आयं † सुचेता की सास नहींं रहीं ।’’ मंै विस्फारित नयन देखता रहा ।
अपना ह्दय चित्कार कर उठा । जबरन उसे रोक रखा । आ“खों के आगे अंधेरा पसरने लगा । नातीन के दायित्व में अचानक बढोत्तरी हो जाने से मन आकुल हो गया । सुचेता परिवार में सब से बड≥ी थी । सास के होने तक कम से कम दायित्व तो कम ऊहु करता । अब इतने बड≥े परिवार में वह अकेली हो गयी । घर में सास मात्र के रहने से सभी तरहसे निश्ंिचत जीवन बिताती थी । रंग–बिरंगका पहनना, खाना बनाना, खिलाना और खाना । अन्य काम करने कोई न कोई आ ही जातीं । खेती–गृहस्थी सम्हालने आये मजदूरों, हलवाहों के लिये जलखै, कलऊ का इंतजाम करना, खेत तक उन्हें पहुंचवाना आदि झन्झटों से निपटना अब नित्यका काम हो गया । वे तो रोगिणी जैसी उस बार नहीं दिखी थीं । हृष्टपुष्ट देह निष्कपट बातचीत । व्यहार निश्चल । मुहल्ला भर में लोकप्रिय । अचानक क्या हो गया ? वह चल बसीं । समझ में नहीं आ राहा था । स्कूल से मेहमान आ गए ।
“क्या हुआ था सुचेता की सास को ?” उसने पूछ बैठा ।
कलेजे में पानी भर आया ।
“उपचार के लिये कहीं बाहर नहीं ले जायी गयीं ?’’
“उन्हे लहरियासराय ले जाया गया । हप्ते रोज उपचार चला । घर आयीं । कलेजे में फिर पानी की शिकायत । चल बसीं ।’’
मेहमान ने बताया नमकीन, चटपटी आदिके खाने के शौकीन । बजार मे तरह तरह के खाने के सामान बिकते हैं । घर में बने शुद्ध तेल और घी की सामाग्री शरीर के लिये अहितकर नहीं होती । बाजार में कृत्मि तेल–घी का प्रयोग होता है । उसकी बनी सामग्री सर्वथा हानिकारक होती है । बाजार में बिकीके लिय बनी खाने की चीजें आकर्षक ढंग से प्रर्दशनी सीसे में रखी रहती हैं जो दर्शक का मन सहज ही मोह लेती हैं । बराबर खाते रहने से अपकार करती हैं । घर में बिमारी की कभी शिकायत नहीं किया । घर के लोगों को अस्वस्थय रहनेका कभी भान नहीं हुआ । उपचार के क्रममें ही बिमारी का पता हुआ । तब तक देर हो चुकी थी । देइधुनग्रस्थ हो चुकी थी । इतनी देर की बातचीत में मुझे कैसे पता हो सकता था । नातीन के ऊपर बिपत्ति के पहाड के ढ≥ड जाने मात्र से ही अपना मन तड≥प उठा । मौत संकेत कर कभी नहीं आती है । विना बुलाये ही कभी किसी समय में धमक कर आ जाती है ।
जिन्हें भगवान प्यार करते हैं असमय में ही उन्हे उठा ले जाते हैं ।
Whom
god loves die young.
Shakes peare
शल्यक्रिया के बाद सुचेता की पहली संतान पूजा का जन्म सहज ही तौर पर हुआ । मा“ के अनुरुप ही रंग, चुलबुली स्वभाव की । तीन साल पर मा“ के अनुरुप ही नाती घर को रोशन करने आ गया । रौशन को देखने से लगता भगवान ने रौशन की रचना मात्र क्खन जैसी वस्तुओं से की है । पूmलसे मुस्कुराते आकर्षक अनुहार सुकोमल लाल टुह टुह देह । गोदमें लेकर बैठे रह, सूरत निहारते रहना बड≥ा भला लगता । शैनः शनैः रौशन बढ≥ चला । डेग अभी नहीं भरता । किलकारी भरता । आ“ख की सरल भाषा में नाना, नानी किन्ही से भी बात करता रहता ।
मेरी अपनी धारणा निर्मूल साबित हुई । इन दोनों बच्चो के जन्म से यह पता तो लग ही गया । शैसवसे ही भरा–पूरा लगता । जबभी प“हुचता, लगता हुआ नजदीक नानी के संग आ जाता । गोद में उठा लेता ।
“नानी † बड≥का नाना क“हा ? रौशन पूछता ।
“हा“ बौआ † बड≥का नाना आज आयेंगे ।’’ उसकी नानाी कहतीं ।
मुझे भी बेटी सुनाती । नातीन भी सुतीन । मन प्रसन्नता से अभिभूत हो जाता । इन बच्चों को अपना ख्याल हमेशा बना रहता है । उनका ख्याल हो जाने पर मन आनन्द से ओतप्रोत हो जाता है ।
जाड≥े की धूपमें बेंच पर बैठा रामायण पढ≥ने का विचार कर रहा था । पोती मीना के मामा योगिया से आये । उन्होंने पा“व स्पर्श किया ।
“कुशल मंगल ठीक है ?’’ मैंने उन्हे पूछा ।
“सुचेता मर गयी ।’’
सुना क्या बज्रपात हो गया, अनभ्र बज्रपात । दिन की रोशनी में आ“खों के आगे अंधेरा ने परदा गिरा दिया । कलेजा फट पड≥ा । अपनी धिग्गी बंध गई । आ“खों से आ“सू की धारा बहने लगी । अपनी बोली उस वेदना के अतल सागर में समा गयी । मुझे चुप्प देख उसकी नानी जो समीप ही कुछ कर रही थी नजदीक आ गयी ।
“क्या हुआ ?’’ मेरी आ“खों में आ“खें डाल उसने पूछा ।
मुझेसे कुछ कहा नही गया । मीना के मामा हृदयाविदारक खबर दे उसके घर चले गये । उसकी नानी ने मुझे झकझोरा । जोर से चिल्ला उठी ।
“क्या हुआ ?’’ वह विचलित होकर बोली ।
सुचेता हम सबों को छोड≥ चली गयी, बहुत दूर ।
“क्या ?’’
