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Hindi Store and Poem
श्री
धरा मा“गती बलिदान है ।
भूक बना है म“ूइ मा“ का
कर बंधा जंजीर से ।
खिन्न मा है। राह देखती
नयन भरा है नीर से ।
जग जानेगा जब तन पै सधवा का परिधान है
धरा भा“गती बलिदान है ।
धधक रही है धमन भट्टी
चल रहा तुफान है ।
चैन से बंसी बजाते
मा“ का न उनको ध्यान है ।
कुर की बेड≥ी बन जाय चूड≥ी, इसी में कल्याण है ।
धरा, मा“गती बालिदान है ।
“इन मछलियों को पका कर खाने से प्राण पलटेंगे ।”
जैसे–तैसे कुछ मछ लियों को पकड≥ा । उन्हें किनारे पर लाकर रखा । उन्हें पकाने के लिए कुछ टहनिया“–सूखे पत्ते चाहिए । उन्होंने इधर–ऊधर ताका ।
नदी के किनारे चीरकर पेंmक गए सूखे दतुवेन दीख पड≥े । उन्होंने बटोरा । दूरकहीं धुआंती आग दीख पड≥ी । जाकर आग लाये । सूखी घास जमा किया । कुछ दतुवनों को नीचे पसारा । थाड≥ी घास रख दिया । उन पर उन मछलियों को तह लगा कर रखा । शेष दतु वन और घाससे उन्हें ढ“क दिया । उन पर आग उन्हें ने रखी सूखी घास जलने लगी । मन्द हवा चल रही थी । आग जल उठी । कुछ देर तक आग जलती रही । जला वन के जलजाने के बाद आग बुझने लगी । आग के डंढ≥ पड≥ने के बाद उन अधपकी मछलियों को निकाल कर भंmाड≥पंूmक कर साफकिया । उन्हें जंगली पत्ता पर रखा ।
हाथ–मु“ह धोने नदी में गए । हाथ में लगे राख को अच्छी तरह साफ किया । कुल्ला करने उपर आये । आ“खें फाड≥, फड≥ कर देखते रह गए । वे मछलिया“ एक, एक कर कूद–पंmाद करती पानी में समा गयी । वे आश्चर्य चकित देखते ही रह गए ।
उसी समय से दतुवन करने वाले दतुवन चीर कर, जीविया करके साफ पानी से धोकर प“mकते हैं । वे ही अधपकी मछलिया“ आजकी ‘भूल्ला’ मछली है ।
साथ, साथ चलने वाली परछं । यी अंधेंरा होने पर साथ छोड≥ देती है ।
..क्योंकि सपना है अभी भी
इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
...क्योंकि सपना है अभी भी!
तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा
जब कि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा
कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा
विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आँका था
(एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा?)
किन्तु मुझको तो इसी के लिए जीना और लड़ना
है धधकती आग में तपना अभी भी
....क्योंकि सपना है अभी भी!
तुम नहीं हो, मैं अकेला हूँ मगर
वह तुम्ही हो जो
टूटती तलवार की झंकार में
या भीड़ की जयकार में
या मौत के सुनसान हाहाकार में
फिर गूंज जाती हो
और मुझको
ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको
फिर तड़प कर याद आता है कि
सब कुछ खो गया है - दिशाएं, पहचान, कुंडल,कवच
लेकिन शेष हूँ मैं, युद्धरत् मैं, तुम्हारा मैं
तुम्हारा अपना अभी भी
इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धूंध धुमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
... क्योंकि सपना है अभी भी!
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
Hindi Store and Poem
श्री
धरा मा“गती बलिदान है ।
भूक बना है म“ूइ मा“ का
कर बंधा जंजीर से ।
खिन्न मा है। राह देखती
नयन भरा है नीर से ।
जग जानेगा जब तन पै सधवा का परिधान है
धरा भा“गती बलिदान है ।
धधक रही है धमन भट्टी
चल रहा तुफान है ।
चैन से बंसी बजाते
मा“ का न उनको ध्यान है ।
कुर की बेड≥ी बन जाय चूड≥ी, इसी में कल्याण है ।
धरा, मा“गती बालिदान है ।
करुणा का अंचल गीला है
करुणा का अंचल गीला है ।
क्षितिज छोर पर लहर भयंकर जलनिधि का जल नीला है ।
दया दुखित हो द्वार, द्वार पै
भीख मा“गने आती, जाती
द्वार–पाल बन बैठी घृणा
उसके भटकन पर मुस्काती
बलात्कार, रुदन को सुनकर उसका अंतर पीला है ।
करुणा का अंचल गीला है ।
ढ≥ाई आखर जग नहीं जाने
स्नेहशीलता उसे न भाती
पर उपकार को पर उग आया
सत्ता की है ठकुर सुहाती
चाकर बाजी युग धर्म अब यह गजब की लीला है ।
करुणा का अंचल गीला है ।
‘विविधा’ त्रैमासिक पत्रिका सुपौल, बिहार, भारत
नहीं चाहिये लहू पुरानी जिस में कोई बल नहीं ।
खल–बल करता दूध सरीखा आये भाव प्रबल नहीं ।
पुरइन पात पर जल ब“ूद सा डगमग करता सबल नहीं ।
पतले बा“स की टा“ग बनाकर चलने वाला निर्बल ही ।
समकोण बनाकर चलने वाला रोगों से भरपूर है ।
मही मा“गती भा“ग का सिंदूर है ।