माथा थामकर वहीं बेंचपर धड≥ाम से गिरी । अपना हृदय चित्कार कर ही रहा था । वह जोरसे रो रड≥ी । उसकी नानीका करुण रुदन वातावरण में समाता चला गया । तबतक कनिया भी आ“गन से आ गयीं । सुनकर जोर से करुण विलाप करने लगीं । परिवार भर को रोते देख टोले के लोग एक, एक कर जमा हो गए । सास–पुतौह को समझाने लगीं सभी जनिया““ ।
मेरा अपना रोना नहीं थमता । नातीन को उन दोनों सुकोमल खिलोनों का भी ख्याल नहीं रहा उस क्षण । देखत,े देखते सारे गा“व भर में यह खबर पैmल गई । आ“सू की बाढ≥ रुकी तो निष्पलक टुकुर, टकुर देखता रहा स्वयं को विस्मृत कर । स्वर हरा गया । गू“गा बन बेंचपर बैठा रहा । आने, जाने वालों को देखता । उन सबों से उदासीन बन रहा ।
“कोई संतान शोक’’ एक बार श्री अमरनाथ बाबू दौरीपटटी में बातचीत के क्रम में पूछा डाला था । उस प्रश्न का उत्तर आज अपने को सूझ रहा था ।
बेटी सुनाया करती कि सुचेता ने दो किलो अनाज तक कभी घर से बाहर या आ“गन का पथार भीतर आजतक नहीं किया है । पथार से एक मुजल्ला अनाज जिस सुचेता ने कभी नही घर किया वह अब उसने कालके भयंकर दंश को कैसे वरदास्त किया ? सुकुमार सुचेता के तनका मेरुदंड भी उसी कोमल मक्खनसे विरचित रहा है जिसके करण वह साधारण, हल्की वस्तु भी नही उठाती । सुकुमार तन स्याह काला बन गया । शायद मौत की सूरत ही काली होती है जिसका प्रतिबिम्ब प्राणी पर पड≥ते ही गोरा तन काला हो जाता है । उसकी छाया भी स्याह रंग बनकर उभरती है । इसीलिये हम प्राणी गण मौत की कल्पना तक कहीं करना चाहते । जीवित प्राणी मौत की इस पीड≥ा का ख्याल करते ही स्याह बन जाता है । सूरत तक पहचान में नहीं आती । गोरे रंगपर श्याम रंग का प्रबल प्रभाव पड≥ता है । गोरा रंग स्याह से कमजोर होता है । स्याह का तंतु मजबूत होता है ।
उस मनहहुस दिन ने घरके सभी लोगों को परिस्थिति सिरजकर घर से दूर जिल्ला के सदर मुकाम मधुबनी भेज दिया । सास के अकाल कवलित हो जाने से नातीन ही अकेली घर में थी । घर–परिवार में अनुभवी किसी महिलाके अभाव में ही नातीन को काल ने छीन लिया । सकट में बुद्धि कुंठित हो जाती है । घर में नातीन प्रवस पीडा से कराह उठी । आ“गन के सामने ल्किनीक में देवर ने सुचेता को प“हुचाया । क्लिनीक के डा. की समझमें क्या आया कि पानी चढाया । पानी चढ≥ते ही पीड≥ा और भी अस्हय हो गयी । सा“झ होने को आयी । सभी मधुबनी से आये । एमबुलेंस से उसे दरभंगा ले जाया गया । डाक्टर के नजदीक पहु“चते न पहु“चते नातीन अनंत पथ की यात्रा पर सबोंसे मु“ह मोड≥ चल पड≥ी ।
घर के सभी लोग जब चले गये थे तभी नातीन ने अनंतकी यात्रा का आयोजन कर लिया था । शायद सूस की ओर से आ जाने का न्यौता आ गया हो जिन्होंने उसे कभी देखा नही था । सिर्पm सत–सास के मु“ह से उनके विषयमें कुछ जाना हो जो सत–सास की दीदी हुआ करती थीं । हो सकता है सता सास चलते समय उसे जल्दी ही पीछे चले आने का आदेश दे गयीं हों । अनंत के गंतव्य की हड≥बड≥ी में अपनी सुकुमारी पूजा तथा दूध मु“हे सुकुमार की भी सुध–बुध जाती रही । बाप–मा“ को भूल गयी । नाना–नानी तक की याद नहीं रही । वह बिना शिकायत किए ही चल पड≥ी । उसके जाने की राहकी ओर नजर देता हू“ तो अपनी दृष्टि जहा“ तक जाती है सारा पथ जोर का अथाह सागर दीखता है । आजभी उसकी सहपाठिनी, मीना की मा“ को जो देयादंकी पुतहु है घर आ“गन में कूदकते, फुदकते देखता हू“ तो नातीन सुचेता की स्मृति स्पष्ट हो आती है और वह जोर के अथाह समंदर में पेंmक देती है ।
‘परजीवी’ होना जीवों का आदिम स्वभाव है । मगर अपने लाभ के लिए दूसरे के खून पसीने की कमाई को बरबाद कर देना तो पूँजीवादी सभ्यता का उत्कृष्ट कौशल बन गया है । पूँजीवाद के इस दानव से क्या केवल हिंसा के बल पर निपटा जा सकता है ? इस प्रश्न का उतर देती सी ग्रामीण (आंचलिक) परिवेश पर रचित मार्मिक प्रतीक कथा ।
किसान की दीठ पड़ते ही आँखों में खूनÞ उतर आया । दोनों ही नयन रक्तलाल हो गये । रीस से सारा शरीर थर –थर काँपने लगा । उसका अपना वंश चलता तो तत्क्षण उन्हें पकड् कर उनकी गर्दनें उल्टाकर तोड देता । एक बार नही अनेकबार गर्दनो को घुमाता । तनकी चमडी उधेड कर हर रोज उन पर नमक छिडकता । हाड को तोडकर चारो ओर बिखेर देता । एक ही बार नही, हजार बार फाँसी लटकाता । वह अपने क्रोध की सीमा लाँध अंधा । बन गया । वे काम कर कही खिसक गये है । काम के बाद कही ऐसे खिसके है कि पदचिन्ह भी नही दीखते । किसान विवस, असहाय हो, अपनी अपूरणीय क्षति टुकुर –टुकुर निहारता रहा । पकड में नही है वो शत्रु जिन्होने रगत बने पसीना को ईस तरह महत्वहीन समझकर धरती पर लोटा दिया है । उसें समझमे नही आ रहाथा कि कैसे इन शत्रुओं से निबटे ? कैसे अपने दुर्लभ ,नाजुक श्रमकी सुरक्षा करे ? जी मसोसता,बाडीके कोना कोना में टहलता रहा । जहाँका गाछ काट गिराया था वहाँ केवल इन्च्, दो इन्च भर की खुट्टी दीखती । एक दो पते जड. में लगी खुट्टी प्राण की भिक्षा माँगती दीखती । तकलीफसें मन घोर उदासी में डुब गया । काट डाले गये गाछो को जमाकर हाथ में लेकर गिना। द्यर्जन से बढकर उनकी संख्या थी । एक रोजमें इतने गाछों को भक्ष कर गये है । दिन पर दिन ऐसे ही वे भक्षण करते गये तो सारा नाजुक श्रम सखाप । वह महिनों के कठीन श्रम को क्षनमात्र ने विनाश करनें वालो अलोपित शत्रुओ पर बरस पड़ना चाहता था । उसका अनमोल परिश्रम माटी में मिलता नजर आया । परिवार की आशा पर तुषारपात हो गया था ।
वह भुुल नही सकता कितनी कठिन मिहनत से पहले उसने उन बिजों को जन्माया । क्यारियों को बना सडेÞ गोबर की खादसे मलिल किया । कुदाल चला झिलिया कर कई दिनों की प्रतिक्षा के पश्चात् बीजों को डाला । पालासे बचानेके लिए सुखी घासों की मोटी चादर का तह जमाया । अन्तिम पौष सें हर रोज पानी इनार से भर ,भार बना टेंढेÞ –मेढेÞ रास्ते सें उन क्यारियों तक जा उखराभर पानी डालता रहता । माघ के जाड़े कि किये परवाह किये बिना दिन –दिन सिंचाई करता । जाड़े में सुरज–ताप का अभाव रहता है । पर्याप्त गरमी के बिना बिज देरसे अंंंकुरित होता है । पानी पड़ने से सुई सरीखा मोथा, क्यारियों में सापर पिट्टा जनम जाते है । गरमाने के लिए रखे गये लार के मोटे तह को छेड मोथा बीजाें पर चढ़ बैठे । बड़ी सावधानीसे उन्हें उखाड़ता माघ भर की ंिसचाई के पश्चात्. फाल्गुण में अंकुरित बीज रोपनें योग्य बना । अब जब नें खेत की क्यारियो में लगकर बढने लगे है , तो इन अदृश्य शत्रुओ का आत्रमण होने लगा है । ये बौने मिर्च कैसे बचकर फुल फलदेने की अवस्था प्राप्त करेंगे ? किसान चिंतित हो काट डाले । गए कोमल गाछों को एकत्र कर हाथ में रख उलट पुलट कर मातम मनाता रहा । उनकी रक्षा की तरकीब सोचता रहा । उसकी आँखो नें बिल के समीप पडा हरा पत्ता का टुकडा देखा । माघ के जाड़े में खुन तरल बन पसीना के रुप में बह गया था । आज दुख की आँचमें पिघल कर नयन के कोरो में जमा हो आया । हाथ मलता हथेली खुजालाता । भेड़वा ने क्यारियो में आकर शरणले लिया था । कहाँ से कहाँ आ गया ? बिछन के मुँह पर महीन दाने दार माटीका ढेर बना कोमल पौधों को काटÞ उसके भीतर रहते । साँझ के अंधेरे में वे बाहर आकर पौंधो को काट खाने में लग जता है । हर दिन दर्जनो पौधो को घरशायी कर जाते है । उन्हें खाने के लिये नरम , कोमल हरे पत्ते चाहिए अभी गछो में कोमल पत्ते ही लग रहे है । उन्हें काट कर ले जाय, मगर गाछों को इन्च,दो इन्च छोड गिरा डालने का क्या अर्थ ? पौधो कोे काट डाल्नेमें किसान की गरदनकट्टी होती है । इस तरह काट कर गिराने में बर्बादी अधिक खाना कम । मगर विनाश भी करना है । पुरे गाछ को काट कर खाने लगे तो एक ही गाछ में सैकड़ो भेड़वो का पेट भर जाय इनमें सामूहिकता की भावना कम है । व्यक्तिवादिता अधिक है । एक का काटा दुसरा नहीं छुता , खाता । हर एक अलग –अलग अपने लिए काटता है । नुकसान करता है । मगर यह नुक्सान उनका अभीष्ट नहीं । किसान नुक्सान का विचार कर विवेक खो बैठा । वह आतुर था । पकडकर दंड दें । उसने बित्ताभर की बत्ती का टुकड़ा लिया । बिल खोजने लगा । दंड स्वरुप शरीर के अंगो को काट कर छितरा देगा । उन्हें तड़पाकर भार डालना पसंद था । माटी खोदता , दुसरे हाथ से माटी हटाता । हाथ बिल की माटी खोदने लगा था तो दिमाग दंड बिधान में । कोडते हुए निचे गया । जब भी बाँये हाथसे माटी हाटाता चारों कात की दानेदार माटी भर भराकर गढाÞ भर देती । किसान ने जोत मिलाकर बाड़ी को मुलायम , भुरभुरा बना डाला था । नमीयुक्त माटी हटाकर वह बाहर फेकता । खोदने लगा माटी । उपर,की सुखी तथा भीतर की नमीदार भुरभुरा माटी मिलकर दो तरह की स्पष्ट दीखती । खोदते हुए पुरी गहराई तक नीचे चला गया । हलका नास जहाँतक पहुँच जाता है । बाद के भीतर की माटी की परत कड़ी है । गहराई में नमी का अंश बना रहता है । बत्ती के टुकड़ा से खोदते रहना सम्भव नही था । खोदने में श्रम किया परंतु भुरभुरी माटी में असावधानी वंश भेड़वा बिल मे समा गया । भेड़वा कहीं न मिला वह मन मसोस कर रह गया । दिन के उजाले में हजार बार बाड़ी में चक्कर लगाने पर भी भेड़वा का अता–पता नही पाया ।
“अभी पता नहीं चला है । .........ठीक है .........दुसरे समय में तोे बाहर आगया .........।” सोचता हुआ हाथ से माटी को झाडा । घर वापस आया । सिंचाईके क्रम मे कंधेपर उग आए ठेलाको सहलाता गुन –गुन करता रहा । उदासी धिरे चेहरे को देख पत्नी के नारी संस्कार ने तुरन्त भांप लिया ।
“क्या हुआ ............?” पत्नी ने पुछा ।
“देखो न १ क्या हुआ ..........? कैसा जुल्म कर दिया है ............?” गफ्फा में रखे दर्जनो काट गिराए गाछ को पत्नी के हाथ में रख दिया ।
महिनाें के किए श्रम को अकारण नाश होते देख पत्नी के मुँह से बोल नही निकल सकी । उदासी की परिधि मे वह स्वयं धिर गयी “बोडमरना भेड़वा को और घास नहीं मिल्ते खानेको ...........शौक है ...........माऊँ तो मुँह पर जलता अंधार रख दुँ .................। वही बथान पर का गोबर उठाती हुई बोली ।
“छोडुंगा नहीं............सभी को मारे बिना कल्याण नहीं............आ छिप गए ........कलको कहाँ जायेगे .............?”
छोटा सा पैना लेकर घास झाड़ने लगा । घास झाडकर गाय ,बैल को खाने दिया खैनी चुना ने बैठा । काटे गये गाछों के स्थानपर पुनः नए विरुओं के लगा देने से खेत जुट जायगा । मल –पानी पर सभी माघ समान बन जायेगें । वह खुरपी लेकर खुरसानी को गोड़ने गया । दुखित मन नयें पौधो को लगाया । पानी डाला । साँझ हो आयी थी । घर वापस आया ।
उसे रात मे निन्द नही आती । बाड़ी मे मिरचाई के लहलहाते पौधे , काट कर खाने बाले भेड़वो पर उसका ध्यान रहता । उसके पड़ोसी के खेत मे अगात खुरसानीके पौधे फुल– फल देने लगे थे । पवन के झोको पर वे गाछ झुम उठते । उस किसान की घरबाली इतराकर चलती उसे नीन्द आती , करवट फेरता । आघात करने बाले शत्रुअें पर सें ध्यान जाता नही उसी बाड़ी में उन भेड़वो के खाने के लिए मिरचाई के बौने गाछो के अतिरित्त और भी कोमल हरी बस्तुए है । सापरपिट्टा – मोथा का जंगल है । सूई के आकार के तेज , नुकील मोथा, जमीन की उर्वरा शक्ति या उसके लगाए पौधो के उपर चढते जा रहे है । जैसे उसने श्रम कर उन्हे ही लगाए हो । हारा , गोलकार , फल लटकाए हराभरा भुटका जहाँ –ताहाँ बतरा गया है । एक भुटका मुठ्ठी भर बन जाता है । हजारों भेड़वो के खाने पर भुटका क कुछ नहीं बिगड़ सकता । डाल –डाल की फुनगी पर छाता सरीखा , पीले हरे दानों बाला सीधा उनके बीच खड़ा वड़ा बिशाल दिखता । बिशाल सखुए का पेंड़ खड़ा हो । धोखा से डाल के अथवा पत्ता के भी टुटने पर उसकी मोहक गंध नाक में समाजाती है । बैशाख की आग बरस्वती धुप में वे चौमासो को पीला बनाए है । चिलचिलाती धुप उनके लिए बरदान है । आग उगलती उन सूओं के सम्पुर्ण विकास मे वधक न बन सहायक है । हरियाली प्रतिस्पर्धा में बथुआ किसि भी घास से कम नही । मरुवा बड़े इतमीनान से दिन पर दिन निकाल करता जा । रहा है । किसान की बाड़ी में इन की आवश्यकता नही । मगर जहाँ तहाँ साम्राज्य फैलाए है । दाने दार कोमल माटी को बिशाल द्वार बना अनगिनत बिलों को देखते ही वह समझजाता है की उनके अंदर भेड़वा या उनकी संतति के निवास है । वर्तमान युग के सत्ता प्रतिष्ठानकी तरह जहाँ तहाँ वे बिखड़े परे है । धरती पर किसान का शोषण करने बाले ये भेड़वा दीखते है । उन भेड़वो के बहुत सारे खाध पदार्थ खेतो में पड़े है । उन्हे न ख के किसान के लगाए बाली चट करने में ही उन्हे क्या मजा आता है ? उन्हें स्पर्श तक नही कर । पर कमरतोड परिश्रम कर उपजाये शये छोटे छोटे खुरसानी को पौंधो के पीछे हाथ धोका पडे है । वे मिहनत करने दुर जाना नही चाहते । नजदीक ही खुराक चाहिए । परशुराम की तरह धरती को अगर क्षत्रियविहिन नही किया जा सकता तो कम से कम उस वाडी से उन्नें संतति सहित सफाया किए विना काम नही चल सकता । वे जीना दुभर कर रहे है ।