जिसके तन में रग–रग ऊर्जा, जिसके अंतर छल नहीं ।
तुच्छ जान को इस वेदी पर देना कोई नवल नहीं ।
ह“सते, ह“सते जो कोई देवें उसका जीवन उज्जवल ही ।
नश्वर तन हो जाये शाश्वत पाये परम यश निर्मल ही ।
वही रक्त भाता है उसको जो नयनों का नूर है ।
मही मा“गती मा“ग का सिदूंर है ।
‘किरण’ नेपाली साप्तहिक
नेपालगंज
नेपाल
‘विविधा’ त्रैमासिक पत्रिका सुपौल, बिहार, भारत
मही मा“गती मा“ग का सिंदूर है
मही मा“गती मा“ग का सिंदूर है ।नहीं चाहिये लहू पुरानी जिस में कोई बल नहीं ।
खल–बल करता दूध सरीखा आये भाव प्रबल नहीं ।
पुरइन पात पर जल ब“ूद सा डगमग करता सबल नहीं ।
पतले बा“स की टा“ग बनाकर चलने वाला निर्बल ही ।
समकोण बनाकर चलने वाला रोगों से भरपूर है ।
मही मा“गती भा“ग का सिंदूर है ।
जिसके तन में रग–रग ऊर्जा, जिसके अंतर छल नहीं ।
तुच्छ जान को इस वेदी पर देना कोई नवल नहीं ।
ह“सते, ह“सते जो कोई देवें उसका जीवन उज्जवल ही ।
नश्वर तन हो जाये शाश्वत पाये परम यश निर्मल ही ।
वही रक्त भाता है उसको जो नयनों का नूर है ।
मही मा“गती मा“ग का सिदूंर है ।
‘किरण’ नेपाली साप्तहिक
नेपालगंज
नेपाल
अक्षम
‘ भूल्ला म छली ’
राजा हरिचन्द्र पर आफतआयी । राज–पाट छुट गया । भूख–प्यास के मारे दर–पर भटकना पड≥ा मा“गकर खाने का अभ्यास तो था नही । मा“गने में श्र्म आती थी । भुख–प्यासा ही भटक ते हुए कहा“ से कहा“ चले गए । भुखा¬¬–प्यास प्राणी से प्रबल्न है । प्राणी उनके आगे विवस हो जाता है । उन्हें रहा नहीं गया । निरुपाय होकर एक पेड≥–तले बैठ गए । गुन धुन करते रहे । कम जोरी के कारण चला नहीं जाता था । सामने नदी बह रही थी । मु“ह–हाथ धोने नदी में उतरे । छोटी, छोटी मछलिया“ कूद–फांद करती थीं । मन में विचार कौध गया ।“इन मछलियों को पका कर खाने से प्राण पलटेंगे ।”
जैसे–तैसे कुछ मछ लियों को पकड≥ा । उन्हें किनारे पर लाकर रखा । उन्हें पकाने के लिए कुछ टहनिया“–सूखे पत्ते चाहिए । उन्होंने इधर–ऊधर ताका ।
नदी के किनारे चीरकर पेंmक गए सूखे दतुवेन दीख पड≥े । उन्होंने बटोरा । दूरकहीं धुआंती आग दीख पड≥ी । जाकर आग लाये । सूखी घास जमा किया । कुछ दतुवनों को नीचे पसारा । थाड≥ी घास रख दिया । उन पर उन मछलियों को तह लगा कर रखा । शेष दतु वन और घाससे उन्हें ढ“क दिया । उन पर आग उन्हें ने रखी सूखी घास जलने लगी । मन्द हवा चल रही थी । आग जल उठी । कुछ देर तक आग जलती रही । जला वन के जलजाने के बाद आग बुझने लगी । आग के डंढ≥ पड≥ने के बाद उन अधपकी मछलियों को निकाल कर भंmाड≥पंूmक कर साफकिया । उन्हें जंगली पत्ता पर रखा ।
हाथ–मु“ह धोने नदी में गए । हाथ में लगे राख को अच्छी तरह साफ किया । कुल्ला करने उपर आये । आ“खें फाड≥, फड≥ कर देखते रह गए । वे मछलिया“ एक, एक कर कूद–पंmाद करती पानी में समा गयी । वे आश्चर्य चकित देखते ही रह गए ।
उसी समय से दतुवन करने वाले दतुवन चीर कर, जीविया करके साफ पानी से धोकर प“mकते हैं । वे ही अधपकी मछलिया“ आजकी ‘भूल्ला’ मछली है ।
साथ, साथ चलने वाली परछं । यी अंधेंरा होने पर साथ छोड≥ देती है ।
..क्योंकि सपना है अभी भी
इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
...क्योंकि सपना है अभी भी!
तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा
जब कि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा
कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा
विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आँका था
(एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा?)
किन्तु मुझको तो इसी के लिए जीना और लड़ना
है धधकती आग में तपना अभी भी
....क्योंकि सपना है अभी भी!
तुम नहीं हो, मैं अकेला हूँ मगर
वह तुम्ही हो जो
टूटती तलवार की झंकार में
या भीड़ की जयकार में
या मौत के सुनसान हाहाकार में
फिर गूंज जाती हो
और मुझको
ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको
फिर तड़प कर याद आता है कि
सब कुछ खो गया है - दिशाएं, पहचान, कुंडल,कवच
लेकिन शेष हूँ मैं, युद्धरत् मैं, तुम्हारा मैं
तुम्हारा अपना अभी भी
इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धूंध धुमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
... क्योंकि सपना है अभी भी!
Aag Jalni Chahiye
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।