भोर होते मवेशी को खुटेसे, बाहर कर, खाना दे, डोल मे पानी डाल, मे काटे गए स्थानों पर लगाए पौधो को सीचने वह बाडी मे आया । पटाते समय अनेकौं गाछों को निस्सहाय धरती पर लेटे देखा । क्रोध की लहर तलुवे से मगज पर पहुच गयी । अाँखो के आगे फिर अंधेरा छा गया । इस गति से वे उन पौधो को काट गिराते चले गये तो बाडी सखाप , परिश्रम व्यर्थ । पहले उन शत्रुओं को मारे या नए लगाए पौधो मे पानी दे? पटाना ही श्रेयस्कर समझ जी मसोस कर पटाता रहा । जिन्हे काटना था उन्होने काटकर पौंधों को धराशायी कर दिया है ही । अब दिन भर वे और नही काटेगें । धैर्य से काम करना होगा ।शांत चिन्त हो वह पानी पटाता रहा । गृहिणी बाडी में आयी तो शिकायत करते हुए काटे गए पौधों को दिखाया ।
“काल भेडवा............हमे जीने नही देगें.........।”निहार कर दुखित मन बाली ।
प्राणो की भीख माँगतें कोमल , हरे भरे मिरचाई को लेकर उदास मन निरखती रही । कुछ क्षण पहले उनमे जिवन था । इन मे आशा थी । अब वे जीवन हीन बन बेकार हो गए हैं।
अब , खुरपी से किसान कीडा के बिल को खोदने लगा । दाहिने हाथ से मैदा सरीखा माटी को हटाता । खोदते खोेदते लगभग पांच छ इन्च की गहराई तक वह जाता । भेडवा का पता नही चला । अबकी बार वह सावधानी से बील खोद रहा था । भेडवा का शान्त, एकान्त, निरापद भवनका शयनगार कही छिप न जाय । अब नीचे पर ती , ठक्कर, जमीन आ गयी । खोदते समय खुरपी का बेट हथेली में गड़ जाता । पहले खुरपी सुगमता से चलती । नही , खोदे कोई उपाय भी नही था । पहले दीख तो जाय ? तब न सजा दी जायगी । लगभग तीन चार ईन्च और नीचे खोदने पर हरा पत्ता का टुकड नजर पड़गया । समझने मे देर नहीं लगी कि विश्राम में है । उसका मन प्रति शोध की भावना से जल उठा आराम से निरापद बैठे है । उसके प्राण से खिलबाड कर । अब जगगा कहाँ ? खुरपी से माटी खोदा । माटी हटाया तो खुरपी के मोटे ,भोथा धार के हलके आघात ने उसके तन को काटकर दो भागों में बाँट दिया । भुगतो । कमर तोंड़ श्रम से उपजाये नाजुक पौधो के खाने का मजा चखो । कटे भेड़वा को उसी बिल में समाधिस्थ कर दुसरा बिल खोदने लगा । उसके भीतर से हाथ के अँगूठे की मोटाई का खाया पीया दादा निकल, उछलता जान बचाने भागा ।
”भागकर कहाँ जाओगे ...........ठहरो ............एक का फल भुगतो ...........।”
किसान ने ढ़ेला चलाया । मैदा सी मुलायम माटी में सिर छिपाने का यत्न किया । हड़बड़ी में उसने बाँये हाथ से माटी को बकुटा भेड़वा पकड़ में आ गया । बचकर निकल भागने की चेष्टा करने से किसानका क्रोध भड़क उठा । तत्क्षण उसने खुरपी से चार टुकड़ा कर डाला । अन्य बिलों को खोदकर सफाया करता चलता । कितना चतुर है ? एक बिल में एक ही , दुसरा नही । अनेक नही । समुह बनाकर रहने में एक साथ सफाया हो जायेंगे । उसने बाड़ी में नजर डाली। असंख्य बिल दीख गये। किन्ही बिलों पर ताजा काट डाले गए हरे पते को पडा देख ।
कितना खोदकर मार डाला इस तरह से मारने से अधर्म नहीं होगा ? यह कोइ पाप नही ? किसान के श्रम को नष्ट करने बालाें को किसान क्योंकर जीने दें ? मार डालना ही अच्छा है । न रहे बाँस न बजे बासुरी । पर इस तरह इन्हे मारना सम्भव है । इस तरह मारने में शक्ति ,श्रम ,समय लगते है । अन्य उपाय हो तो अच्छा रहेगा । उखडाहा से मारने का काम करते–करते वह क्लांत हो गया था । पर मन से नही हारा था । अभीतक कुछ ही पं्रतिशत काम कर सका था । अपनी बाडी को भेडवा बिहीन करने का मनसुबा बाँधे । था ।
”देखोन १ कितने को सुरधाम पहुँचाया है ...........बडे चतुर है .........उसकी घरबाली बाडी में बेगन लेने आई तो उसने दिखता हुआ कहाँ .........दिनकी रोशनी में बाहर नहीं आते .............केवल रात के अंधेरे मे बाहर होते ...........धुप अंधेरे मे ही कार्यरत रहते ............सवेरा होते ही बिल में बिलीन हो जाते ..........सभी दुश्मनों से निरापद हो वे काम करते .............।”
मरनेका काम करते रहने से घृणा सी हो आयी । अन्तरात्मा जीव हत्या करने में साथ नही दे रही थी। आत्मा पर दबाव कबतक काम करे ? धर्म का संस्कार जोड पकडता गया । एक भार से हत्या करते मन ऊब गया। अब और आगे हत्या करते नही चाह रहा था । पास पडोस के सभी अपने खेते में कार्यरत थे ही । वह हल्का होने को सोच रहा था । “चलिये .......नहाने खानेका समय हो गया है ............शेष की दवा कल करेंगे .......।” थोडा बल लगाकर बैगन के तोडने से कलाई की चूडियाँ झन झनाकार वातावरण में मिठास घोल गयी । उनका मोहक संगीत कानो को सरस कर गया । इतने कीडो को खोदकर मारना बडा । दुष्कर है ................कोई अन्य उपाय हो तो कीया जाय ............।
पत्नी के मुँह से दवा शब्द का उच्चारण होते ही उसका मन चेत गया ।
“घर में मच्छर मारा दावा है ..........उसे ही पानी में घोल बिलों में डालने से उन्हे मर जना चाहिए ..........है तो यह जहर ही ...........बिलों को खोद मारने में समय , श्रम,शक्ति खर्च होते है ..........।” किसान ने सोचा । “है तो यह बिष ही ........जरुर मर जना चाहिए .........।” घरबाली ने बैगन तोड आँचर में भरते हुए कहा ।
कई दिनो से रात – दिन बहती पुरबैया एका एक गिर गयी । असमान में काले बादल घिरने लगे । किसान काले बादलको देख हर्षित हुआ । बिजली चमकने लगी । पश्चिम से उठा बादल आसमान के वक्ष पर फैलने लगा । पश्चिम से शीतल हावा का झोका आया । बादल मसियाने लगा । क्षणकाल में बडी बूँद बन टपकने लगा । कुछकाल पश्चात् शीतल पछिया हावा का झोका आया । मुसल धार बरसा होने लगी । तवे से जलती धरती की गर्मी कव वातावरण में सभ गयी किसान पत्ता ही नही कर सका बादल अच्छी पशुओं तरह बरसकर पूरबकी ओर बढ गया । नीला असमान नग्न दृश्यमान था । तारे चम्कने लगे थे । बादल की ओट में बिघट सुरज संध्या के आँचर में सो गया । मेघ अमृत रस बरसा बाडी झाडी को तृप्त कर गया । किसान ने अपने अपने को घर भीतर बाँध दिया । उस दिन की बरसाती साँझ में भेंडवो के समवेत स्वरका आरोह –अवरोह हीन एकदम लय पंंचम सुरका मोहक संगीत वतावरण को सरस कर दिया था ।
पानी प्राण है । कुछ ही दिनो में मिर्च के पौधे झुलस गये । फुलों से लदी हरी डालियाँ चारों कात झुक आयी । जंगली फुलो बाली डालियों सें झुकी मिरचाई क िबाडी में खडा होकर देखते रहना बडा भला लगता था । हरितिमा की चादर लेपेटे मिरचाई के खडे पौधो में जीवन का भविष्य मूर्तमान हो उठा । आन्नद विभोर किसान बाडी में टहलता रहा । सुरजकी तेज गर्मी से नमी को बचाने के लिये दिन भर तीन दिनों तक उसने खुरपीसे जीतोड श्रम किया पपडी पडी माटीको तोड डाला । मोथा को साफ किया । बाडी में नंगे पाँव टहलने से जमीन के नीचे धँसे जहाँ भेड़वो का आक्रमण हुआ तो फल–फुल लगे हरे भरे पेड़ धरती पर लोटते नजर आए । उसका सिर चकरा गया। मच्छर मारा दावा की याद आयी । ये दुश्मन इस से आवश्य नाश हो सक्ते है । परिश्रम से उगाए पौधो के खाने वालों कीडो के बिनाश में अधरम नही है । गृहस्थी अपने आप में महान धर्म है । उस महान धर्म को कोई पाप या अधर्म स्पर्शतक नही कर सकता ।
उसने दावा को पानी में घोला । खुरपीसे बिलों को जगगा घोल में डुबा पहले परखा । घोल में डुबते ही फुदकते भेडवा पल भर में शान्त और निश्चेष्ट हो जाते । संज्ञाहीन बन जाते । वह अनेको बिलों में उस घोलों में उस घोल को डालता रहा । घोलमे कुदकते –फुदकते भेड़वो कों तडपकर संज्ञाहीन बनते देख । अन्तरात्माने धिक्कारा । साथ दिना छोड दिया ।
भुख –प्यास प्राणियो को सताते है । अतः खानेको खुराक और पीने को पर्याप्त पानी चाहिये । आहार की खोज मे कीडे अन्यत्र भी जा सकते है । किसान के उपजाये पौधो को नही खाकर अन्य घास भी तो खा सकते है । मगर ऐसा नही करते । वे कीडे फतिंगे ही खाना चाहते है जो मनुष्य अपने लिए उत्पन्न करता है । मनुष्य अन्य खाध पदार्थ नही खा सकता । फतिंगे भी वैसा नही करते ।
ठूँठे –बौने खुरसानी के पौधे माघ वर्र्षा जल में नहा दिन –दूुना रात –चौगुना बढते गए । लम्बे नीकुले मिरचाई धरती की ओर घूँघरु सरीखा लटक कर जड छुने की प्रतियोगिता कर रहे थे । किसान दम्पति बाडी मे खडे आत्म विभोर हो उन्हे देखते । साँझ को उनका मधुर संगीत मन को मोह लेता । उसने अपनी बाडी को भेडवा विहीन करने का अभियान त्याग दिया । स्वष्टा की सृष्टि के शाश्वत संतुलनको असंतुलित करने का उसका कोई हक नही ।
काम से भेडवा सृष्टि का असुन्दर जीव हो कर भी स्वर संगीत से अनुपम है ।
मेरी अपनी धारणा निर्मूल साबित हुई । इन दोनों बच्चो के जन्म से यह पता तो लग ही गया । शैसवसे ही भरा–पूरा लगता । जबभी प“हुचता, लगता हुआ नजदीक नानी के संग आ जाता । गोद में उठा लेता ।
“नानी † बड≥का नाना क“हा ? रौशन पूछता ।
“हा“ बौआ † बड≥का नाना आज आयेंगे ।’’ उसकी नानाी कहतीं ।
मुझे भी बेटी सुनाती । नातीन भी सुतीन । मन प्रसन्नता से अभिभूत हो जाता । इन बच्चों को अपना ख्याल हमेशा बना रहता है । उनका ख्याल हो जाने पर मन आनन्द से ओतप्रोत हो जाता है ।
जाड≥े की धूपमें बेंच पर बैठा रामायण पढ≥ने का विचार कर रहा था । पोती मीना के मामा योगिया से आये । उन्होंने पा“व स्पर्श किया ।
“कुशल मंगल ठीक है ?’’ मैंने उन्हे पूछा ।
“सुचेता मर गयी ।’’
सुना क्या बज्रपात हो गया, अनभ्र बज्रपात । दिन की रोशनी में आ“खों के आगे अंधेरा ने परदा गिरा दिया । कलेजा फट पड≥ा । अपनी धिग्गी बंध गई । आ“खों से आ“सू की धारा बहने लगी । अपनी बोली उस वेदना के अतल सागर में समा गयी । मुझे चुप्प देख उसकी नानी जो समीप ही कुछ कर रही थी नजदीक आ गयी ।
“क्या हुआ ?’’ मेरी आ“खों में आ“खें डाल उसने पूछा ।
मुझेसे कुछ कहा नही गया । मीना के मामा हृदयाविदारक खबर दे उसके घर चले गये । उसकी नानी ने मुझे झकझोरा । जोर से चिल्ला उठी ।
“क्या हुआ ?’’ वह विचलित होकर बोली ।
सुचेता हम सबों को छोड≥ चली गयी, बहुत दूर ।
“क्या ?’’
माथा थामकर वहीं बेंचपर धड≥ाम से गिरी । अपना हृदय चित्कार कर ही रहा था । वह जोरसे रो रड≥ी । उसकी नानीका करुण रुदन वातावरण में समाता चला गया । तबतक कनिया भी आ“गन से आ गयीं । सुनकर जोर से करुण विलाप करने लगीं । परिवार भर को रोते देख टोले के लोग एक, एक कर जमा हो गए । सास–पुतौह को समझाने लगीं सभी जनिया““ ।
मेरा अपना रोना नहीं थमता । नातीन को उन दोनों सुकोमल खिलोनों का भी ख्याल नहीं रहा उस क्षण । देखत,े देखते सारे गा“व भर में यह खबर पैmल गई । आ“सू की बाढ≥ रुकी तो निष्पलक टुकुर, टकुर देखता रहा स्वयं को विस्मृत कर । स्वर हरा गया । गू“गा बन बेंचपर बैठा रहा । आने, जाने वालों को देखता । उन सबों से उदासीन बन रहा ।
“कोई संतान शोक’’ एक बार श्री अमरनाथ बाबू दौरीपटटी में बातचीत के क्रम में पूछा डाला था । उस प्रश्न का उत्तर आज अपने को सूझ रहा था ।
बेटी सुनाया करती कि सुचेता ने दो किलो अनाज तक कभी घर से बाहर या आ“गन का पथार भीतर आजतक नहीं किया है । पथार से एक मुजल्ला अनाज जिस सुचेता ने कभी नही घर किया वह अब उसने कालके भयंकर दंश को कैसे वरदास्त किया ? सुकुमार सुचेता के तनका मेरुदंड भी उसी कोमल मक्खनसे विरचित रहा है जिसके करण वह साधारण, हल्की वस्तु भी नही उठाती । सुकुमार तन स्याह काला बन गया । शायद मौत की सूरत ही काली होती है जिसका प्रतिबिम्ब प्राणी पर पड≥ते ही गोरा तन काला हो जाता है । उसकी छाया भी स्याह रंग बनकर उभरती है । इसीलिये हम प्राणी गण मौत की कल्पना तक कहीं करना चाहते । जीवित प्राणी मौत की इस पीड≥ा का ख्याल करते ही स्याह बन जाता है । सूरत तक पहचान में नहीं आती । गोरे रंगपर श्याम रंग का प्रबल प्रभाव पड≥ता है । गोरा रंग स्याह से कमजोर होता है । स्याह का तंतु मजबूत होता है ।
उस मनहहुस दिन ने घरके सभी लोगों को परिस्थिति सिरजकर घर से दूर जिल्ला के सदर मुकाम मधुबनी भेज दिया । सास के अकाल कवलित हो जाने से नातीन ही अकेली घर में थी । घर–परिवार में अनुभवी किसी महिलाके अभाव में ही नातीन को काल ने छीन लिया । सकट में बुद्धि कुंठित हो जाती है । घर में नातीन प्रवस पीडा से कराह उठी । आ“गन के सामने ल्किनीक में देवर ने सुचेता को प“हुचाया । क्लिनीक के डा. की समझमें क्या आया कि पानी चढाया । पानी चढ≥ते ही पीड≥ा और भी अस्हय हो गयी । सा“झ होने को आयी । सभी मधुबनी से आये । एमबुलेंस से उसे दरभंगा ले जाया गया । डाक्टर के नजदीक पहु“चते न पहु“चते नातीन अनंत पथ की यात्रा पर सबोंसे मु“ह मोड≥ चल पड≥ी ।
घर के सभी लोग जब चले गये थे तभी नातीन ने अनंतकी यात्रा का आयोजन कर लिया था । शायद सूस की ओर से आ जाने का न्यौता आ गया हो जिन्होंने उसे कभी देखा नही था । सिर्पm सत–सास के मु“ह से उनके विषयमें कुछ जाना हो जो सत–सास की दीदी हुआ करती थीं । हो सकता है सता सास चलते समय उसे जल्दी ही पीछे चले आने का आदेश दे गयीं हों । अनंत के गंतव्य की हड≥बड≥ी में अपनी सुकुमारी पूजा तथा दूध मु“हे सुकुमार की भी सुध–बुध जाती रही । बाप–मा“ को भूल गयी । नाना–नानी तक की याद नहीं रही । वह बिना शिकायत किए ही चल पड≥ी । उसके जाने की राहकी ओर नजर देता हू“ तो अपनी दृष्टि जहा“ तक जाती है सारा पथ जोर का अथाह सागर दीखता है । आजभी उसकी सहपाठिनी, मीना की मा“ को जो देयादंकी पुतहु है घर आ“गन में कूदकते, फुदकते देखता हू“ तो नातीन सुचेता की स्मृति स्पष्ट हो आती है और वह जोर के अथाह समंदर में पेंmक देती है ।
भ्ोडवा की भैरवी
‘परजीवी’ होना जीवों का आदिम स्वभाव है । मगर अपने लाभ के लिए दूसरे के खून पसीने की कमाई को बरबाद कर देना तो पूँजीवादी सभ्यता का उत्कृष्ट कौशल बन गया है । पूँजीवाद के इस दानव से क्या केवल हिंसा के बल पर निपटा जा सकता है ? इस प्रश्न का उतर देती सी ग्रामीण (आंचलिक) परिवेश पर रचित मार्मिक प्रतीक कथा ।
किसान की दीठ पड़ते ही आँखों में खूनÞ उतर आया । दोनों ही नयन रक्तलाल हो गये । रीस से सारा शरीर थर –थर काँपने लगा । उसका अपना वंश चलता तो तत्क्षण उन्हें पकड् कर उनकी गर्दनें उल्टाकर तोड देता । एक बार नही अनेकबार गर्दनो को घुमाता । तनकी चमडी उधेड कर हर रोज उन पर नमक छिडकता । हाड को तोडकर चारो ओर बिखेर देता । एक ही बार नही, हजार बार फाँसी लटकाता । वह अपने क्रोध की सीमा लाँध अंधा । बन गया । वे काम कर कही खिसक गये है । काम के बाद कही ऐसे खिसके है कि पदचिन्ह भी नही दीखते । किसान विवस, असहाय हो, अपनी अपूरणीय क्षति टुकुर –टुकुर निहारता रहा । पकड में नही है वो शत्रु जिन्होने रगत बने पसीना को ईस तरह महत्वहीन समझकर धरती पर लोटा दिया है । उसें समझमे नही आ रहाथा कि कैसे इन शत्रुओं से निबटे ? कैसे अपने दुर्लभ ,नाजुक श्रमकी सुरक्षा करे ? जी मसोसता,बाडीके कोना कोना में टहलता रहा । जहाँका गाछ काट गिराया था वहाँ केवल इन्च्, दो इन्च भर की खुट्टी दीखती । एक दो पते जड. में लगी खुट्टी प्राण की भिक्षा माँगती दीखती । तकलीफसें मन घोर उदासी में डुब गया । काट डाले गये गाछो को जमाकर हाथ में लेकर गिना। द्यर्जन से बढकर उनकी संख्या थी । एक रोजमें इतने गाछों को भक्ष कर गये है । दिन पर दिन ऐसे ही वे भक्षण करते गये तो सारा नाजुक श्रम सखाप । वह महिनों के कठीन श्रम को क्षनमात्र ने विनाश करनें वालो अलोपित शत्रुओ पर बरस पड़ना चाहता था । उसका अनमोल परिश्रम माटी में मिलता नजर आया । परिवार की आशा पर तुषारपात हो गया था ।
वह भुुल नही सकता कितनी कठिन मिहनत से पहले उसने उन बिजों को जन्माया । क्यारियों को बना सडेÞ गोबर की खादसे मलिल किया । कुदाल चला झिलिया कर कई दिनों की प्रतिक्षा के पश्चात् बीजों को डाला । पालासे बचानेके लिए सुखी घासों की मोटी चादर का तह जमाया । अन्तिम पौष सें हर रोज पानी इनार से भर ,भार बना टेंढेÞ –मेढेÞ रास्ते सें उन क्यारियों तक जा उखराभर पानी डालता रहता । माघ के जाड़े कि किये परवाह किये बिना दिन –दिन सिंचाई करता । जाड़े में सुरज–ताप का अभाव रहता है । पर्याप्त गरमी के बिना बिज देरसे अंंंकुरित होता है । पानी पड़ने से सुई सरीखा मोथा, क्यारियों में सापर पिट्टा जनम जाते है । गरमाने के लिए रखे गये लार के मोटे तह को छेड मोथा बीजाें पर चढ़ बैठे । बड़ी सावधानीसे उन्हें उखाड़ता माघ भर की ंिसचाई के पश्चात्. फाल्गुण में अंकुरित बीज रोपनें योग्य बना । अब जब नें खेत की क्यारियो में लगकर बढने लगे है , तो इन अदृश्य शत्रुओ का आत्रमण होने लगा है । ये बौने मिर्च कैसे बचकर फुल फलदेने की अवस्था प्राप्त करेंगे ? किसान चिंतित हो काट डाले । गए कोमल गाछों को एकत्र कर हाथ में रख उलट पुलट कर मातम मनाता रहा । उनकी रक्षा की तरकीब सोचता रहा । उसकी आँखो नें बिल के समीप पडा हरा पत्ता का टुकडा देखा । माघ के जाड़े में खुन तरल बन पसीना के रुप में बह गया था । आज दुख की आँचमें पिघल कर नयन के कोरो में जमा हो आया । हाथ मलता हथेली खुजालाता । भेड़वा ने क्यारियो में आकर शरणले लिया था । कहाँ से कहाँ आ गया ? बिछन के मुँह पर महीन दाने दार माटीका ढेर बना कोमल पौधों को काटÞ उसके भीतर रहते । साँझ के अंधेरे में वे बाहर आकर पौंधो को काट खाने में लग जता है । हर दिन दर्जनो पौधो को घरशायी कर जाते है । उन्हें खाने के लिये नरम , कोमल हरे पत्ते चाहिए अभी गछो में कोमल पत्ते ही लग रहे है । उन्हें काट कर ले जाय, मगर गाछों को इन्च,दो इन्च छोड गिरा डालने का क्या अर्थ ? पौधो कोे काट डाल्नेमें किसान की गरदनकट्टी होती है । इस तरह काट कर गिराने में बर्बादी अधिक खाना कम । मगर विनाश भी करना है । पुरे गाछ को काट कर खाने लगे तो एक ही गाछ में सैकड़ो भेड़वो का पेट भर जाय इनमें सामूहिकता की भावना कम है । व्यक्तिवादिता अधिक है । एक का काटा दुसरा नहीं छुता , खाता । हर एक अलग –अलग अपने लिए काटता है । नुकसान करता है । मगर यह नुक्सान उनका अभीष्ट नहीं । किसान नुक्सान का विचार कर विवेक खो बैठा । वह आतुर था । पकडकर दंड दें । उसने बित्ताभर की बत्ती का टुकड़ा लिया । बिल खोजने लगा । दंड स्वरुप शरीर के अंगो को काट कर छितरा देगा । उन्हें तड़पाकर भार डालना पसंद था । माटी खोदता , दुसरे हाथ से माटी हटाता । हाथ बिल की माटी खोदने लगा था तो दिमाग दंड बिधान में । कोडते हुए निचे गया । जब भी बाँये हाथसे माटी हाटाता चारों कात की दानेदार माटी भर भराकर गढाÞ भर देती । किसान ने जोत मिलाकर बाड़ी को मुलायम , भुरभुरा बना डाला था । नमीयुक्त माटी हटाकर वह बाहर फेकता । खोदने लगा माटी । उपर,की सुखी तथा भीतर की नमीदार भुरभुरा माटी मिलकर दो तरह की स्पष्ट दीखती । खोदते हुए पुरी गहराई तक नीचे चला गया । हलका नास जहाँतक पहुँच जाता है । बाद के भीतर की माटी की परत कड़ी है । गहराई में नमी का अंश बना रहता है । बत्ती के टुकड़ा से खोदते रहना सम्भव नही था । खोदने में श्रम किया परंतु भुरभुरी माटी में असावधानी वंश भेड़वा बिल मे समा गया । भेड़वा कहीं न मिला वह मन मसोस कर रह गया । दिन के उजाले में हजार बार बाड़ी में चक्कर लगाने पर भी भेड़वा का अता–पता नही पाया ।
“अभी पता नहीं चला है । .........ठीक है .........दुसरे समय में तोे बाहर आगया .........।” सोचता हुआ हाथ से माटी को झाडा । घर वापस आया । सिंचाईके क्रम मे कंधेपर उग आए ठेलाको सहलाता गुन –गुन करता रहा । उदासी धिरे चेहरे को देख पत्नी के नारी संस्कार ने तुरन्त भांप लिया ।
“क्या हुआ ............?” पत्नी ने पुछा ।
“देखो न १ क्या हुआ ..........? कैसा जुल्म कर दिया है ............?” गफ्फा में रखे दर्जनो काट गिराए गाछ को पत्नी के हाथ में रख दिया ।
महिनाें के किए श्रम को अकारण नाश होते देख पत्नी के मुँह से बोल नही निकल सकी । उदासी की परिधि मे वह स्वयं धिर गयी “बोडमरना भेड़वा को और घास नहीं मिल्ते खानेको ...........शौक है ...........माऊँ तो मुँह पर जलता अंधार रख दुँ .................। वही बथान पर का गोबर उठाती हुई बोली ।
“छोडुंगा नहीं............सभी को मारे बिना कल्याण नहीं............आ छिप गए ........कलको कहाँ जायेगे .............?”
छोटा सा पैना लेकर घास झाड़ने लगा । घास झाडकर गाय ,बैल को खाने दिया खैनी चुना ने बैठा । काटे गये गाछों के स्थानपर पुनः नए विरुओं के लगा देने से खेत जुट जायगा । मल –पानी पर सभी माघ समान बन जायेगें । वह खुरपी लेकर खुरसानी को गोड़ने गया । दुखित मन नयें पौधो को लगाया । पानी डाला । साँझ हो आयी थी । घर वापस आया ।
उसे रात मे निन्द नही आती । बाड़ी मे मिरचाई के लहलहाते पौधे , काट कर खाने बाले भेड़वो पर उसका ध्यान रहता । उसके पड़ोसी के खेत मे अगात खुरसानीके पौधे फुल– फल देने लगे थे । पवन के झोको पर वे गाछ झुम उठते । उस किसान की घरबाली इतराकर चलती उसे नीन्द आती , करवट फेरता । आघात करने बाले शत्रुअें पर सें ध्यान जाता नही उसी बाड़ी में उन भेड़वो के खाने के लिए मिरचाई के बौने गाछो के अतिरित्त और भी कोमल हरी बस्तुए है । सापरपिट्टा – मोथा का जंगल है । सूई के आकार के तेज , नुकील मोथा, जमीन की उर्वरा शक्ति या उसके लगाए पौधो के उपर चढते जा रहे है । जैसे उसने श्रम कर उन्हे ही लगाए हो । हारा , गोलकार , फल लटकाए हराभरा भुटका जहाँ –ताहाँ बतरा गया है । एक भुटका मुठ्ठी भर बन जाता है । हजारों भेड़वो के खाने पर भुटका क कुछ नहीं बिगड़ सकता । डाल –डाल की फुनगी पर छाता सरीखा , पीले हरे दानों बाला सीधा उनके बीच खड़ा वड़ा बिशाल दिखता । बिशाल सखुए का पेंड़ खड़ा हो । धोखा से डाल के अथवा पत्ता के भी टुटने पर उसकी मोहक गंध नाक में समाजाती है । बैशाख की आग बरस्वती धुप में वे चौमासो को पीला बनाए है । चिलचिलाती धुप उनके लिए बरदान है । आग उगलती उन सूओं के सम्पुर्ण विकास मे वधक न बन सहायक है । हरियाली प्रतिस्पर्धा में बथुआ किसि भी घास से कम नही । मरुवा बड़े इतमीनान से दिन पर दिन निकाल करता जा । रहा है । किसान की बाड़ी में इन की आवश्यकता नही । मगर जहाँ तहाँ साम्राज्य फैलाए है । दाने दार कोमल माटी को बिशाल द्वार बना अनगिनत बिलों को देखते ही वह समझजाता है की उनके अंदर भेड़वा या उनकी संतति के निवास है । वर्तमान युग के सत्ता प्रतिष्ठानकी तरह जहाँ तहाँ वे बिखड़े परे है । धरती पर किसान का शोषण करने बाले ये भेड़वा दीखते है । उन भेड़वो के बहुत सारे खाध पदार्थ खेतो में पड़े है । उन्हे न ख के किसान के लगाए बाली चट करने में ही उन्हे क्या मजा आता है ? उन्हें स्पर्श तक नही कर । पर कमरतोड परिश्रम कर उपजाये शये छोटे छोटे खुरसानी को पौंधो के पीछे हाथ धोका पडे है । वे मिहनत करने दुर जाना नही चाहते । नजदीक ही खुराक चाहिए । परशुराम की तरह धरती को अगर क्षत्रियविहिन नही किया जा सकता तो कम से कम उस वाडी से उन्नें संतति सहित सफाया किए विना काम नही चल सकता । वे जीना दुभर कर रहे है ।
भोर होते मवेशी को खुटेसे, बाहर कर, खाना दे, डोल मे पानी डाल, मे काटे गए स्थानों पर लगाए पौधो को सीचने वह बाडी मे आया । पटाते समय अनेकौं गाछों को निस्सहाय धरती पर लेटे देखा । क्रोध की लहर तलुवे से मगज पर पहुच गयी । अाँखो के आगे फिर अंधेरा छा गया । इस गति से वे उन पौधो को काट गिराते चले गये तो बाडी सखाप , परिश्रम व्यर्थ । पहले उन शत्रुओं को मारे या नए लगाए पौधो मे पानी दे? पटाना ही श्रेयस्कर समझ जी मसोस कर पटाता रहा । जिन्हे काटना था उन्होने काटकर पौंधों को धराशायी कर दिया है ही । अब दिन भर वे और नही काटेगें । धैर्य से काम करना होगा ।शांत चिन्त हो वह पानी पटाता रहा । गृहिणी बाडी में आयी तो शिकायत करते हुए काटे गए पौधों को दिखाया ।
“काल भेडवा............हमे जीने नही देगें.........।”निहार कर दुखित मन बाली ।
प्राणो की भीख माँगतें कोमल , हरे भरे मिरचाई को लेकर उदास मन निरखती रही । कुछ क्षण पहले उनमे जिवन था । इन मे आशा थी । अब वे जीवन हीन बन बेकार हो गए हैं।
अब , खुरपी से किसान कीडा के बिल को खोदने लगा । दाहिने हाथ से मैदा सरीखा माटी को हटाता । खोदते खोेदते लगभग पांच छ इन्च की गहराई तक वह जाता । भेडवा का पता नही चला । अबकी बार वह सावधानी से बील खोद रहा था । भेडवा का शान्त, एकान्त, निरापद भवनका शयनगार कही छिप न जाय । अब नीचे पर ती , ठक्कर, जमीन आ गयी । खोदते समय खुरपी का बेट हथेली में गड़ जाता । पहले खुरपी सुगमता से चलती । नही , खोदे कोई उपाय भी नही था । पहले दीख तो जाय ? तब न सजा दी जायगी । लगभग तीन चार ईन्च और नीचे खोदने पर हरा पत्ता का टुकड नजर पड़गया । समझने मे देर नहीं लगी कि विश्राम में है । उसका मन प्रति शोध की भावना से जल उठा आराम से निरापद बैठे है । उसके प्राण से खिलबाड कर । अब जगगा कहाँ ? खुरपी से माटी खोदा । माटी हटाया तो खुरपी के मोटे ,भोथा धार के हलके आघात ने उसके तन को काटकर दो भागों में बाँट दिया । भुगतो । कमर तोंड़ श्रम से उपजाये नाजुक पौधो के खाने का मजा चखो । कटे भेड़वा को उसी बिल में समाधिस्थ कर दुसरा बिल खोदने लगा । उसके भीतर से हाथ के अँगूठे की मोटाई का खाया पीया दादा निकल, उछलता जान बचाने भागा ।
”भागकर कहाँ जाओगे ...........ठहरो ............एक का फल भुगतो ...........।”
किसान ने ढ़ेला चलाया । मैदा सी मुलायम माटी में सिर छिपाने का यत्न किया । हड़बड़ी में उसने बाँये हाथ से माटी को बकुटा भेड़वा पकड़ में आ गया । बचकर निकल भागने की चेष्टा करने से किसानका क्रोध भड़क उठा । तत्क्षण उसने खुरपी से चार टुकड़ा कर डाला । अन्य बिलों को खोदकर सफाया करता चलता । कितना चतुर है ? एक बिल में एक ही , दुसरा नही । अनेक नही । समुह बनाकर रहने में एक साथ सफाया हो जायेंगे । उसने बाड़ी में नजर डाली। असंख्य बिल दीख गये। किन्ही बिलों पर ताजा काट डाले गए हरे पते को पडा देख ।
कितना खोदकर मार डाला इस तरह से मारने से अधर्म नहीं होगा ? यह कोइ पाप नही ? किसान के श्रम को नष्ट करने बालाें को किसान क्योंकर जीने दें ? मार डालना ही अच्छा है । न रहे बाँस न बजे बासुरी । पर इस तरह इन्हे मारना सम्भव है । इस तरह मारने में शक्ति ,श्रम ,समय लगते है । अन्य उपाय हो तो अच्छा रहेगा । उखडाहा से मारने का काम करते–करते वह क्लांत हो गया था । पर मन से नही हारा था । अभीतक कुछ ही पं्रतिशत काम कर सका था । अपनी बाडी को भेडवा बिहीन करने का मनसुबा बाँधे । था ।
”देखोन १ कितने को सुरधाम पहुँचाया है ...........बडे चतुर है .........उसकी घरबाली बाडी में बेगन लेने आई तो उसने दिखता हुआ कहाँ .........दिनकी रोशनी में बाहर नहीं आते .............केवल रात के अंधेरे मे बाहर होते ...........धुप अंधेरे मे ही कार्यरत रहते ............सवेरा होते ही बिल में बिलीन हो जाते ..........सभी दुश्मनों से निरापद हो वे काम करते .............।”
मरनेका काम करते रहने से घृणा सी हो आयी । अन्तरात्मा जीव हत्या करने में साथ नही दे रही थी। आत्मा पर दबाव कबतक काम करे ? धर्म का संस्कार जोड पकडता गया । एक भार से हत्या करते मन ऊब गया। अब और आगे हत्या करते नही चाह रहा था । पास पडोस के सभी अपने खेते में कार्यरत थे ही । वह हल्का होने को सोच रहा था । “चलिये .......नहाने खानेका समय हो गया है ............शेष की दवा कल करेंगे .......।” थोडा बल लगाकर बैगन के तोडने से कलाई की चूडियाँ झन झनाकार वातावरण में मिठास घोल गयी । उनका मोहक संगीत कानो को सरस कर गया । इतने कीडो को खोदकर मारना बडा । दुष्कर है ................कोई अन्य उपाय हो तो कीया जाय ............।
पत्नी के मुँह से दवा शब्द का उच्चारण होते ही उसका मन चेत गया ।
“घर में मच्छर मारा दावा है ..........उसे ही पानी में घोल बिलों में डालने से उन्हे मर जना चाहिए ..........है तो यह जहर ही ...........बिलों को खोद मारने में समय , श्रम,शक्ति खर्च होते है ..........।” किसान ने सोचा । “है तो यह बिष ही ........जरुर मर जना चाहिए .........।” घरबाली ने बैगन तोड आँचर में भरते हुए कहा ।
कई दिनो से रात – दिन बहती पुरबैया एका एक गिर गयी । असमान में काले बादल घिरने लगे । किसान काले बादलको देख हर्षित हुआ । बिजली चमकने लगी । पश्चिम से उठा बादल आसमान के वक्ष पर फैलने लगा । पश्चिम से शीतल हावा का झोका आया । बादल मसियाने लगा । क्षणकाल में बडी बूँद बन टपकने लगा । कुछकाल पश्चात् शीतल पछिया हावा का झोका आया । मुसल धार बरसा होने लगी । तवे से जलती धरती की गर्मी कव वातावरण में सभ गयी किसान पत्ता ही नही कर सका बादल अच्छी पशुओं तरह बरसकर पूरबकी ओर बढ गया । नीला असमान नग्न दृश्यमान था । तारे चम्कने लगे थे । बादल की ओट में बिघट सुरज संध्या के आँचर में सो गया । मेघ अमृत रस बरसा बाडी झाडी को तृप्त कर गया । किसान ने अपने अपने को घर भीतर बाँध दिया । उस दिन की बरसाती साँझ में भेंडवो के समवेत स्वरका आरोह –अवरोह हीन एकदम लय पंंचम सुरका मोहक संगीत वतावरण को सरस कर दिया था ।
पानी प्राण है । कुछ ही दिनो में मिर्च के पौधे झुलस गये । फुलों से लदी हरी डालियाँ चारों कात झुक आयी । जंगली फुलो बाली डालियों सें झुकी मिरचाई क िबाडी में खडा होकर देखते रहना बडा भला लगता था । हरितिमा की चादर लेपेटे मिरचाई के खडे पौधो में जीवन का भविष्य मूर्तमान हो उठा । आन्नद विभोर किसान बाडी में टहलता रहा । सुरजकी तेज गर्मी से नमी को बचाने के लिये दिन भर तीन दिनों तक उसने खुरपीसे जीतोड श्रम किया पपडी पडी माटीको तोड डाला । मोथा को साफ किया । बाडी में नंगे पाँव टहलने से जमीन के नीचे धँसे जहाँ भेड़वो का आक्रमण हुआ तो फल–फुल लगे हरे भरे पेड़ धरती पर लोटते नजर आए । उसका सिर चकरा गया। मच्छर मारा दावा की याद आयी । ये दुश्मन इस से आवश्य नाश हो सक्ते है । परिश्रम से उगाए पौधो के खाने वालों कीडो के बिनाश में अधरम नही है । गृहस्थी अपने आप में महान धर्म है । उस महान धर्म को कोई पाप या अधर्म स्पर्शतक नही कर सकता ।
उसने दावा को पानी में घोला । खुरपीसे बिलों को जगगा घोल में डुबा पहले परखा । घोल में डुबते ही फुदकते भेडवा पल भर में शान्त और निश्चेष्ट हो जाते । संज्ञाहीन बन जाते । वह अनेको बिलों में उस घोलों में उस घोल को डालता रहा । घोलमे कुदकते –फुदकते भेड़वो कों तडपकर संज्ञाहीन बनते देख । अन्तरात्माने धिक्कारा । साथ दिना छोड दिया ।
भुख –प्यास प्राणियो को सताते है । अतः खानेको खुराक और पीने को पर्याप्त पानी चाहिये । आहार की खोज मे कीडे अन्यत्र भी जा सकते है । किसान के उपजाये पौधो को नही खाकर अन्य घास भी तो खा सकते है । मगर ऐसा नही करते । वे कीडे फतिंगे ही खाना चाहते है जो मनुष्य अपने लिए उत्पन्न करता है । मनुष्य अन्य खाध पदार्थ नही खा सकता । फतिंगे भी वैसा नही करते ।
ठूँठे –बौने खुरसानी के पौधे माघ वर्र्षा जल में नहा दिन –दूुना रात –चौगुना बढते गए । लम्बे नीकुले मिरचाई धरती की ओर घूँघरु सरीखा लटक कर जड छुने की प्रतियोगिता कर रहे थे । किसान दम्पति बाडी मे खडे आत्म विभोर हो उन्हे देखते । साँझ को उनका मधुर संगीत मन को मोह लेता । उसने अपनी बाडी को भेडवा विहीन करने का अभियान त्याग दिया । स्वष्टा की सृष्टि के शाश्वत संतुलनको असंतुलित करने का उसका कोई हक नही ।
काम से भेडवा सृष्टि का असुन्दर जीव हो कर भी स्वर संगीत से अनुपम है ।